एक मित्र मेरे पास आए। वृद्ध हैं। रो रहे थे। बड़े भाव से भरे
थे। रोकर कह रहे थे कि मेरी कुंडलिनी अभी तक जगी नहीं। बीस वर्ष से भटक रहा हूं। न—मालूम कितने आश्रम, कितने गुरु, कितनी साधनाएं कर चुका हूं लेकिन
कुंडलिनी नहीं जगी।
उनके भाव में कमी नहीं है,
उनकी खोज में कमी नहीं है, लेकिन उनकी मौलिक
दृष्टि गलत है। वे कुंडलिनी को ऐसे ही खोज रहे हैं, जैसे कोई
धन को खोजता हो। और न मिले तो रोता हो। न मिले तो परेशान हो, पीड़ित हो, संतप्त हो। कुंडलिनी उनका लोभ बन गई है।
और ध्यान रहे,
इस आंतरिक यात्रा की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वहा लोभ के द्वारा
कोई भी प्रवेश नहीं हो सकता। वहां तृप्ति के द्वारा प्रवेश है।
जो नहीं मिला है,
उसकी फिक्र छोड़े; जो मिला है, उसका अनुग्रह मानें और प्रवेश बढ़ता जाएगा। लेकिन वे परेशान हैं। इस
परेशानी से कुंडलिनी जाग्रत होने वाली नहीं है। उस परेशानी से ही रुकी है। बीस साल
की खोज के कारण नहीं मिली, ऐसा नहीं है। बीस साल की खोज के
कारण ही रुकी है। वह जो अति तनाव है पाने का, उसी से भीतर सब
सिकुड़ गया है।
जहां पाने का तनाव रहेगा,
वहां हम संसार में हैं। यह पाने की दौड़ संसार है। और न पाने के लिए
राजी हो जाना, संसार से बाहर हटने लगना है।
एक आदमी धन के लिए दौड़ रहा है। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है।
एक आदमी यश के लिए दौड़ रहा है। और एक आदमी मोक्ष के लिए दौड़ रहा है। फर्क क्या है? कोई भी फर्क नहीं है। मोक्ष
के लिए दौड़ा ही नहीं जा सकता। मोक्ष तो खड़े होने वाले को मिलता है।
धन के लिए दौड़ा जा सकता है, क्योंकि धन खड़े होने वाले को नहीं मिलता। दौड़ने
वाले को भी नहीं मिल पाता है, तो खड़े होने वाले को तो मिलने
का कोई उपाय नहीं है। धन, पद, यश,
सब दौड़े हैं। मोक्ष दौड़ नहीं है। मोक्ष ठहर जाना है, रुक जाना है।
एक साधिका ने आज ही मुझे आकर कहा कि अभी तक कोई अनुभव नहीं हो
रहा है! अनुभव करना क्या है? प्रकाश दिखाई पड़ने लगे तो कुछ हो जाएगा? कि भीतर
रंग दिखाई पड़ने लगें तो कुछ हो जाएगा? कि भीतर कोई सुगंध आने
लगे तो कुछ हो जाएगा? या आपके हाथ से राख झड्ने लगे तो कुछ
हो जाएगा न: कि ताबीज निकलने लगे तो कुछ हो जाएगा? कि आप
बीमारों को छू दें और वे ठीक हो जाएं तो कुछ हो जाएगा? वह सब
खेल संसार का है और मन का है।
अनुभव की तलाश लोभ है। उस तलाश को गिर जाने दें। अनुभव को नहीं
चाहिए; अनुभोक्ता
को। वह जो अनुभव करने वाला है, उसकी पहचान। अनुभव तो फिर भी
पराए हैं, बाहर हैं। अध्यात्म अनुभव नहीं है। अध्यात्म,
अनुभव जिसको होते हैं, उसके साथ एक हो जाना
है। जिसके सामने प्रकाश आते है, और जिसके सामने सुगंधें
तैरती हैं, और जिसके सामने रंगों की बहार आ जाती है और
इंद्रधनुष फैल जाते हैं, और जिसके भीतर संगीत बजने लगता
है...। लेकिन ये सब बाहर ही हैं। चाहे आंख बंद करके ये घटनाएं घट रही हों, तो भी बाहर हैं। इनको जानने वाला तो और भीतर है। जानने वाला हमेशा,
जिसे भी जानता है, उससे भीतर है, पीछे है, पार है। और जब तक आप जानने वाले में न ठहर
जाएं, तब तक अध्यात्म का कोई स्वाद आपको नहीं मिल सकता।
तो कोई बाहर का सेंसेशन खोज रहा है कि चलो फिल्म देखें, रेडियो सुने; कोई नायिका आई, कोई नर्तकी आई—उसको
देखें। कोई बाहर का रूप—रंग खोज रहा है; कुछ भीतर के रूप—रंग खोज रहे हैं, कि चलो कुंडलिनी जगाएं, भीतर का प्रकाश देखें,
कि भीतर का आनंद लें, लेकिन खोज वही है कि कुछ
सेंसेशन, कोई उत्तेजना। दोनों ही अध्यात्म नहीं हैं।
अध्यात्म तो उसकी तलाश है,
उस चैतन्य की, उस साक्षी— भाव की, जहा सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं और केवल
अनुभोक्ता रह जाता है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता
है। जहा सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र शाता शेष रह जाता है। उस केवल—ज्ञान की, उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है।
कठोपनिषद
ओशो
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