अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना
एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो
करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो
होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की
है, लेकिन फल का सार समष्टि का है।
लेकिन हम उलटे चलते हैं,
फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलों को
पीछे बांधते हैं। कृष्ण कह रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है--लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्य मनुष्य की नहीं है;
करने की सामर्थ्य मनुष्य की है। क्यों? ऐसा
क्यों है? क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है।
मैं सोचता हूं,
कल सुबह उठूंगा, आपसे मिलूंगा। लेकिन कल सुबह
सूरज भी उगेगा? कल सुबह भी होगी? जरूरी
नहीं है कि कल सुबह हो ही। मेरे हाथ में नहीं है कि कल सूरज उगे ही। एक दिन तो ऐसा
जरूर आएगा कि सूरज डूबेगा और उगेगा नहीं। वह दिन कल भी हो सकता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अब यह सूरज चार हजार साल से ज्यादा नहीं
चलेगा। इसकी उम्र चुकती है। यह भी बूढ़ा हो गया है। इसकी किरणें भी बिखर चुकी हैं।
रोज बिखरती जा रही हैं न मालूम कितने अरबों वर्षों से! अब उसके भीतर की भट्ठी चुक
रही है, अब उसका
ईंधन चुक रहा है। चार हजार साल हमारे लिए बहुत बड़े हैं, सूरज
के लिए ना-कुछ। चार हजार साल में सूरज ठंडा पड? जाएगा--किसी
भी दिन। जिस दिन ठंडा पड़ जाएगा, उस दिन उगेगा नहीं; उस दिन सुबह नहीं होगी। उसकी पहली रात भी लोगों ने वचन दिए होंगे कि कल
सुबह आते हैं--निश्चित।
लेकिन छोड़ें! सूरज चार हजार साल बाद डूबेगा और नहीं उगेगा।
हमारा क्या पक्का भरोसा है कि कल सुबह हम ही उगेंगे! कल सुबह होगी, पर हम होंगे? जरूरी नहीं है। और कल सुबह भी होगी, सूरज भी उगेगा,
हम भी होंगे, लेकिन वचन को पूरा करने की
आकांक्षा होगी? जरूरी नहीं है। एक छोटी-सी कहानी कहूं।
सुना है मैंने कि चीन में एक सम्राट ने अपने मुख्य वजीर को, बड़े वजीर को फांसी की सजा
दे दी। कुछ नाराजगी थी। लेकिन नियम था उस राज्य का कि फांसी के एक दिन पहले स्वयं
सम्राट फांसी पर लटकने वाले कैदी से मिले, और उसकी कोई आखिरी
आकांक्षा हो तो पूरी कर दे। निश्चित ही, आखिरी आकांक्षा जीवन
को बचाने की नहीं हो सकती थी। वह बंदिश थी। उतनी भर आकांक्षा नहीं हो सकती थी।
सम्राट पहुंचा--कल सुबह फांसी होगी--आज संध्या, और अपने वजीर से पूछा कि
क्या तुम्हारी इच्छा है? पूरी करूं! क्योंकि कल तुम्हारा
अंतिम दिन है। वजीर एकदम दरवाजे के बाहर की तरफ देखकर रोने लगा। सम्राट ने कहा,
तुम और रोते हो? कभी मैं कल्पना भी नहीं कर
सकता, तुम्हारी आंखें और आंसुओं से भरी!
बहुत बहादुर आदमी था। नाराज सम्राट कितना ही हो, उसकी बहादुरी पर कभी शक न
था। तुम और रोते हो! क्या मौत से डरते हो? उस वजीर ने कहा,
मौत! मौत से नहीं रोता, रोता किसी और बात से
हूं। सम्राट ने कहा, बोलो, मैं पूरा कर
दूं। वजीर ने कहा, नहीं, वह पूरा नहीं
हो सकेगा, इसलिए जाने दें। सम्राट जिद्द पर अड़ गया कि क्यों
नहीं हो सकेगा? आखिरी इच्छा मुझे पूरी ही करनी है।
तो उस वजीर ने कहा,
नहीं मानते हैं तो सुन लें, कि आप जिस घोड़े पर
बैठकर आए हैं, उसे देखकर रोता हूं। सम्राट ने कहा, पागल हो गए? उस घोड़े को देखकर रोने जैसा क्या है?
वजीर ने कहा, मैंने एक कला सीखी थी; तीस वर्ष लगाए उस कला को सीखने में। वह कला थी कि घोड़ों को आकाश में उड़ना सिखाया
जा सकता है, लेकिन एक विशेष जाति के घोड़े को। उसे खोजता रहा,
वह नहीं मिला। और कल सुबह मैं मर रहा हूं, जो
सामने घोड़ा खड़ा है, वह उसी जाति का है, जिस पर आप सवार होकर आए हैं।
सम्राट के मन को लोभ पकड़ा। आकाश में घोड़ा उड़ सके, तो उस सम्राट की कीर्ति का
कोई अंत न रहे पृथ्वी पर। उसने कहा, फिक्र छोड़ो मौत की!
कितने दिन लगेंगे, घोड़ा आकाश में उड़ना सीख सके? कितना समय लगेगा? उस वजीर ने कहा, एक वर्ष। सम्राट ने कहा, बहुत ज्यादा समय नहीं है।
अगर घोड़ा उड़ सका तो ठीक, अन्यथा मौत एक साल बाद। फांसी एक
साल बाद भी लग सकती है, अगर घोड़ा नहीं उड़ा। अगर उड़ा तो फांसी
से भी बच जाओगे, आधा राज्य भी तुम्हें भेंट कर दूंगा।
वजीर घोड़े पर बैठकर घर आ गया। पत्नी-बच्चे रो रहे थे, बिलख रहे थे। आखिरी रात थी।
घर आए वजीर को देखकर सब चकित हुए। कहा, कैसे आ गए? वजीर ने कहानी बताई। पत्नी और जोर से रोने लगी। उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि मैं भलीभांति जानती
हूं, तुम कोई कला नहीं जानते, जिससे
घोड़ा उड़ना सीख सके। व्यर्थ ही झूठ बोले। अब यह साल तो हमें मौत से भी बदतर हो
जाएगा। और अगर मांगा ही था समय, तो इतनी कंजूसी क्या की?
बीस, पच्चीस, तीस वर्ष
मांग सकते थे! एक वर्ष तो ऐसे चुक जाएगा कि अभी आया अभी गया, रोते-रोते चुक जाएगा।
उस वजीर ने कहा,
फिक्र मत कर; एक वर्ष बहुत लंबी बात है। शायद,
शायद बुद्धिमानी के बुनियादी सूत्र का उसे पता था। और ऐसा ही हुआ।
वर्ष बड़ा लंबा शुरू हुआ। पत्नी ने कहा, कैसा लंबा! अभी चुक
जाएगा। वजीर ने कहा, क्या भरोसा है कि मैं बचूं वर्ष में?
क्या भरोसा है, घोड़ा बचे? क्या भरोसा है, राजा बचे? बहुत-सी
कंडीशंस पूरी हों, तब वर्ष पूरा होगा। और ऐसा हुआ कि न वजीर
बचा, न घोड़ा बचा, न राजा बचा। वह वर्ष
के पहले तीनों ही मर गए।
कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म
सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है,
फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार
है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय
नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से
कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम
अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा
सूत्र है।
इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल
की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती
है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है,
भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही
नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो
जाता है, रसहीन हो जाता है।
इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा
से भरा चित्त, उतना
ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना
ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल
तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ
इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है।
गीता दर्शन
ओशो
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