प्रार्थना, क्या तुम कहते हो, उस पर निर्भर नहीं है; वरन् क्या तुम हो, उस पर निर्भर है। पूजा, क्या तुम करते हो, उससे संबंधित नहीं है, बल्कि क्या तुम हो, उससे ही संबंधित है। धर्म का
संबंध कृत्य से नहीं है; अस्तित्व से है। तुम्हारे भीतर के
केंद्र पर अगर प्रेम है, तो तुम्हारी परिधि पर प्रार्थना
होगी। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर अहर्निश शांति है, तो
तुम्हारे बाहर के केंद्र पर ध्यान होगा। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर पल-पल होश
है, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपश्चर्या होगा। इससे उलटा नहीं
है।
परिधि को बदलने से केंद्र नहीं बदलता। केंद्र की बदलाहट से
परिधि अपने-आप बदल जाती है; क्योंकि परिधि तुम्हारी छाया है। छाया को बदलकर कोई स्वयं को नहीं बदल
सकता; लेकिन स्वयं बदल जाए तो छाया अपने-आप बदल जाती है। यह
जान लेना बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अधिक लोग परिधि को
बदलने में ही जीवन नष्ट कर देते हैं। आचरण को बदलने में सब कुछ दांव पर लगा देते
हैं; जब कि आचरण बदल भी जाये तो भी कुछ बदलता नहीं। तुम आचरण
को कितना ही बदल लो, तुम 'तुम' ही रहोगे-चोरी करते थे, साधु हो जाओगे; धन इकट्ठा करते थे, बांटने लगोगे, लेकिन तुम 'तुम' ही रहोगे। और
धन का मूल्य तुम्हारी आंखों में वही रहेगा; जो चोरी करते समय
था, वही मूल्य दान करते समय रहेगा। चोरी करते समय तुम समझते
थे कि धन बहुत कीमत का है, दान देते वक्त भी तुम समझोगे कि
धन बहुत कीमत का है। धन मिट्टी नहीं हुआ, नहीं तो मिट्टी को
कोई दान देता है!
अगर धन सच में ही मिट्टी हो गया, तो तुम अपने कूड़े-कर्कट को दूसरे को देने जाओगे?
और अगर कोई ले लेगा तुम्हारा धन, तो क्या तुम
समझोगे कि तुमने उसे अनुगृहीत किया? क्या तुम चाहोगे कि वह
तुम्हें लौटकर धन्यवाद दे, अगर धन सच में ही व्यर्थ हो गया,
तो जो तुम्हारा धन स्वीकार कर ले, तुम ही उसके
अनुगृहीत होओगे। तुम सोचोगे कि धन्यभाग मेरे, इस आदमी ने
कचरा लिया, इनकार न किया। लेकिन दानी ऐसा नहीं सोचता। एक
पैसा भी दे देता है, तो उसका प्रतिकार चाहता है।
एक मारवाड़ी की मृत्यु हुई। उसने सीधा जाकर स्वर्ग के द्वार पर
दस्तक दी। और उसे पका भरोसा था कि द्वार खुलेगा; क्योंकि उसने दान किया था। द्वार खुला भी।
द्वारपाल ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा; क्योंकि स्वर्गों में
कृत्यों की पहचान नहीं है, व्यक्ति सीधे देखे जाते हैं। और
द्वारपाल ने पूछा कि शायद भूल से आपने यहां दस्तक दे दी। वह जो सामने का दरवाजा है
नरक का, वहां दस्तक दें।
मारवाड़ी नाराज हुआ। उसने कहा. 'क्या खबर नहीं पहुंची। कल ही मैंने एक बूढ़ी औरत
को दो पैसे दान दिये हैं। और उसके भी एक दिन पहले एक अंधे अखबार बेचनेवाले लड़के को
मैंने एक पैसा दिया है।’ जब दान का दावा किया गया, तो द्वारपाल को खाता—बही खोलना पड़ा। अपने सहयोगी को
उसने कहा कि देखो। वहां तीन पैसे उस मारवाड़ी के नाम लिखे थे। द्वारपाल चिंता में
पड़ा। पूछा : 'कुछ और कभी किया है?' मारवाड़ी
ने कहा— 'और तो अभी इस समय कुछ याद
नहीं आता।’ किया होता और याद न आता! जिसको तीन पैसे याद रहे,
उसने किया होता और, याद न आता! खाता—बही खोला गया, बस वे तीन पैसे ही नाम लिखे थे।
उन्हीं तीन पैसे के बल वह स्वर्ग के द्वार दस्तक दिया था, अक्ल
के साथ।
द्वारपाल ने अपने साथी से पूछा : 'क्या करें इसके साथ?'
उसके साथी ने खीसे से तीन पैसे निकाले और कहा कि इसको दे दो और कहो
कि सामने के दरवाजे पर दस्तक दो।
पैसों से कहीं स्वर्ग का द्वार खुला है! तुम चाहे पकड़ो पैसा और
चाहे छोड़ो, दोनों
ही हालत में मूल्य रूपांतरित नहीं होता। तुम चाहे संसार में रहो, चाहे भाग जाओ, संसार का मूल्य वही का वही बना रहता
है। तुम पीठ करो कि मुंह, यात्रा में बहुत भेद नहीं पड़ता—जब तक कि तुम केंद्र से बदल न जाओ।
आचरण नहीं, अंतस् की क्रांति चाहिए। और जैसे ही अंतस् बदलता है, सभी कुछ बदल जाता है। ये सूत्र अंतस् की क्रांति के सूत्र है। एक—एक सूत्र को अति ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करें। उनका कण भी तुम्हारे
भीतर गिर गया, तो वह चिंगारी की तरह होगा। और अगर तुम्हारे
भीतर थोड़ी भी सूखी बारूद है, तो जल उठेगी। और अगर तुमने सारी
बारूद को गीली कर रखा है, तो चिंगारियां पड़ती है और बुझ जाती
है।
शिव सूत्र
ओशो
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