प्रथम ओर अंतिम की बात उचित नहीं है, क्योंकि जो है, सदा से है। ऐसा थोड़े ही है कि कभी कोई प्रथम दिन था। ऐसा थोड़े ही है कि
कभी कोई ऐसी घड़ी थी जिसके पहले कुछ भी नहीं था और फिर अचानक सब हुआ।
यह अस्तित्व शाश्वत है,
सनातन है। यह सदा से है और सदा रहेगा। न यहां कोई प्रथम है, न यहां कोई अंतिम है। हमारी बुद्धि की सीमा है, हम
इस शाश्वत को नहीं देख पाते। हम कितना ही खींचें इस शाश्वत को, हमें फिर भी लगता है, कहीं तो, कभी तो कुछ शुरू हुआ होगा। हम कितना ही पीछे जाएं, कितना
ही पीछे जाएं, हमें लगता है कि फिर भी किसी दिन तो ऐसा हुआ
होगा कि सब शुरू हुआ। बिना शुरू हुए सब कैसे हो गया! हमें यह बात असंभव लगती है कि
सब सदा से है। और इसके कारण हम एक दूसरी असंभव बात को मान लेते हैं कि एक दिन कुछ
भी न था और फिर सब हो गया! दूसरी बात ज्यादा असंभव है। पहली बात उतनी असंभव नहीं
है। क्योंकि जो आज है, वह कल भी हो सकता है, परसों भी हो सकता है। जीवन, अस्तित्व सदा से है। कभी
हुआ नहीं, इसका कोई प्रारंभ नहीं है और न इसका कोई अंत है।
यह एक सतत धारा है। इस सातत्य को समझो, तो फिर तुम्हें यह
सवाल नहीं उठेगा कि पहला बुद्ध जब हुआ होगा। पहला बुद्ध होगा कैसे! ऐसा हो ही कैसे
सकता है! सोचो, यह तो बात बड़ी दुर्घटना की होगी।
अगर कोई पहला बुद्ध हुआ—समझो कि दस हजार साल पहले पहला बुद्ध हुआ—तों उसके
पहले सारा अस्तित्व बुद्धत्व से हीन रहा? उसके पहले कभी कोई
बुद्ध नहीं हुआ? अनंत—अनंत काल तक
अस्तित्व में कोई फूल न खिला? यह तो बड़ी बेरौनक बात होगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, अनंत बुद्ध मुझसे पहले हुए हैं,अनंत बुद्ध मेरे बाद होंगे, बुद्ध होते ही रहे हैं।
अस्तित्व कभी भी बुद्धत्व से खाली नहीं हुआ। सारी बदलाहट, यह बड़ी धारा, यह बड़ा क्रम, हमें लगता है कभी—कभी कि ऐसा पहले शायद न हुआ हो। सोचो, जब कोई
व्यक्ति पहली दफा प्रेम में पड़ता है तो उसे लगता है, ऐसा तो
कभी भी नहीं हुआ था, ऐसा प्रेम! लेकिन क्या तुम सोचते हो यह
पहली घड़ी होगी? अनंत—अनंत लोगों ने
प्रेम किया है और सबने ऐसा ही अनुभव किया है कि ऐसा कभी न हुआ होगा। फिर भी प्रेम
सदा होता रहा है। जैसे प्रेम सदा होता रहा है, वैसे ध्यान भी
सदा होता रहा है। इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। कुछ भी नया हो नहीं सकता। नए का
तो अर्थ ही यह होगा कि अनंत—अनंत काल तक न हुआ, फिर आज हो गया। तो ये अनंत काल व्यर्थ ही गए—बांझ!
कुछ पैदा न हुआ!
बुद्ध ने या महावीर ने इस सत्य की खूब चर्चा की है। इस सत्य को
बांटा है। अलग— अलग
पहलुओं से समझाने की कोशिश की है। एक पहलू समझने जैसा है, कि
जगत का अस्तित्व वर्तुलाकार है। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है। तुम एक वर्तुल बनाओ और
एक रेखा खींचो। तो रेखा में तो प्रारंभ होता है और अंत होता है। तुम बता सकते हो
कि यहां रेखा शुरू हुई, यहां अंत हो गयी। लेकिन वर्तुल को
तुम कैसे बताओगे, कहां रेखा शुरू हुई, कहां
अंत हो गयी? वर्तुल तो बस है। न कोई प्रारंभ है न कोई अंत।
अस्तित्व वर्तुलाकार है।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर जो चाक बना है, वह बौद्धों का है। और वह
चाक अस्तित्व का प्रतीक है। जैसे चाक घूमता, चक्र घूमता,
ऐसा वर्तुलाकार है अस्तित्व। फिर—फिर वही आरे
ऊपर आ जाते हैं। जैनों ने कहा है कि प्रत्येक कल्प में चौबीस तीर्थंकर होते हैं,
जैसे कि एक गाड़ी के चके में चौबीस आरे हों। फिर कल्प होगा, फिर चौबीस तीर्थंकर होंगे, फिर कल्प होगा, फिर चौबीस तीर्थंकर होंगे। और ऐसे अनंत कल्प हुए और अनंत कल्प होते रहेंगे,
गाड़ी का चाक घूमता रहेगा।
पूरब और पश्चिम में समय की धारणा में यही भेद है। पश्चिम की समय
की धारणा एक रेखा जैसी जाती है। पूरब की समय की धारणा वर्तुलाकार है। और पूरब की
समय की धारणा ज्यादा सत्य के अनुकूल है,
क्योंकि रेखाएं होती ही नहीं। तुमने कोई भी चीज रेखा में देखी है?
बच्चा हुआ, जवान हुआ, का हुआ। आया था तब बिना दांत के आया था,
बूढा जब हो गया तो फिर बिना दांत के हो गया। एक वर्तुलाकार प्रक्रिया
है। के फिर बच्चों जैसे जिद्दी हो जाते हैं, फिर बच्चों जैसे
निर्दोष हो जाते हैं, फिर बच्चों जैसे झगड़ालू हो जाते हैं,
फिर बच्चों जैसा ही उनका ढंग हो जाता है, व्यवहार
हो जाता है। ऐसे ही मौसम घूमते हैं—गर्मी आयी, फिर वर्षा आयी, फिर शीत आयी, फिर
गर्मी आ गयी। ऐसे ही चांद—तारे घूमते हैं। ऐसे ही पृथ्वी
घूमती है। ऐसा ही सूरज घूमता है। यह सारा अस्तित्व वर्तुल में घूम रहा है।
तो पूरब कहता है,
समय भी वर्तुलाकार ही होगा, रेखाबद्ध नहीं हो
सकता। इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा। क्योंकि इतिहास का मतलब तो तभी होता है जब
घटना एक बार घटती हो और बार—बार न घटती हो। तब तो इतिहास
लिखने का कोई मतलब होता है, क्योंकि प्रत्येक घटना अनूठी है।
फिर दुबारा तो होगी नहीं, हो गयी तो हो गयी, इसलिए लिख रखने जैसी है। अगर बार —बार होनी है तो
लिख रखने जैसी क्या है! फिर होगी, फिर होगी, होती ही रही है। इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा, पूरब
ने पुराण लिखा। पुराण बड़ी अलग बात है।
इसलिए पश्चिम और पूरब की समझ में बड़े भेद हैं। जब पश्चिम का कोई
व्यक्ति राम की कथा पढ़ता है, तो वह पूछता है कि यह ऐतिहासिक है या नहीं? ऐसा हुआ
या नहीं? हमारे पास इसका उत्तर नहीं है। क्योंकि हमें इतिहास
में रस ही नहीं है। हमारा तो यह कहना है कि जब भी अनंत— अनंत
काल में राम हुए हैं, तो उन सबकी कथा का यह सार है। इस फर्क
को समझना।
राम की कथा कोई ऐसी कथा नहीं है कि इस कल्प में हुई; बहुत बार हुई। उस हर बार
होने से जो हमने सार—निचोड़ लिया, वह
लिखा। इसी तरह जीसस का जो जीवन है, वह ऐतिहासिक है, उसमें तथ्यों पर जोर है। महावीर का जो जीवन है, वह
ऐतिहासिक नहीं है। और बुद्ध का जो जीवन है, वह भी ऐतिहासिक
नहीं है।
इतिहास दो कौड़ी का है,
क्योंकि हमारी पकड़ बहुत गहरी है। हम यह कहते हैं कि जब भी जितने
बुद्ध हुए, उन सबका जो सार—निचोड़ है,
वह हमने फिर गौतम बुद्ध में पढ़ लिया, फिर हमने
गौतम बुद्ध के नाम से लिख दिया। फिर आगे कोई बुद्ध होगा, गौतम
बुद्ध तब तक भूल जा चुके होंगे, बिछड़ गए होंगे इतिहास के
पुराने रास्तों पर, भूल चुके होंगे, फिर
नया बुद्ध सारे बुद्धों में जो होता है, उसको फिर से
पुनरुज्जीवित कर देगा। लेकिन कथा वही है। नाम बदल जाते हैं, रंग—ढंग बदल जाते हैं, लेकिन कथा वही है। गीत वही है,
धुन वही है, टेक वही है।
इसलिए सारी बातें बुद्ध के जीवन में जो लिखी हैं, तुम ऐसा मत सोचना कि वे सच
हैं। सच ऐतिहासिक अर्थों में नहीं हैं। कई बातें ऐसी हैं जो दूसरे बुद्धों के जीवन
में घटी होंगी। और कई बातें ऐसी हैं जो आने वाले बुद्धों के जीवन में घटेगी। बुद्ध
के जीवन में हमने सबका सार रख दिया है। निचोड़ है।
गुलाब का एक फूल है,
यह इतिहास! और हमने बहुत से फूलों का इत्र निकाल लिया, यह पुराण। उस इत्र में सभी गुलाबों की गंध आ गयी। मगर अब तुम यह न कह
सकोगे, किस गुलाब से बना यह इत्र, अब
मुश्किल है, अब बताना बिलकुल मुश्किल है। जो तुम्हारी बगिया
में खिला था, उस गुलाब से? या जो पड़ोसी
की बगिया में खिला था, उस गुलाब से, कि
पीले गुलाब से, कि लाल गुलाब से, कि
सफेद गुलाब से? अब यह बताना बहुत मुश्किल है। अब तो यह इत्र
सबका सार—निचोड़ है।
हमने इत्र लिखा,
पश्चिम गुलाबों की रूपरेखा लिखता है, एक—एक गुलाब का हिसाब रखता है। हम कहते हैं, एक—एक गुलाब का हिसाब रखने से सार भी क्या है। सब गुलाब अपनी मूलभूत सत्ता
में समान होते हैं, इसलिए हमारे सत्य सार्वलौकिक हैं,
सार्वभौम हैं, शाश्वत हैं।
पूछा है तुमने,
'मनुष्यों में जो प्रथम बुद्ध हुए होंगे.......।
'नहीं, कोई प्रथम नहीं हुआ। प्रथम के भी पहले बहुत
हुए हैं। तो प्रथम कहने का कोई अर्थ नहीं है। और अंतिम भी कोई नहीं होगा। अंतिम के
बाद भी होते रहेंगे। प्रश्न है कि 'किस मार्ग से गए होंगे वे?
उनका गुरु कौन था?'
उनके पहले इतना ही समय हो चुका था जितना हमारे पहले हुआ है, क्योंकि समय अनंत है। इसमें
हिसाब नहीं लगाया जा सकता है।
मैंने सुना है,
एक म्यूजियम में म्यूजियम का गाइड एक यात्रियों के दल को चीजें दिखा
रहा था। फिर उसने एक अस्थिपंजर बताया और कहा कि यह एक करोड़ तीन साल सात दिन पुराना
है। यात्री भी थोड़े चौंके! एक करोड़ तीन साल सात दिन पुराना! उन्होंने कहा, एक करोड़ तो ठीक, मगर यह तीन साल और सात दिन! इतना
हिसाब रखा है! उसने कहा, ही! तो कैसे पता चला यह तीन साल और
सात दिन का? तो उसने कहा, ऐसे पता चला
कि आज से तीन साल सात दिन पहले इस म्यूजियम का जो डायरेक्टर है, उसने मुझसे कहा था कि यह एक करोड़ वर्ष पुराना है। तो अब मैं उसमें जोड़ता
जाता हूं क्योंकि अब तीन साल सात दिन बीत चुके।
अतीत अनंत है। तुम क्या सोचते हो कि हम बुद्ध के पच्चीस सौ साल
बाद हुए—पच्चीस
सौ साल बाद—तो क्या तुम सोचते हो, अतीत
की अनंतता में धन पच्चीस सौ साल जुड़ गए? अतीत की अनंतता में
क्या जोड़ोगे, क्या घटाओगे? अनंत अतीत
की दृष्टि से तो कुछ भी नहीं बीता है, पच्चीस सौ साल कुछ भी
नहीं बीते, बीता ही नहीं कुछ! अनंत में कुछ जोड़ो तो बढ़ता
नहीं और घटाओ तो घटता नहीं। उपनिषद का वचन तुम्हें याद है न, पूर्ण में पूर्ण को जोड़ दो तो पूर्ण बड़ा नहीं होता, और
पूर्ण में से पूर्ण को निकाल लो तो पूर्ण छोटा नहीं होता। पूर्ण का अर्थ ही यह
होता है, उसमें जोड़ा नहीं जा सकता और घटाया नहीं जा सकता।
कितना ही जोड़ते चले जाओ।
अनंत का खयाल करो,
हमसे पहले अनंत काल बीत चुका है। अनंत का अर्थ ही होता है कि जिसका
कभी कोई प्रारंभ नहीं था। अब उसमें पच्चीस सौ साल जुड़ने से कोई फर्क थोड़े ही पड़ता
है। जितना काल हमसे पहले बीता है, उतना ही काल बू द्ध के समय
में भी बीत चुका था। उतना ही! और हमारे बाद भी पच्चीस सौ साल बाद जब कोई आएगा,
और चर्चा करेगा, तब भी उतना ही काल बीता है,
कुछ फर्क नहीं पड़ा है।
इसलिए किस मार्ग से गए होंगे उनके पहले जो बुद्ध गए थे? अनंत—अनंत
बुद्ध! स्वभावत: उसी मार्ग में से उन्होंने अपना मार्ग चुना होगा। उनके पहले जो
अनंत दीपस्तंभ हुए थे, उन्हीं की रोशनी में उन्होंने अपनी
खोज की होगी।
यहां कोई पहला नहीं है और यहां कोई अंतिम नहीं है। हम सब
संयुक्त हैं।
तुम ऐसा सोचो,
तुम अपने पिता से पैदा हुए, तुम्हारे पिता
अपने पिता से पैदा हुए होंगे, पिता के पिता और किसी से पैदा
हुए होंगे, तुमने कभी ऐसा सोचा कि पहला आदमी किससे पैदा हुआ
होगा? वैसे ही यह भी प्रश्न है, पहला
आदमी किससे पैदा हुआ होगा? पहला आदमी हो ही नहीं सकता।
क्योंकि जब भी कोई आदमी पैदा होगा, पिता की जरूरत पड़ेगी,
मां की जरूरत पड़ेगी। किसी से पैदा होगा। पहला आदमी हो ही नहीं सकता।
और न अंतिम आदमी हो सकता है। क्योंकि जो है, वह रहेगा,
मिटता नहीं। जो है, था और रहेगा।
इसका तुम्हें बोध आ जाए,
यह विस्तार का तुम्हें थोड़ा स्मरण आ जाए।
यह कठिन है स्मरण करना,
क्योंकि हमारी बुद्धि की बडी सीमा है, कितना
ही खींचो—तानो, हम कहते हैं, कोई तो हुआ होगा पहले! हमारा मन पूछे ही चला जाता है, कोई तो हुआ होगा पहले! कभी तो अंत होगा!
इसे और तरह से देखो। हम कहते हैं, जगत असीम है। सोचो, चलते
जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, प्रकाश की गति से चलो—प्रकाश बड़ी तीव्र से तीव्र गति
है, एक लाख छियासी. हजार मील प्रति सेकेंड—प्रकाश की गति से तुम्हारा हवाई जहाज चला जा रहा है, या और भी बड़ी गति खोज लो। क्या तुम कभी ऐसा घड़ी में आओगे जहा तुम जगत की
सीमा पर पहुंच जाओ?
समझना, इस पर दार्शनिक बहुत चिंतन करते रहे हैं कि ऐसी कोई जगह आएगी जहा तख्ती
लगी हो कि यहां समाप्त हो गया संसार, अब आगे मत जाना नहीं तो
गिर पड़ोगे? मगर अगर आगे गिर पड़ने को भी जगह है, तो अभी संसार बाकी है।
अगर सीमा भी खींची जा सकती है कि यहां संसार समाप्त हो गया, तो सीमा तो बनती ही दो से
है, तो यहां से कोई और चीज शुरू हो गयी। हर अंत शुरुआत है।
हर द्वार कहीं खुलता है, कहीं बंद होता है।
अगर तुम एक ऐसी जगह पहुंच गए—ठीक है, यहां होता है ऐसा
कि तुम पहुंच गए, महाराष्ट्र खतम, गुजरात
शुरू, यह यहां हो जाता है। लेकिन गुजरात तो होना चाहिए,
नहीं तो महाराष्ट्र खतम कैसे होगा? महाराष्ट्र
खतम हो जाता है, गुजरात शुरू हो जाता है, हिंदुस्तान खतम हो जाता है, पाकिस्तान शुरू हो जाता
है। जहा कुछ खतम होता है, वहा तत्क्षण कुछ शुरू हो जाता है।
अगर यह विश्व कहीं खतम होता हो और एक रेखा आ जाती हो, जहा
तख्ती लगी है, चुंगी—चौकी बनी है कि बस,
आगे मत बढ़ना, यहां संसार खतम! तो उसका मतलब है,
आगे कुछ तो होगा।
नहीं, ऐसी चुंगी—चौकी पर तुम कभी न पहुंचोगे। ऐसी कोई
चुंगी—चौकी है ही नहीं। हो ही नहीं सकती। होना ही असंभव है।
क्योंकि जहा भी रेखा खींचनी हो, रेखा दो के बीच खिंचती है।
और अगर दूसरा मौजूद है तो अभी अंत नहीं आया। तो रेखा खिंच ही नहीं सकती। रेखा
असंभव है। जब हम कहते हैं, जगत असीम है, तो हम कहते हैं, आकाश असीम है। और जब हम कहते हैं,
जगत अनंत है, तो हम कहते हैं, समय, काल की धारा अनंत है।
समय और आकाश दोनों अनंत हैं। यहां न कभी कोई प्रथम हुआ और न कोई
अंतिम होगा।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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