मन कभी भी आलोचक दृष्टि से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि मन का
मतलब ही यही है कि वह हर चीज में चुनाव करता है। मन यानी चुनाव करने की क्षमता।
इसीलिए तो कृष्णमूर्ति बार—बार एक बात पर जोर देते हैं—च्चाइसलेसनेस, चुनावरहितता, चुनो मत। मन कहता है, चुनो। जब तुम चुनोगे तो आलोचक बुद्धि तो आ ही जाएगी। नहीं तो चुनोगे कैसे?
जब चुनोगे तब यह तो कहोगे न कि यह ठीक है और यह गलत है। गलत को गलत
कहोगे तभी तो ठीक को ठीक कह सकोगे। बुरे को बुरा कहोगे तभी तो अच्छे को अच्छा कह
सकोगे। पापी को पापी कहोगे तभी तो महात्मा को महात्मा कह सकोगे; नहीं तो कैसे कहोगे! रावण की निंदा न करोगे तो राम की प्रशंसा कैसे करोगे?
तो आलोचना तो आ ही जाएगी। आलोचक दृष्टि भी आ जाएगी। चुनाव आया कि
आलोचक आया। आलोचक को अगर खोना हो तो चुनाव को ही खोना पड़े।
इसलिए परम ज्ञानियों ने कहा है, अच्छे—बुरे में भी भेद मत
करना। पापी और पुण्यात्मा में भी भेद मत करना। साधु— असाधु में
भी भेद मत करना। अभेद में जीना। इंचभर का भेद और सारे भेद आ जाते हैं। जरा सा भेद
और सारे भेद प्रवेश कर जाते हैं। भेद ही मत करना। जो जैसा है वैसा है, तुम चिंता न करना, तो आलोचक दृष्टि अपने आप विदा हो
जाएगी।
फिर पूछा है,
' अहंकार से कैसे छुटकारा होगा?'
ये सब बातें जुड़ी हैं। आलोचक दृष्टि में ही अहंकार निर्मित होता
है। यह मेरे काम का, यह मेरे काम का नहीं। जो मेरे काम का है, उसे इकट्ठा
करूं; और जो मेरे काम का नहीं है, उसे
त्यागता जाऊं। जो मेरे काम का है, उसके इकट्ठे करने से जो
राशि बनती है, वही तो अहंकार है। धन इकट्ठा कर लूं ज्ञान
इकट्ठा कर लूं सम्मान इकट्ठा कर लूं? सफलता इकट्ठी कर लूं जो
अच्छा—अच्छा है इकट्ठा कर लूं जो बुरा—बुरा
है उसे छोड़ दूं तो अहंकार निर्मित होता है। अहंकार मन के द्वारा चुनी गयी वस्तुओं
का जो राशिभूत रूप है, उसका ही नाम है।
जब मन चुनता ही नहीं,
जब चुनाव ही नहीं होता, तो कुछ इकट्ठा भी नहीं
होता। तब आदमी खाली का खाली जीता है, शून्यवत जीता है। स्लेट
कोरी की कोरी रहती है, उस पर कुछ लिखावट नहीं होती। और जब
तुम्हारे भीतर का कागज कोरा होता है, तो अहंकार निर्मित नहीं
होता। कुछ लिखा कागज पर भीतर कि अहंकार बना। कुछ भी लिखा कि अहंकार बना।
एक झेन फकीर के पास उसका शिष्य आया और उसने कहा कि आप वर्षों से
प्रतीक्षा करते थे, वह बात घट गयी। आप कहते थे, शून्य होकर आ, आज मैं शून्य होकर आया हूं। उसके गुरु ने कहा, शून्य
को भी बाहर फेंककर आ। क्योंकि इतना भी अगर तेरे मन पर लिखा है कि आज शून्य होकर आ
गया, तो अभी शून्य नहीं हुआ।
इसलिए बौद्धों ने शून्यता के अठारह भेद किए हैं। तुम चकित होओगे, शून्यता के अठारह भेद!
अठारह प्रकार की शून्यता कही है। और जो आखिरी शून्यता है, जिसको
उन्होंने महाशून्यता कहा है, उसमें शून्य का भी त्याग है,
शून्य का भी विसर्जन है। फिर यह भी बोध नहीं रहता कि मैं शून्य हो
गया हूं कि मुझे समाधि लग गयी है, कि मैं सत्य को उपलब्ध हो
गया हूं यह लिखावट भी नहीं रह जाती। जहा चेतना का कागज बिलकुल कोरा हो जाता है,
वहीं बन गया वेद, वहीं बन गया कुरान, वहीं बन गयी बाइबिल, वही से परमात्मा बोलने लगता है।
उस शून्य में जो प्रस्फुटित होता है, उस शून्य से जो बहता है
निर्झर, वही शाश्वत सत्य है।
तो यह सब जुड़ा है,
नकारात्मक मन, आलोचक दृष्टि और अहंकार,
एक ही प्रक्रिया के भिन्न—भिन्न रूप हैं।
पूछा है, 'बुद्धि जलकर राख कब होगी?'
कौन पूछता है यह?
यह बात भी बुद्धि की है। सुन—सुनकर ज्ञानियों
की बातें बुद्धि यह भी सोचने लगती है कि बुद्धि जलकर राख कब होगी? क्योंकि लोभ पैदा होता है। परम ज्ञान, परम निर्वाण,
लोभ जगता है कि उस आनंद की अमृत वर्षा मेरे भीतर कब होगी? कब ऐसा होगा, जब बुद्धों का स्वर्ग मेरा भी स्वर्ग
होगा? कब ऐसा होगा, जब भीतर बसी सुगंध
जगेगी, फैलेगी? कब ऐसा होगा, जब मेरे अंधेरे में, अंतर के अंधेरे में दीया जलेगा,
बोध का प्रकाश होगा? लोभ जगता है। लोभ जगता है
तो बुद्धि आत्महत्या तक की सोचने लगती है। बुद्धि कहती है, बुद्धि
का नाश कब होगा? लेकिन यह बुद्धि ही कह रही है। यह कौन कह
रहा है? जो भी तुम सोच सकते हो, वह सभी
बुद्धि का है। जो बुद्धि के पार है, उसके संबंध में तो तुम
कुछ सोच भी नहीं सकते।
इसे समझो। खयाल रखना,
समझ तभी पैदा होती है जब तुम. कभी किसी तरह के लोभ को बीच में नहीं
आने देते। जब मुझे तुम सुन रहे हो, तो खयाल करना, कहीं लोभ तो बीच में आ नहीं रहा है? कहीं तुम यह तो
नहीं सोचने लगे कि ऐसा हमें हो जाए; कब हो जाए, कैसे हो, जल्दी हो जाए, यह
जीवन कहीं ऐसे ही न चूक जाए? यह बात होनी ही चाहिए। ऐसा लोभ
अगर पैदा होता हो तो तुम जो भी सुनोगे, विकृत हो जाएगा। तुम
कुछ का कुछ अर्थ कर लोगे।
सुनते समय लोभ करना ही मत। सुनते समय तो सिर्फ सुनना, शुद्ध सुनना। श्रवणमात्रेण।
बस सुनते ही रहना। उसी सुनने में से एक स्फुरणा जगेगी और तुम अचानक देखोगे कि उस
स्फुरणा में बुद्धि है ही नहीं। तो तुम यह नहीं पूछोगे कि बुद्धि राख कैसे हो?
अगर तुमने मुझे ठीक से सुना, तो ऐसे क्षण
आएंगे तुम्हारे अंतस्तल पर, ऐसी घड़ियां आएंगी, जब तुम अचानक चौंककर पाओगे कि बुद्धि है ही नहीं, राख
क्या करना है! बुद्धि तो लोभ के साथ आती है।
इसीलिए तो हम बच्चे में लोभ जगाते हैं, क्योंकि अगर उसकी बुद्धि
पैदा करनी है तो लोभ जगाना पड़ेगा। उससे हम कहते हैं, पढ़ोगे
लिखोगे बनोगे नवाब, लोभ जगा रहे हैं; खेलोगे
कूदोगे होगे खराब, लोभ जगा रहे हैं। नवाब बनाने का भाव पैदा
कर रहे हैं। बच्चा स्कूल जाता है तो हम उसके पीछे पड़ते हैं कि प्रथम आना, पिछड़ मत जाना, बदनामी मत करवा देना हमारी; हमारे बेटे हों—किसके बेटे हो! किस कुल से आते हो,
इसका खयाल रखना। कुछ बुरा मत करना। कुछ ऐसा मत करना जिससे अपमान हो
जाए। सम्मान मिले, पद—प्रतिष्ठा मिले,
वंश का गौरव बढ़े, ऐसा लोभ हम जगाते हैं। ऐसे
लोभ के चक्कर में पड़—पड़कर ही धीरे—धीरे
बच्चे को बुद्धि पैदा होती है। बुद्धि का मतलब है, लोभ को
पूरा करने की कुशलता। इसीलिए तो जो अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाता उसको हम बुद्ध
कहते हैं। हम कहते हैं, इसमें कुछ बुद्धि नहीं है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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