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Monday, January 22, 2018

सत्य की पहली शर्त: लोभ और भय से मुक्ति



मैंने सुना है, राजा भोज के दरबार में बड़े पंडित थे, बड़े ज्ञानी थे। और कभी-कभी राजा भोज उनकी परीक्षा लिया करता था। एक दिन वह अपना तोता राजमहल से ले आया दरबार में। बस तोता एक ही रट लगाता था, एक ही बात दोहराता था बार-बार: बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है। राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, यह कौन सी भूल की बात कर रहा है तोता? पंडित बड़े थे, मुश्किल में पड़ गए। और राजा ने कहा, अगर ठीक जवाब न दिया तो फांसी। ठीक जबाब दिया तो लाखों का पुरस्कार और सम्मान। अटकलबाजी भी नहीं चल सकती थी,  खतरनाक मामला था। ठीक जवाब क्या हो? तोते से पूछा भी नहीं जा सकता। तोता कुछ और जानता भी नहीं। तोता इतना ही कहता है--तुम लाख पूछो, वह इतना ही कहता है: बस एक ही भूल है।


सोच-विचार में पड़ गए पंडित। उन्होंने मोहलत मांगी, खोज-बीन में निकल गए। जो राजा का सब से बड़ा पंडित था दरबार में, वह भी घूमने लगा कि कहीं कोई ज्ञानी मिल जाए। अब तो ज्ञानी से पूछे बिना न चलेगा। शास्त्रों में देखने से अब कुछ अर्थ नहीं है। अनुमान से भी अब काम नहीं होगा। जहां जीवन खतरे में पड़ा हो, वहां अनुमान से काम नहीं चलता। तर्क इत्यादि भी काम नहीं देंगे। तोते से कुछ राज निकलवाया नहीं जा सकता है। तो पुराने जितने हथकंडे थे, सब फिजूल हो गए। वह अनेकों के पास गया लेकिन कहीं कोई जवाब न दे सका कि तोते के प्रश्न का उत्तर क्या होगा।


बड़ा उदास लौटता था राज-महल की तरफ, कि एक चरवाहा मिल गया। उसने पूछा पंडित जी, बहुत उदास हैं? जैसे पहाड़ टूट पड़ा आप के ऊपर, कि मौत आनेवाली हो, इतने उदास! बात क्या है? तो उसने अपनी अड़चन कही, दुविधा कही। उस चरवाहे ने कहा फिक्र न करें, मैं हल कर दूंगा। मुझे पता है। लेकिन एक ही उलझन है। मैं चल तो सकता हूं लेकिन मैं बहुत दुर्बल हूं। और मेरा यह जो कुत्ता है इसको मैं अपने कंधे पर रखकर नहीं ले जा सकता। और इसको पीछे भी नहीं छोड़ सकता हूं। इससे मेरा बड़ा लगाव है। पंडित ने कहा तुम फिक्र छोड़ो। मैं इस कंधे पर रख लेता हूं।


उन ब्राह्मण महाराज ने कुत्ते को कंधे पर रख लिया। दोनों राजमहल में पहुंचे। तोते ने वही रट लगाई--एक ही भूल है, बस एक ही भूल है। चरवाहा हंसा उसने कहा महाराज, देखें भूल यह खड़ी है। वह पंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा था। भूल यह खड़ी है। राजा ने कहा, मैं समझा नहीं। उसने कहा कि शास्त्रों में लिखा है कि कुत्ते को पंडित छुए तो स्नान करो। और आपका महापंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा है। लोभ जो न करवाए सो थोड़ा है। बस, एक ही भूल है: लोभ।

 
और भय लोभ का ही दूसरा हिस्सा है, नकारात्मक हिस्सा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं--एक तरफ भय, एक तरफ लोभ।


ये दोनों बहुत अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए जो भय से धार्मिक है, डरा है दंड से, वह धार्मिक नहीं है। और जो लोभ से धार्मिक है, जो लोलुप हो रहा है,

वासनाग्रस्त है स्वर्ग से, वह धार्मिक नहीं है।

फिर धार्मिक कौन है? धार्मिक वही है जिसके पास न लोभ है, न भय। जिसे कोई चीज लुभाती नहीं और कोई चीज डराएगी भी नहीं। जो भय और प्रलोभन के पार उठा है वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।


सत्य को देखने के लिए लोभ और भय से मुक्ति चाहिए। सत्य की पहली शर्त है अभय। क्योंकि जहां तक भय तुम्हें डांवाडोल कर रहा है वहां तक तुम्हारा चित्त ठहरेगा ही नहीं। भय कंपाता है, भय के कारण कंपन होता है। तुम्हारी भीतर की ज्योति कंपती रहती है। तुम्हारे भीतर हजार तरंगें उठती हैं लोभ की, भय की।

कानो सुनी सब झूठ 

ओशो

भगवान, आप क्या कर रहे हैं? आपका इस कलियुग में विशिष्ट कार्य क्या है?



शिव प्रसाद अग्रवाल,

पहली तो बात, यह कलियुग नहीं है। कलियुग पहले था, यह सतयुग है। मेरी समय की अपनी धारणा है। 


तुम्हारी परंपरागत धारणा है कि पहले सतयुग हुआ। सतयुग था, तब समय के चार पैर थे। फिर त्रेता आया, एक टांग टूट गई। चार पैर की जगह तीन ही पैर बचे, तिपाई हो गई। किसी तरह तीन पैरों पर भी टिका रह सकता है। समय टिका रहा। त्रेता भी इतना बुरा नहीं था; सतयुग जैसा तो नहीं था, कुछ भ्रष्ट हुआ, एक टांग टूट गई, लंगड़ाया थोड़ा, मगर तिपाई फिर भी टिकी रही। 


फिर द्वापर आया। दो ही पैर रह गए। फिर जरा मुश्किल मामला हो गया। फिर जरा कठिनाई हो गई। फिर सत्य यूं चलने लगा जैसे साइकिल चलती है। दुई-चक्र। मारे जाओ पैडल तो चलती है, जरा ही पैडल रोका कि धड़ाम से गिरे। मतलब गिरना हर हालत में कहीं भी हो जाता है, देर नहीं लगती। जरा ही रुके कि गिरे। जरा ही चूके कि गिरे। द्वापर आया। 


फिर द्वापर भी गया। अब कलियुग चल रहा है--तुम्हारे हिसाब से, परंपरागत हिसाब से। कलियुग का मतलब होता है, एक ही टांग बची। यह बड़ा कठिन काम, सर्कस वगैरह में होता है। यह एक ही चक्के की साइकिल चलाने वाले लोग। 


मेरा एक संन्यासी है। वह सारी दुनिया की यात्रा कर रहा है, एक ही साइकिल का चक्का लेकर। अभी कुछ दिन पहले यहां था। जापान से लेकर भारत तक की यात्रा करके एक ही चक्के पर आया। यह है पक्का कलियुगी--महात्मा कलियुगानंद!


और अब आगे कुछ बचा ही नहीं। अब एक टांग की टूटने की और जरूरत है। और एक टांग कभी भी टूट जाएगी। एक टांग से कितने उछलोगे-कूदोगे? आज टूटी, कल टूटी। एक टांग का क्या भरोसा? अब तो लंगड़ी दौड़ चल रही है। कभी भी गिर जाएगा। 


यह तुम्हारी समय की धारणा है। इस समय की धारणा के पीछे मनोविज्ञान है। हम सबको खयाल है कि बचपन प्यारा था, सुंदर था। फिर जवानी आई; वह उतनी प्यारी नहीं जैसा बचपन था। बचपन तो स्वर्ग था। फिर बुढ़ापा आता है, और फिर मौत। जन्म से शुरू होती है बात और मौत पर खत्म होती है। यह हमारे सामान्य जीवन का अनुभव है। इसी अनुभव को हमने पूरे समय पर व्याप्त कर दिया है। तो पहले जन्म--सतयुग; बचपन भोला-भाला; सब सच्चे लोग; कहीं कोई बेईमानी नहीं; घरों में ताला नहीं लगाना पड़ता; कोई चोरी ही नहीं करता। यह बचपन की धारणा है हमारी। फिर जवानी आई, थोड़ा तिरछापन आया। तीन टांगें रह गईं। थोड़ी धोखाधड़ी प्रविष्ट हुई, थोड़ी बेईमानी, थोड़ा पाखंड, थोड़ी प्रतियोगिता। वह भोलापन न रहा जो बचपन का था। फिर बुढ़ापा आया। बुढ़ापे में आदमी और भी चालबाज हो जाता है, और बेईमान हो जाता है। क्योंकि जीवन भर का अनुभव। सब तरह के दंद-फंद कर चुका। सब तरह के दंद-फंद झेल चुका। और फिर तो मौत ही बचती है।


इस तरह हमने चार हिस्सों में समय को बांट दिया, आदमी के हिसाब से। मगर यह धारणा उचित नहीं है। यह सामान्य आदमी के जीवन को देख कर तो ठीक है, लेकिन अगर बुद्धों का जीवन देखो तो बात बदल जाएगी। बुद्ध का तो जो सर्वाधिक स्वर्ण-शिखर है, वह मृत्यु का क्षण है, क्योंकि उसी क्षण महापरिनिर्वाण होता है। हम जिसे मृत्यु की तरह जानते हैं, बुद्धपुरुषों ने उसे महामिलन जाना है। वह परमात्म सत्ता से मिल जाना है। वह बूंद का सागर में खो जाना है। वह सीमित का असीमित में मिल जाना है। वह मिलन है, महामिलन है। वह सुहागरात की घड़ी आई। वही प्रणय का क्षण है, प्रेम का क्षण है--अपनी पराकाष्ठा पर।


बुद्धों के जीवन में विकास होता है। बुद्धुओं के जीवन में ह्रास होता है। मैं नहीं मानता कि मेरा बचपन ज्यादा सुंदर था। मैं तो रोज-रोज ज्यादा सौंदर्य को, ज्यादा आनंद को, ज्यादा रस को उपलब्ध होता रहा हूं। घटा कुछ भी नहीं है, बढ़ा है। बढ़ता ही जा रहा है। मेरी मृत्यु का क्षण परम आनंद का क्षण होगा। वही असली जन्म होगा। यह पहला जन्म जो था यह तो देह में बंध जाना था। यह तो कारागृह में पड़ जाना था। वह जो जन्म होगा मृत्यु के क्षण में, वह महाजन्म होगा। वह देह से मुक्त होना, कारागृह से मुक्त होना; और महान विराट में एक हो जाना, उसके साथ तत्सम हो जाना। वह दुर्भाग्य नहीं है। लेकिन बोध बढ़े तो।


मेरे हिसाब से आदमी विकासमान है, ह्रासमान नहीं। और विज्ञान मुझसे राजी है। तुम्हारी धारणा, जो तुम्हारे पुराण तुम्हें दे गए हैं, विज्ञान के हिसाब से गलत है। विज्ञान विकासवादी है। विज्ञान मानता है: आदमी विकसित हो रहा है। तुम सोचते हो: स्वर्णयुग पहले थे, और अब कलियुग। विज्ञान कहता है: कलियुग पहले था, स्वर्णयुग अब; और-और स्वर्णयुग आएंगे। और मैं मानता हूं कि इस तरह की धारणा जीवन के विकास में सहयोगी है।


आपुई गई हिराय 


ओशो

Saturday, January 20, 2018

‘आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’


लेकिन मन सदा आधार खोजता है। मेरे पास लोग आते है और मैं उनसे कहता हूं, आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो। और वे कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्‍योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि मैं उन्‍हें कहता हूं कि मैं तुम्‍हें मंत्र दे दूं तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।

आधार के रहते तुम कभी रिक्‍त नहीं हो सकते। यही कारण है कि वह सरल है। कुछ न कुछ होना चाहिए। तुम्‍हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए। करते रहने से कर्ता बना रहता है। करते रहने से तुम भरे रहते होचाहे तुम ओंकार से भरे हो। ओम से भरे हो, राम से भरे हो। जीसस से, आवमारिया से। किसी भी चीज सेकिसी भी चीज से भरे हो, लेकिन तुम भरे हो। तब तुम ठीक रहते हो। मन खालीपन का विरोध करता है। वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है। क्‍योंकि जब तक वह भरा है तब तक चल सकता है। यदि वह रिक्‍त हुआ तो समाप्‍त हो जाएगा। रिक्‍तता में तुम अ-मन को उपलब्‍ध हो जाओगे। वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है। 


यदि तुम अंतर-आकाश, इनर स्‍पेस में प्रवेश करना चाहता हो तो आधार मत खोजों। सब सहारेमंत्र, परमात्‍मा, शास्‍त्रजो भी तुम्‍हें सहारा देता है वह सब छोड़ दो। यदि तुम्‍हें लगे कि किसी चीज से तुम्‍हें सहारा मिल रहा है तो उसे छोड़ दो और भीतर आ जाओ। आधारहीन।


यह भयपूर्ण होगा; तुम भयभीत हो जाओगे। तुम वहां जा रहे हो जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो। हो सकता है तुम वापस ही न आओ। क्‍योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे। किनारे से तुम्‍हारा संपर्क छूट जाएगा। और नदी तुम्‍हें कहां ले जाएगी। किसी को पता नहीं। तुम्‍हारा आधार खो सकता है। तुम एक अनंत खाई में गिर सकते हो। इसलिए तुम्‍हें भय पकड़ता है। और तुम आधार खोजने लगते हो। चाहे वह झूठा ही आधार क्‍यों न हो, तुम्‍हें उससे राहत मिलती है। झूठा आधार भी मदद देता है। क्‍योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है या सच्‍चा है, कोई आधार होना चाहिए। 


एक बार एक व्‍यक्‍ति मेरे पास आया। वह ऐसे घर में रहना था जहां उसे लगता था कि भूत-प्रेत है, और वह बहुत चिंतित था। चिंता के कारण उसका भ्रम बढ़ने लगा। चिंता से वह बीमार पड़ गया, कमजोर हो गया। उसकी पत्‍नी ने कहा, यदि तुम इस घर से जरा रुके तो मैं तो रहीं हूं। उसके बच्‍चों को एक संबंधी के घर भेजना पडा।


वह आदमी मेरे पास आया और बोला, अब तो बहुत मुश्‍किल हो गयी है। मैं उन्‍हें साफ-साफ देखता हूं। रात वे चलते है, पूरा घर भूतों से भरा हुआ है। आप मेरी मदद करें।


तो मैंने उसे अपना एक चित्र दिया और कहा, इसे ले जाओ। अब उन भूतों से मैं निपट लुंगा। तुम बस आराम करो। और सो जाओ। तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। उनसे मैं निपट लुंगा। उन्‍हें मैं देख लूंगा। अब यह मेरा काम है। और तुम बीच में मत आना। अब तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है।


वह अगले ही दिन आया और बोला, बड़ी राहत मिली मैं चेन से सोया। आपने तो चमत्‍कार कर दिया। और मैंने कुछ भी नहीं किया था। बस एक आधार दिया। आधार से मन भर जाता है। वह खाली न रहा; वहां कोई उसके साथ था।


सामान्‍य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो, पर वे मदद करते है। और जब तक तुम स्‍वयं शक्‍तिशाली न हो जाओ, तुम्‍हें उनकी जरूरत रहेगी। इसीलिए में कहता हूं कि यह परम विधि हैकोई आधार नहीं।


बुद्ध मृत्‍युशय्या पर थे और आनंद ने उनसे पूछा, आप हमें छोड़कर जा रहे है, अब हम क्‍या करेंगें? हम कैसे उपलब्‍ध होंगे? जब आप ही चले जाएंगे तो हम जन्‍मों-जन्‍मों के अंधकार में भटकते रहेंगे, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा, प्रकाश तो विदा हो रहा है।’ तो बुद्ध ने कहा,तुम्‍हारे लिए यह अच्‍छा रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम अपना प्रकाश स्‍वयं बनोंगे। अकेले चलो, कोई सहारा मत खोजों, क्‍योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है।

और ऐसा ही हुआ। आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था। चालीस वर्ष से वह बुद्ध के साथ था, वह निकटतम  शिष्‍य था, बुद्ध की छाया की भांति था, उनके साथ चलता था। उनके साथ रहता था। उनका बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था। चालीस वर्ष तक बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। आनंद सदा की भांति आज्ञानी ही रहा। और जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा उसके दूसरे ही न आनंद संबुद्ध हो गयादूसरे ही दिन।


वह आधार ही बाधा था। जब बुद्ध ने रहे तो आनंद कोई आधार न खोज सका। यह कठिन है। यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो वह बुद्ध चला जाए, तो कोई भी तुम्‍हें सहारा नहीं दे सकता। अब कोई भी ऐसा न रहेगा जिसे तुम पकड़ सकोगे। जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया वह संसार में  किसी और को पकड़ पायेगा। यह पूरा संसार खाली होगा। एक बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती। एक बार तुमने उसका स्‍वाद ले लिया तो और कुछ भी स्‍वाद लेने जैसा न रहा।


तो चालीस वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ। किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था। उसने परम सहारे को जाना था। अब छोटे-छोटे सहारे किसी काम के नहीं, दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया। वह निश्‍चित ही आधारहीन, शाश्‍वत निश्‍चल अंतर-आकाश में प्रवेश कर गया होगा।


तो स्‍मरण रखो कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो। आधारहीन ही जानो। यदि इस विधि को कहने का प्रयास कर रहे हो तो आधारहीन हो जाओ। यही कृष्‍ण मूर्ति सिखा रहा है। आधारहीन हो जाओ, किसी गुरु को मत पकड़ो, किसी शस्‍त्र को मत पकड़ो। किसी भी चीज को मत पकड़ो।


विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो

आपने कहा कि जगत और जीवन अतिशय रहस्य से भरा है। और उसका जर्रा-जर्रा चमत्कारपूर्ण है. ...

तो उस रहस्य और चमत्कार के प्रति हमारी आंखें क्यों और कैसे अंधी हो रही हैं? और क्या उस रहस्यबोध को फिर से उपलब्ध हुआ जा सकता है?

आंखें अंधी हो रही हैं? अति-विचार से। रहस्य को समझने के लिए विचार का थिर हो जाना जरूरी है, क्योंकि उसी संधि में से रहस्य दिखाई पड़ता है। आंखें तो तुम्हारी खुली हैं, लेकिन विचार से भरी हैं। उसी कारण खुली आंख भी देख नहीं पा रही है। 


देखते हो फूल को, जानते हो गुलाब का फूल है, बहुत बार देखा है, हजार-हजार स्मृतियां हैं गुलाब के फूल की; न मालूम कितनी कविताएं पढ़ी हैं गुलाब के फूल के संबंध में; चित्र और पेंटिंग्स देखी हैं; सब तुम्हारे मन में भरी हैं। जब तुम गुलाब के फूल के करीब जाते हो तब तुम्हारी सारी जानकारी बीच में पर्दे की तरह खड़ी हो जाती है। पर्त दर पर्त तुमने जो जो जाना है, वह बीच में आ जाता है। तुम्हारा जानना ही तुम्हारा अंधापन हो जाता है।


छांटो जानने को थोड़ी देर। थोड़ी देर गुलाब के पास ऐसे हो जाओ जैसे तुम अज्ञानी हो; जैसे न तुमने कभी गुलाब के फूल कभी देखे हैं, न उनके संबंध में कभी कुछ सुना है, न कोई चित्र देखे हैं, न कोई गीत गाए हैं। इस गुलाब को ही अपना गीत गाने दो। तुम्हारे गीतों को बंद करो। इस गुलाब को, जो मौजूद है, इसको ही प्रगट होने दो। तुम्हारे अतीत में देखें गए चित्रों को छोड़ो। वे जा चुके। दर्पण पर जमी धूल से ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं है। आकृतियां हैं सपनों की। 


यह वास्तविक है। वास्तविक को तुम छिपा रहे हो अवास्तविक से। अतीत को हटाओ, ताकि थोड़ी सी झलक इस गुलाब की, जो इस क्षण खिला है और फिर कभी दुबारा तुम इसे न मिल सकोगे। इसे जरा देखो, बैठो इसके पास। इस गुलाब को गुनगुनाने दो गीत। इस गुलाब को नाचने दो हवाओं में। इस गुलाब को मौका दो, कि अपनी सुगंध को तुम्हारी नासापुटों तक भेज सके। छुओ इसे, इसकी कोमलता को स्पर्श करो। इसकी पंखुड़ियों पर जमी हुई ओस की बूंदों को देखो, सब मोती फीके हैं।


यह जो गुलाब इस क्षण खिला है, इस क्षण का गुलाब--इसे तुम अपनी आत्मा पर फैलने दो। तुम थोड़ी देर मौन और शांत इसके पास बैठ जाओ। और तुम पाओगे, अचानक आंखें खुल गई। एक रहस्य से तुम भरे जा रहे हो। यह छोटा सा गुलाब एक स्रोत है। इससे अनंत प्रकाश और अनंत सुगंध और अनंत रहस्य की ऊर्जा प्रगट हो रही है। तुम उसमें डूबो, तुम रससिक्त हो जाओ। जानकारी अलग करो, जीना शुरू करो।


बैठे हो नदी के तट पर, इस नदी को होने दो। छोड़ो उन नदियों को, जिन घाटों पर तुम कभी थे। मीठी स्मृतियां, कड़वी, स्मृतियां, जाने दो उन्हें। उनसे अब कुछ लेना-देना न रहा। अब सिवाय तुम्हारी स्मृति में, उनका कोई मूल्य नहीं है, उनकी कोई सत्ता नहीं है। और छोड़ो उन भविष्य की कल्पनाओं को भी उन नदियों के तटों पर जिन पर तुम कभी रहोगे।


इस नदी को थोड़ी देर अवसर दो, तुम्हारे संग-साथ हो ले। तुम इसके संग-साथ हो लो। थोड़ी देर इसके साथ चलो, थोड़ी देर इसके साथ बहो, थोड़ी देर इसमें डुबकी लो। थोड़ी देर इसके साथ एक हो जाओ--और रहस्य का द्वार खुल जाएगा।


सब तरफ रहस्य मौजूद है। तुम्हारी आंखें भी खुली हैं। किसने कहा, कि तुम अंधे हो? और किसने कहा, कि तुम्हारी आंखें बंद हैं? सिर्फ धुंधली है, धुएं से भरी हैं। और धुआं कुछ नहीं, तुम्हारी अतीत की पर्तें है, विचारों की पर्तें हैं। उनको थोड़ा हटाकर देखो। ऐसे देखो, जैसे छोटा बच्चा देखता है। उसके पास कोई जानकारी नहीं होती। अज्ञान से देखता है। 


अगर रहस्य को चाहते हो, अज्ञान से देखो। पांडित्य को हटाओ, उतारो, वही तुम्हारा दुश्मन है। पाप के कारण तुम परमात्मा से अलग नहीं हो, पांडित्य के कारण तुम अलग हो। मेरे देखे पांडित्य एक मात्र पाप है। पापी भी पहुंच सकता है, पंडित कभी पहुंचते हुए नहीं सुने गए। तुम्हारी गीता तुम्हारा कुरान, तुम्हारी बाइबिल--हटाओ आंखों से। परमात्मा मौजूद है; तुम उसे क्यों नहीं देखते? तुम अपना वेद-पाठ किए जा रहे हो। द्वार पर परमात्मा खड़ा दस्तक दे रहा है, तुम अपनी पूजा किए चले जा रहे हो। 


तुम थोड़े खाली हो जाओ, बस! अज्ञान, नहीं कुछ जानता हूं ऐसी भावदशा ज्ञान की तरफ पहला कदम है। जानता हूं, ऐसी भाव-दशा--तुम सख्त हो गए। तुम्हारी तरलता खो गई। तुम जाम हो गए, जम गए। तुम बर्फ की तरह जम गए, पत्थर हो गए। अब तुममें बहाव न रहा।


प्रतिपल मौका मिल रहा है तुम्हें। सुबह उठे हो, आंखें नहीं खोली है अभी, पक्षियों ने गीत गाए हैं? रास्ते पर धीमे-धीमे लोग चलने लगे हैं, दूधवाले ने आवाज दी है, सुनो। जैसे पहली बार सुन रहे हो। रातभर के बाद मन ताजा है। थोड़ा सुनो, थोड़े पड़े रहो आंख बंद किए ही। थोड़ा सुनो, थोड़े कानों को इस रहस्य का अनुभव करने दो। आंख खोलो, अपने ही घर अजनबी हैं। सभी घर सराएं हैं। आज हो, कल नहीं रहोगे। कल कोई और घर था आज कोई और घर है। कल कोई और मालिक था, कल और मालिक होगा; आंख खोलो। 


अपने ही बच्चे को ऐसा देखो, जैसे अतिथि है। और बच्चे अतिथि हैं, मेहमान हैं। कौन जानता है, आज बच्चा है, कल न हो। फिर रोओगे, छाती पीटोगे, तड़पोगे, कि एक बार और आंख भरकर देख लिया होता। लेकिन आंख भरकर देखने का मौका ही नहीं मिला। मौके हजार थे, तुम चूकते ही चले गए। अपनी ही पत्नी को ऐसे देखो, जैसे आज ही उसे लिवा लाए हो, आज ही विवाह कर लाए हो, आज ही भांवर पड़ी है। 


चीजों को नए सिरे से देखना शुरू करो, बासी मत होने दो। उधार आंखों से मत देखो, ताजी आंखों से देखो। कल की आंखों से मत देखो, आज की आंखों से देखो। रोज झाड़ते जाओ धूल को, दर्पण को धूल से मत भरने दो। और तुम्हारे जीवन में रहस्य का आविर्भाव होने लगेगा। सब तरफ तुम पाओगे रहस्य। सब तरफ तुम पाओगे उसी की धुन बज रही है।


कोई भी चीज तो तुमने जानी नहीं है। आदमी परमात्मा को जानने की बात करता है, राह पर पड़े हुए पत्थर को भी नहीं जानता। पत्थर भी रहस्य है। और जिस दिन पत्थर रहस्य हो गया, उसी दिन पत्थर भी परमात्मा हो गया। उस दिन उसके सिवाय तुम कुछ भी न पाओगे। पक्षी की गुनगुनाहट में उसी की धुन सुनाई पड़ेगी। हवाओं की थिरकन में, वृक्षों से गुजरते हवा के झोंके में उसी की आवाज, सरसराहट मालूम पड़ेगी। किसी की आंख में झांकोगे और उसी का झरना दिखाई पड़ेगा। किसी का हाथ छुओगे और वही तुम्हारे हाथ में आ जाएगा।


लेकिन इसके लिए एक गहरी क्रांति जरूरी है। उस क्रांति को ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान का अर्थ है, मन को झाड़ना, मन को स्नान देना; जैसे तुम रोज स्नान कर लेते हो, शरीर गंदा नहीं हो पाता, मन गंदा हो जाता है--क्योंकि मन का स्नान तुम भूल ही गए हो। 


ध्यान मन का स्नान है, जितनी बार धो सको। 


हिंदू व्यवस्था थी कि सुबह उठकर ध्यान कर लो, ताकि दिनभर के लिए मन ताजा हो जाए। रात सोते वक्त ध्यान कर लो, ताकि दिनभर की धूल फिर झड़ जाए। मुसलमान तो पांच बार प्रार्थना करते रहे हैं, ताकि दिन में बार-बार धूल जमने ही न पाए। जब भी जरा सी धूल जमे, फिर प्रार्थना कर लो, फिर नमाज में उतर जाओ। फिर जरा धो डालो, साफ कर लो, दर्पण साफ रहे। उस दर्पण में ही तो तुम किसी दिन परमात्मा को पकड़ोगे। 


बस, इतनी ही कला है। ध्यान कला है रहस्य का द्वार खोलने की। ध्यान में ही घूंघट उठ जाता है। घूंघट परमात्मा के चेहरे पर नहीं है, तुम्हारे मन पर है। तुम्हारी धूल हट गई, परमात्मा सदा से सामने मौजूद था।


पिव पिव लागी प्यास 

ओशो

क्या कारण है कि सदगुरु के शिष्य तो थोड़े होते हैं लेकिन असदगुरु के इर्द-गिर्द अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है?



यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा होना ही चाहिए। क्योंकि सदगुरु को कितने लोग पहचान सकेंगे? वही--जिनकी प्यास है; जिनके लिए जीवन व्यर्थ हो गया; जिनके लिए जीवन संताप और स्वप्न हो गया। 

 
असदगुरु के पास भीड़ इकट्ठी होगी। क्योंकि असदगुरु भीड़ की आकांक्षाएं तृप्त कर रहा है। ताबीज बांध रहा है, राख राख निकाल रहा है, जादू कर रहा है। मूढ़ बड़ी संख्या में वहां इकट्ठे हो जाएंगे। वही वे चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं जो तृप्त कर रहा है, वहां वे इकट्ठे होंगे। 

 
सदगुरु तो छीन लेगा। सदगुरु तो तुम्हें मिटाएगा। तो जो दादू ने कहा है, वह निशाना लगा-लगाकर तीर छोड़ेगा। वह तुम्हें मिटाएगा, वह तुम्हें मार ही डालेगा। क्योंकि तुम मिटोगे, तभी तुम्हारी राख पर परमात्मा का आविर्भाव है। तुम रोग हो। वह तुम्हें सहारा न देगा, वह तुम्हें गिराएगा। वह तुम्हें जड़ों से खोद डालेगा।
 
तो सदगुरु के पास तो वही आएगा जो मरने को तैयार है। सदगुरु यानी मृत्यु; मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु--महामृत्यु। क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम फिर पैदा हो जाओगे। लेकिन अगर सदगुरु की मृत्यु में तुम डूब गए, तो फिर तुम्हारा लौटना नहीं। फिर दुबारा तुम पैदा न हो सकोगे। 

इसलिए बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोग वहां इकट्ठे होंगे। सब का वहां काम भी नहीं है। बच्चों की वहां जरूरत भी है। अभी जो खिलौनों से खेल रहे हैं, उनका वहां क्या प्रयोजन?

लोग खिलौनों से ही खेलते रहते हैं जिंदगी भर। बचपन में छोटी सी कार से खेलते हैं, चाबी भरकर चलाते हैं, फिर बड़े हो जाते हैं, तो बड़ी कार पर खेल जारी रहता है। बचपन में छोटे गुड्डे-गुड्डियों की शादी करते हैं, बड़े हो जाते हैं, तो राम-लीला करते हैं, राम-सीता की बारात निकालते हैं, खेल जारी है। छोटे बच्चे होते हैं, कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हैं। बड़े हो जाते हैं, हीरे-जवाहरात इकट्ठे करते हैं--कंकड़ पत्थर ही हैं आखिरी हिसाब में। खेल जारी रहता है। छोटे बच्चे सिगरेट के डब्बे, माचिस के डब्बे, टिकटें इकट्ठी करते रहते हैं। बड़े हो गए, नोट इकट्ठे करते रहते हैं--मामला एक ही है। सारा खेल खिलौनों का है।

सदगुरु के पास तो केवल वही आ सकता है, जो प्रौढ़ हो गया, जिसने सारे खिलौने फेंक दिए और जिसने कहा, बहुत हो चुकी नासमझी। अब जागने का क्षण आ गया। निश्चित, जागने में खतरा है। क्योंकि तुम्हारे सब सपने टूट जाएंगे। सपनों में एक सुरक्षा है। तुम्हारे सपने--उनमें मधुर सपने भी हैं। माना, कि दुखद सपने भी हैं, लेकिन वे सब संयुक्त हैं। अगर दुखद सपने तोड़ने हों, तो सुखद सपने भी टूट जाएंगे। अगर जागना है, तो दुख, सुख दोनों से जागना होगा। 

तुम भी चाहते हो जागना, लेकिन चाहते हो, कि सुखद सपना तो बरकरार रहे, सिर्फ दुख टूट जाए। तुम भी चाहते हो जागना, लेकिन बस, दुख छूटे, सुख न छूट जाए। तो तुम असदगुरु के पास इकट्ठे हो जाओगे। वहां भीड़ लगेगी। 

लेकिन सदगुरु के पास तो सुख भी छूटेगा, दुख भी छूटेगा; तभी तो शांति का जन्म होता है। जब सारे द्वंद्व मिट जाते हैं, तभी तो निर्द्वंद्व आकाश--तभी तो उस असीम के साथ संबंध जुड़ता है। तभी तो जैसा दादू कहते हैं, तार जुड़ते हैं उसके पहले तो तार नहीं जुड़ते। 

स्वभावतः जहां तुम्हारी बीमारी ठीक करने के लिए कोई आश्वासन दिया जा रहा हो, मुकदमे जिताने का कोई भरोसा दिया जा रहा हो, धन पाने की कोई महत्वाकांक्षा को पूरा करने की बात कही जा रही हो, वहां भीड़ इकट्ठी होगी। साधारण से लोगों से लेकर जिनकी, तुम असाधारण कहते हो, वे भी ऐसे लोगों के आसपास इकट्ठे होंगे। आशीर्वाद चाहिए तुम्हारी मूर्खताओं के लिए। 

और जिंदगी का नियम ऐसा है, कि अगर तुम भी आंख बंद करके एक झाड़ के नीचे बैठे जाओ; और जो भी आए उसको आशीर्वाद देते जाओ, तो भी पचास प्रतिशत तो आशीर्वाद पूरे होने की वाले हैं। इसलिए तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम एक गधे को भी बिठाल दो सजाकर और वह भी बस हाथ उठाकर आशीर्वाद देता जाए बिना देखे, कौन आ रहा है, इससे कोई लेना-देना नहीं है। 
 
जितने मरीज आएंगे, उनमें से सीधे गणित में कम से कम पचास प्रतिशत तो ठीक होने वाले हैं, ज्यादा भी ठीक हो जाएंगे। क्योंकि सभी बीमारियां मार तो नहीं डालती हैं। डाक्टर भी इलाज थोड़े ही करता हैं, सिर्फ सहारा देता है। कहावत है पश्चिम में, कि अगर सर्दी-जुकाम हो जाए, तो बिना दवा के सात दिन में ठीक हो जाता है और दवा लो, तो एक सप्ताह में। दवा और न दवा का कोई बड़ा सवाल नहीं है। बीमारी तो सब ठीक हो जाती है। सभी बीमारियों में आदमी मर थोड़े ही जाता है! समय की बात है। बैठे रहो। 

मुकदमे भी आखिर दो लोग लड़ेंगे मुकदमा, तो एक तो जीतेगा। और अक्सर ऐसा होता है, कि एक ही असदगुरु के पास दोनों चले आते हैं--हारनेवाला, जीतनेवाला; एक तो जीतेगा ही। और यह खेल जारी रहता है। जो पचास प्रतिशत सफल हो जाते हैं, तुम्हारे आशीर्वाद से, वे दुबारा लौट आते हैं फूलमालाएं लेकर, और प्रचार कर आते हैं और पचास नासमझों को साथ ले आते हैं। 

जो हार गए, वे किसी दूसरे गुरु की तलाश करते हैं। वे फिर तुम्हारे पास नहीं आते। वे भी कहीं न कहीं ठहर जाएंगे। कहीं न कहीं, कभी न कभी तो जीतेंगे। वहीं ठहर जाएंगे। इसमें गुरु का कुछ लेना-देना नहीं है। यह सब खेल तुम्हारी नासमझी से चलता है।

लेकिन सदगुरु के पास तुम्हारा कोई खेल नहीं चल सकता। भीड़, वहां इकट्ठी नहीं हो सकती। वहां तो खेल तोड़ने का ही आयोजन है। 

इसलिए बहुत थोड़े से चुने हुए लोग, छंटे हुए लोग, जो सच में ही राजी हैं छलांग लेने को, जो उस घड़ी में आ गए हैं, जहां कुछ रूपांतरण आवश्यक हो गया है, अब जिनकी आकांक्षा बाहर की नहीं है; अब जो क्रांति भीतर चाहते हैं, वे थोड़े से लोग ही वहां पहुंच सकते हैं।

और उन थोड़े से लोगों को भी बड़ी हिम्मत रहे, तो ही वहां टिक सकते हैं। अन्यथा वे भी भाग खड़े होंगे। क्योंकि सदगुरु तुम्हें कोई सहारा नहीं देता टिकने का। वह तुम्हारे अहंकार की कोई तृप्ति नहीं करता। जिस अहंकार को मिटाना ही है, उसको किसी तरह का सहारा देना उचित नहीं है। तुम वहां अगर टिके, तो अपनी हिम्मत से ही टिकोगे। वह तो तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन खींचता चला जाता है।

तो थोड़े से दुस्साहसियों का काम है। पर वैसे ही दुस्साहसी जीवन के परम सत्य को उपलब्ध भी होते हैं। वह दुस्साहस करने योग्य है।


पिव पिव लागी प्यास 

ओशो

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