मन एक स्थिर अवस्था में नहीं बना रह सकता है। यह एक जीवंत प्रक्रिया
है। यह एक स्थिर दशा में नहीं बना रह सकता है। अगर तुम इसको ऐसा करने के लिए बाध्य
कर दो, तो यह नींद
में चला जाएगा और अपनी जीवंत प्रक्रिया को जारी रखने के लिए स्वप्न देखने लगेगा। यह
तुम्हारे स्थिर, जबर्दस्ती थोपे गए केंद्रीकरण से पलायन करने
के लिए नींद में चला जाता है। तब यह फिर से नींद में जीना जारी रख सकता है।
अगर तुम सजग हो। केवल बोधपूर्ण हो, शब्दों से रहित हो--तो आत्म-सम्मोहन कठिन हो जाता है। शब्दों के बिना आत्म-सम्मोहन कठिन है, क्योंकि शब्दों के बिना तुम मन को कोई भी सुझाव नहीं दे सकते हो। भारतीय शब्द, मंत्र का अर्थ सुझाव है और कुछ नहीं। इसका अभिप्राय है सुझाव। अगर तुम शब्दों के बिना, उस बूढ़ी स्त्री और उसके चित्र के प्रति बस सजग हो, तब तुम देख लोगे कि तुम्हारा मन बदलता है, अवधान बदलता है और युवती दिखाई पड़ने लगती है।
मैं यह क्यों कह रहा हूं.....अगर तुम शब्दों के प्रति सजग हो जाते हो और उनको दूर हटाने के लिए किसी शब्द का उपयोग नहीं करते हो, उनको दूर हटाने के लिए किसी मंत्र का उपयोग नहीं करते हो, बस शब्दों के प्रति सजग हो जाते हो--स्वत: ही तुम्हारा मन अंतरालों पर केंद्रित हो जाएगा। यह लगातार शब्दों पर टिका हुआ नहीं रह सकता है। इसे अंतराल में जाकर विश्रांत होना पड़ेगा।
या तो तुम शब्दों से तादात्म्य करते हो, तब तुम एक शब्द से दूसरे शब्द पर छलांग लगाते रहोगे। तुम अंतराल से बच जाते हो और एक शब्द से दूसरे शब्द पर छलांग लगाते रहते हो, क्योंकि अगले शब्द में भी कुछ नयापन है। तुमने शब्द को बदल दिया है, पुराना शब्द वहां नहीं रहा है और नया शब्द आ गया है, इस प्रकार से मन बदलता चला जाता है, अवधान बदल जाता है।
या फिर तुमने शब्दों से तादात्म्य नहीं किया है, अगर तुम बस एक देखने वाले हो, बस शब्दों को एक श्रंखला में देख रहे हो, बस देख रहे हो, अकेले, ऊपर खड़े होकर बस शब्दों को देख रहे हो... वे एक कतार में चलते जा रहे है, ठीक उसी तरह जैसे सड़क पर लोग चला करते है और तुम बस इसको देख रहे हो चीजें बदल रही है, एक व्यक्ति चला गया है, दूसरा अभी आया नहीं है वहां पर एक अंतराल है, सड़क खाली है।
अगर तुम बस देखते रहो, तो तुम अंतराल को जान लोगे। और एक बार तुम ने अंतराल को जान लिया, तो तुम छलांग लगाना भी जान जाओगे, क्योंकि यह अंतराल एक घाटी है। शब्द सतह है और अंतराल घाटी है। एक बार तुम अंतराल को जान लो--तुम इसमें हो, तुम इसमें छलांग लगा दोगे और यह परम शांतिदायक है, और यह परम सष्टा है। अंतराल में होना उत्क्रिाति है, अंतराल में होना रूपांतरण है। और एक बार तुम अंतराल के खजाने को जान लो, तुम इसको कभी न खोओगे।
उस क्षण भाषा की जरूरत नहीं रहती, तुम इसे छोड़ दोगे और यह सचेतन रूप से छोड़ देना है। तुम घाटी के प्रति चेतन हो, तुम मौन के प्रति, असीम मौन के प्रति चेतन हो। तुम इसी में हो। और दूसरी बात, जब तुम अंतराल में, मध्यांतर में, घाटी में होते हो तो तुम इसके साथ एक हो जाते हो। तुम इससे अलग नहीं रह सकते। तुम चेतन हो और एक हो, और ध्यान का यही रहस्य है। तुम इसके प्रति चेतन हो और इसके साथ एक भी हो। ऐसा नहीं है कि तुम अपने आप से भिन्न--किसी अन्य के प्रति चेतन हो। तुम घाटी के प्रति कभी भी किसी ‘अन्य' की भांति चेतन नहीं होते, इस घाटी के प्रति तुम अपने आप' की भांति चेतन हो। और फिर भी तुम चेतन हो तुम अचेतन नहीं हो। तुम जानते हो, लेकिन जानने वाला अब जाना गया हो गया है। तुम अंतराल को देखते हो किंतु अब देखने वाला ही देखा जा रहा है।
बुद्धत्व का मनोविज्ञान
ओशो
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