तंत्र और योग मौलिक रूप से भिन्न हैं। वे
एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं लेकिन मार्ग केवल अलग-अलग ही नहीं, बल्कि एक दूसरे के विपरीत भी हैं। इसलिए
इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। योग की प्रक्रिया तत्व-ज्ञान प्रणाली-विज्ञान
भी है योग विधि भी है। योग दर्शन नहीं है। तंत्र की भांति योग भी क्रिया, विधि, उपाय पर आधारित है। योग में करना होने की ओर ले जाता है
लेकिन विधि भिन्न है। योग में व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है; वह योद्धा का मार्ग है। तंत्र के मार्ग पर
संघर्ष बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत उसे भोगना है लेकिन होशपूर्वक बोधपूर्वक।
योग होशपूर्वक दमन है तंत्र होशपूर्वक भोग
है।
तंत्र कहता है कि तुम जो भी हो परम-तत्व
उसके विपरीत नहीं है। यह विकास है तुम उस परम तक विकसित हो सकते हो। तुम्हारे और
सत्य के बीच कोई विरोध नहीं है। तुम उसके अंश हो इसलिए प्रकृति के साथ संघर्ष की, तनाव की, विरोध की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें प्रकृति का उपयोग करना
है; तुम जो भी हो उसका उपयोग
करना है ताकि तुम उसके पार जा सको।
योग में पार जाने के लिए तुम्हें स्वयं से
संघर्ष करना पड़ता है। योग में संसार और मोक्ष तुम जैसे हो और जो तुम हो सकते हो
दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। दमन करो,
उसे मिटाओ जो तुम हो: ताकि तुम वह हो सको जो तुम हो सकते हो। योग में पार जाना
मृत्यु है। अपने वास्तविक स्वरूप के जन्म के लिए तुम्हें मरना होगा।
तंत्र की दृष्टि में, योग एक गहरा आत्मघात है। तुम्हें अपने
प्राकृतिक रूप अपने शरीर अपनी वृत्तियों अपनी इच्छाओं को- सब कुछ को मार देना होगा
नष्ट कर देना होगा। तंत्र कहता है ''तुम जैसे हो, उसे वैसे ही स्वीकार करो।'' तंत्र गहरी से गहरी स्वीकृति है। अपने और
सत्य के बीच संसार और निर्वाण के बीच कोई अंतराल मत बनाओ। तंत्र के लिए कोई अंतराल
नहीं है मृत्यु जरूरी नहीं है। तुम्हारे पुनर्जन्म के लिए किसी मृत्यु की जरूरत
नहीं है बल्कि अतिक्रमण की आवश्यकता है। इस अतिक्रमण के लिए स्वयं का उपयोग करना
है।
उदाहरण के लिए- काम है सेक्स है। वह
बुनियादी ऊर्जा है जिसके माध्यम से तुम पैदा हुए हो। तुम्हारे अस्तित्व के
तुम्हारे शरीर के बुनियादी कोश काम के हैं। यही कारण है कि मनुष्य का मन काम के
इर्द गिर्द ही घूमता रहता है। योग में इस ऊर्जा से लड़ना अनिवार्य है। वहां लड़कर ही
तुम अपने भीतर एक भिन्न केंद्र को निर्मित करते हो। जितना तुम लड़ते हो उतना ही तुम
उस भिन्न केंद्र से जुड़ते जाते हो। तब काम तुम्हारा केंद्र नहीं रह जाता। काम से
संघर्ष- निश्चित ही होशपूर्वक- तुम्हारे भीतर अस्तित्व का एक नया केंद्र निर्मित
कर देता है। तब काम तुम्हारी ऊर्जा नहीं रह जाएगा। काम से लड़कर तुम अपनी ही ऊर्जा
निर्मित कर लोगे एक अलग प्रकार की ही ऊर्जा,
एक अलग प्रकार का अस्तित्व-केंद्र पैदा होगा।
तंत्र के लिए काम-ऊर्जा का उपयोग करो उससे
लड़ो मत। उसे रूपांतरित करो। उसे शत्रु मत समझो उससे मित्रता बनाओ। वह तुम्हारी ही
ऊर्जा है; वह पाप नहीं
है वह बुरी नहीं है। प्रत्येक ऊर्जा तटस्थ है। उसका उपयोग तुम्हारे हित में किया
जा सकता है और तुम्हारे विरुद्ध भी किया जा सकता है। तुम उसे अवरोधक भी बना सकते
हो और सीढ़ी भी बना सकते हो। उसका उपयोग हो सकता है। सही ढंग से उपयोग करने पर
मित्र बन जाती है। गलत उपयोग पर वह तुम्हारी शत्रु हो जाती है। वह दोनों ही नहीं
है। ऊर्जा तटस्थ है।
साधारण आदमी जिस तरह यौन का काम का उपयोग
करता है वह उसका शत्रु बन जाता है उसे नष्ट कर देता है उसकी शक्ति का क्षय करता
है। योग की दृष्टि ठीक इसके विपरीत है - साधरण मन के विपरीत। साधारण चित्त अपनी ही
वासनाओं से विनष्ट होता जाता है।
इसलिए योग कहता है ''वासना छोड़ो और वासना-शून्य हो जाओ।'' वासना से लड़ो और अपने भीतर एक संघटन, इनटेग्रेशन पैदा करो जो वासना रहित हो।
तंत्र कहता है ''वासना के
प्रति जागो।'' उससे संघर्ष
मत करो। वासना में पूरी सजगता के साथ प्रवेश करो और जब तुम पूरी होश से वासना में
प्रवेश करते हो तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। तब तुम उसमें होकर भी उसमें नहीं
होते। तुम उसमें से गुजरते हो लेकिन अजनबी बने रहते हो, अछूते रह जाते हो।
योग बहुत अधिक आकर्षित करता है क्योंकि
योग साधारण चित्त के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए साधारण चित्त योग की भाषा समझ सकता
है। तुम यह जानते हो कि किस भांति काम तुम्हें विनष्ट कर रहा है इसने तुम्हें किस
तरह नष्ट कर दिया है किस तरह तुम इसके इर्द गिर्द गुलामों की भांति, कठपुतलियों की भांति घूमते रहते हो। अपने
अनुभव से तुम यह जानते हो। इसलिए जब योग कहता है ''इससे संघर्ष करो''
तुम तत्काल इस भाषा को समझ जाते हो। यही आकर्षण है योग का सुगम आकर्षण है।
तंत्र इतनी सरलता से आकर्षित नहीं करता।
यह मुश्किल लगता है कि कैसे इच्छा के बिना उसके द्वारा अभिभूत हुए प्रवेश किया जा
सकता है? कामवासना में
पूरी होश से किस प्रकार प्रवृत्त हुआ जा सकता है? साधरण चित्त भयभीत हो जाता है। यह खतरनाक लगता है ऐसा नहीं
कि यह खतरनाक है। जो कुछ भी तुम काम के संबंध में जानते हो, वह तुम्हारे लिए खतरा उत्पन्न करता है।
तुम अपने को जानते हो तुम जानते हो कि तुम किस प्रकार स्वयं को धोखा दे सकते हो।
तुम भलीभांति जानते हो कि तुम्हारा मन चालाक है। तुम वासना में काम वासना में सभी
वासनाओं में प्रवृत्त हो सकते हो और अपने को धोखा दे सकते हो कि तुम पूरी होश के
साथ उसमें प्रवृत हो रहे हो। यही कारण है कि तुम्हें खतरे का अहसास होता है। खतरा
तंत्र में नहीं है तुम में है तुम में है।
और योग का आकर्षण भी तुम्हारे कारण है।
तुम्हारे साधारण मन तुम्हारा काम-दमित,
काम का भूखा कामांध चित्त इसका कारण है। क्योंकि साधारण मन काम के संबंध में
स्वस्थ नहीं है इसलिए योग के लिए आकर्षण है। एक बेहतर मनुष्यता जिसका काम के प्रति
स्वस्थ नैसर्गिक सहज स्वाभाविक दृष्टिकोण होगा... हम सामान्य और प्रकृत नहीं है।
हम सर्वथा असामान्य हैं अस्वस्थ और विक्षिप्त हैं। लेकिन क्योंकि सभी हम जैसे हैं
इसलिए हमें इसका अहसास नहीं होता। पागलपन इतना सामान्य है कि शायद पागल न होना
असामान्य प्रतीत होता है। हमारे बीच एक बुद्ध असामान्य हैं एक जीसस असामान्य है।
वे इनसे अन्यथा मालूम होते है। यह सामान्यता एक रोग है। इसी सामान्य चित्त में योग
का आकर्षण पैदा होता है।
तंत्र अध्यात्म और काम
ओशो
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