बहुत सरल है निर्विकल्प दशा को उपलब्ध करना। अत्यंत सरल, उससे सरल कोई बात ही नहीं
है। लेकिन ये जो तीन बातें मैंने पहली कहीं, ये बड़ी कठिन
हैं। और इन तीन को जो नहीं कर पाता वह उस अत्यंत सरल बात को भी नहीं कर पाता। वह
चौथी सीढ़ी है। इन तीन को पार करके ही उसे पार किया जा सकता है। वह तो बहुत सरल है।
कठिनाई है इन तीन बातों की--विश्वास को, अनुकरण को, आदर्श को त्यागने में बड़ी कठिन, बड़ा आर्डुअस,
बड़ा श्रम है। लेकिन चौथी बात बहुत सरल है। जो इन तीन बातों को कर ले,
चौथी बात करनी ही नहीं पड़ती, बड़ी सरलता से हो
जाती है। उस सूत्र के संबंध में अंत में थोड़ी सी बात आपको समझाऊं। लेकिन इन तीन को
किए बिना वह नहीं हो सकेगा।
चित्त की निर्विकल्प दशा,
शून्य दशा, ध्यान दशा बहुत सरल है। लेकिन
सीढ़ियां जो उस तक पहुंचाती हैं वे बड़ी कठिन मालूम होती हैं। और वे भी कठिन इसलिए
नहीं हैं कि वे कठिन हैं, आप में साहस नहीं है जरा सा भी,
इसलिए वे कठिन हो गई हैं। साहस हो, एक क्षण की
देर नहीं है।
शून्यता पा लेनी बहुत सरल है, साहस चाहिए।
क्या करें शून्यता पाने को?
बहुत सरल सी बात है, अगर
चित्त के प्रति चित्त में चलती हुई जो विचार की धारा है, दिन-रात
चल रही है, विचार और विचार और विचार, चित्त
में विचारों की शृंखला चल रही है। जैसे रास्ते पर लोग चलते हैं, ऐसा ही चित्त में विचार चलते हैं। यह विचारों की भीड़ चल रही है चित्त में।
इसके प्रति अगर कोई चुपचाप जागरूक हो जाए, साक्षी बन जाए,
बस और कुछ भी न करे। लड़ने की जरूरत नहीं है, राम-राम
जपने की जरूरत नहीं है। क्योंकि राम-राम जपना खुद ही अशांति का एक रूप है। एक आदमी
राम-राम, राम-राम कर रहा है, यह आदमी
बहुत अशांत है, और कुछ भी नहीं। क्योंकि शांत आदमी इस तरह की
बकवास करता है, एक ही शब्द को लेकर दोहराता है बार-बार?
यह आदमी अशांत ही नहीं है, पागल होने के करीब
है। चूंकि हम निरंतर इस बात को मान बैठे हैं कि राम-राम जपना बड़ा अच्छा है। हम
फिकर नहीं कर रहे। यही आदमी अगर एक कोने में बैठ कर कुर्सी, कुर्सी,
कुर्सी, कुर्सी कहने लगे, तो हम चिंतित हो जाएंगे।
यही आदमी अगर कुर्सी, कुर्सी,
कुर्सी कहने लगे, तो हम चिंतित हो जाएंगे।
भागेंगे, कहेंगे कि चिकित्सा करवानी है, हमारे घर में एक व्यक्ति कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी घंटे भर तक बैठ कर कहता रहता है। लेकिन राम-राम कहने में कोई फर्क
है? एक ही बात कोई शब्द को लेकर दोहराना विक्षिप्त होने की
शुरुआत है, स्वस्थ होने की नहीं। चित्त रुग्ण हो रहा है। न
तो राम-राम की जरूरत है, जिसको आप जप कहते हैं, न मंत्रों की जरूरत है। चित्त को शांत करना है। और आप व्यर्थ की बातें
दोहरा कर उसको अशांत कर रहे हैं शांत नहीं।
कुछ मत दोहराइए,
कोई भगवान का नाम नहीं है। कोई शब्द-मंत्र नहीं है। कुछ दोहराने की
जरूरत नहीं है। फिर चुपचाप बैठ कर मन में जो अपने आप चल रहा है कृपा करके उसको ही
देखिए, अपनी तरफ से और मत चलाइए। वैसे ही काफी चल रहा है अब
आप और काहे को चलाने की कोशिश कर रहे हैं। जो मन में चल रहा है अपने आप, आप उसके किनारे बैठ कर चुपचाप देखते रहिए, बस साक्षी
हो जाइए, जस्ट ए विटनेस, सिर्फ एक
देखने वाले। बुरा चले तो भी निकालने की कोशिश मत करिए, क्योंकि
निकालने की कोशिश में आप सक्रिय हो गए, फिर साक्षी न रहे।
हटाने की कोशिश मत करिए किसी विचार को। किसी विचार को लाने की कोशिश भी मत करिए।
क्योंकि दोनों हालत में आप कूद पड़े धारा में, बाहर खड़े न
रहे। मन की धारा के किनारे तटस्थ तट पर बैठ जाइए और देखते रहिए, मन को चलने दीजिए, चुपचाप देखते रहिए। और कुछ भी मत
करिए, सिर्फ देखना, सिर्फ दर्शन
पर्याप्त है। आप थोड़े ही दिनों में पाएंगे कि देखते ही देखते मन की धारा क्षीण
होने लगी, मन की नदी का पानी सूखने लगा। जैसा आपकी गांव की
नदी का सूखा रह जाता है, वैसे ही मन का पानी धीरे-धीरे सूखने
लगेगा। आप देखते रहिए, धीरे-धीरे अनुभव होने लगेगा आपको कि
देखते ही देखते बिना कुछ किए मन की धारा क्षीण होने लगी है, और
एक दिन आप चकित हो जाएंगे कि आप बैठे हैं और मन की धारा में कहीं कोई विचार नहीं
है। जिस दिन भी यह अनुभव आपको हो जाएगा, उसी दिन आपको पता चल
जाएगा कि दर्शन विचार की धारा को तोड़ने की विधि है। अ-दर्शन मर्ूच्छित भाव से
विचार में पड़े रहना विचार को बढ़ाने की विधि है। हम मर्ूच्छित भाव से विचार में पड़े
रहते हैं, विचार को देखते नहीं। बस इसके अतिरिक्त और कोई
बंधन नहीं है विचार के।
जिस दिन भी आप द्रष्टा होने में समर्थ हो जाते हैं उसी दिन
विचार विलीन हो जाते हैं। और तब जो शेष रह जाता है वह है शांति, वह है निर्विकल्प दशा,
वह है समाधि, वह है ध्यान, और भी कोई नाम, जिसको जो मर्जी हो दे सकता है। वह है
चित्त की निर्विकार स्थिति। उस दशा में ही जाना जाता है जीवन, उस दशा में ही पहचाना जाता है सत्य, उस दशा में ही
मिलन हो जाता है उससे जिसे भक्त भगवान कहते हैं, ज्ञानी
आत्मा कहते हैं, विचारशील लोग सत्य कहते हैं। सत्य की
उपलब्धि ही मुक्ति है। उसको जानते ही व्यक्ति के जीवन में फिर कोई बंधन, कोई दुख, कोई मृत्यु नहीं रह जाती।
इस दिशा में थोड़ा प्रयोग करें और देखें। क्योंकि इस दिशा में तो
प्रयोग करके देखा ही जा सकता है। यह दिशा तो सिर्फ अनुभव की दिशा है। इसमें कोई और
आपके साथ कोई सहयोग नहीं कर सकता। कोई आपको पकड़ कर समाधि में नहीं ले जा सकता।
आपको ही श्रम करना होगा।
और मैं कहता हूं,
अत्यंत सरल है समाधि को उपलब्ध करना, अगर पहले
की सीढ़ियां चढ़ने का साहस आपमें हो।
अंतर की खोज
ओशो
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