पहली तो बात,
क्या मुझ पर कोई मुकदमा चलाने का इरादा है? गुरु
की जिम्मेवारी गुरु जाने! तुम जानकर क्या करोगे? कि अगर
जिम्मेवारी न पूरी की गयी तो कोई झंझट—बखेड़ा खड़ा करोगे?
गुरु की जिम्मेवारी गुरु जाने! तुम अगर पूछना ही हो तो शिष्य की
जिम्मेवारी पूछो, क्योंकि वह तुम्हें करनी है। अपनी बात
पूछो।
अपनी बात तो तुमने नहीं पूछी, तुम फिकर कर रहे हो कि गुरु की क्या जिम्मेवारी
है! जैसे तुम्हारा काम तो अब पूरा हो गया, क्योंकि चरणों में
सिर रख दिया, बात खतम हो गयी। हालांकि चरणों में सिर अभी रखा
नहीं, नहीं तो जिम्मेवारी पूछते नहीं। जब चरणों में सिर रख
ही दिया तो अब बचा क्या! अब बात खतम हो गयी। अब जो मर्जी सो करो। अब जैसा लगे,
करो। यह गर्दन काटनी हो तो काट दो। अब कोई बात न रही पूछने की।
लेकिन तुमने चरणों में सिर रखकर जैसे गुरु पर अनुकंपा की, कि अब बोलो! कि हम तो कर
दिए जो करना था, अब आपकी तरफ से क्या होगा? क्योंकि हमने तो सिर रख दिया!
सिर में है क्या?
सिर काटकर बेचने जाओगे, कितने में बिकेगा?
ऐसा हुआ, कि अकबर के पास फरीद कभी—कभी आता था, अकबर फरीद के पास भी कभी—कभी जाता था। फरीद अनूठा
फकीर था। जब अकबर फरीद के पास जाता या फरीद अकबर के पास आता तो अकबर सिर झुकाकर
उसके चरणों में प्रणाम करता था। अकबर के वजीरों को बात न जंचती थी, उनको बड़ा अखरता था कि बादशाह और किसी फकीर के चरणों में सिर झुकाए! आखिर
उनसे न रहा गया और उन्होंने कहा, यह शोभा नहीं देता कि आप
अपना सिर झुकाएं फकीर के कदमों में। इसकी कोई जरूरत नहीं है, साधारण आदमी जैसा आदमी, आपने समझा क्या है! आप क्यों
इतना अपने को विनम्र कर लेते हैं? तो अकबर ने कहा, तुम एक काम करो, इसका उत्तर तुम्हें शीघ्र ही दूंगा,
अभी रुको।
कोई महीने—पंद्रह दिन बाद एक आदमी को फांसी हुई, अकबर ने उसकी
गर्दन कटवा ली और अपने वजीरों को कहा कि इसको बाजार में जाकर बेच आओ। सुंदर आदमी
था, सुंदर चेहरा था, आंखें बड़ी प्यारी
थीं। साफ—सुथरा करके सोने की थाली में रखकर वजीर उसको बाजार
में बेचने गए। जिसकी दुकान पर गए, उसी ने कहा कि हटो,
हटो, बाहर निकलो! तुम्हारा दिमाग खराब हुआ है?
इसको करेंगे क्या लेकर? आदमी का सिर किस काम
आता है, उन्होंने कहा! अगर हाथी का सिर होता तो कुछ काम भी आ
जाए। हिरन का सिर हो तो कुछ सजावट के काम आ जाए। इसको हम करेंगे क्या! यह बदबू
आएगी और गंदगी होगी, हटो! कोई आदमी दो पैसा देने को तैयार
नहीं हुआ। वजीर बड़े हैरान हुए।
लौटकर आए, अकबर से कहा, कि दुखी हैं हम, लेकिन
कोई आदमी दो पैसा देने को तैयार नहीं, उलटे लोग नाराज होते
हैं। जिसके पास हम गए उन्होंने कहा कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, इसको करेंगे क्या?
तो अकबर ने कहा कि यह तुम्हारे लिए मेरा उत्तर था। आदमी के सिर
की कीमत क्या है! दो पैसे में भी कोई लेने को तैयार नहीं है। तुम सोचते हो, मेरा सिर काटकर किसी दिन
तुम बेचने जाओगे तो कोई खरीदेगा! तो जिसकी दो कौड़ी कीमत नहीं है, उसको अगर मैंने किसी फकीर के चरणों में झुका दिया, तुम्हें
अड़चन क्या है? जिसका कोई मूल्य ही नहीं है!
इसका नाम झुकाना है। सिर में मूल्य नहीं है, इसको जानना ही सिर का
झुकाना है। तुमने झुकाया होगा सिर, लेकिन यही सोचकर कि बड़ा
गजब कर रहे हैं! बड़ी अनूठी घटना तुम कर रहे हो! कि देखो सिर झुका रहे हो! तुम्हारे
मन में यह खयाल है कि सिर का कोई बड़ा मूल्य है। मैं जानता हूं कि तुमने बड़ी अड़चन
से झुकाया होगा, बहुत दिन सोचा होगा, विचारा
होगा। लेकिन तुम्हारे सोच—विचार से कुछ सिर में मूल्य नहीं आ
जाता। सिर झुकाने का अर्थ यह है कि तुमने यह कहा कि सिर में तो कुछ भी नहीं है,
अब सिर के आगे कुछ यात्रा हो जाए। सिर में तो कुछ नहीं पाया,
अब सिर के पार जाने की अभीप्सा प्रगट की।
इसीलिए पूरब में हम सिर झुकाते हैं गुरु के चरणों में जाकर। हम
यह कहते हैं कि सिर से तो कुछ मिला नहीं,
सिर की तो दौड— धूप खूब कर लिए हैं, सिर की तो माराधापी खूब कर ली है, इससे कुछ मिला
नहीं। पीडा पायी, असंतोष पाया, अतृप्ति
पायी, ज्वरग्रस्त रहे, दुख—स्वप्न देखे, सिर से तो कुछ मिला नहीं, यह तो आपके पैरों में रख देते हैं यह सिर, अब कुछ
ऐसा बताएं कि सिर के ऊपर कैसे जाएं? सिर का कोई मूल्य नहीं
है, यही घोषणा सिर झुकाने में है।
तुम पूछते हो कि मैंने तो अपना सिर आपके चरणों में रख दिया, अब? बताएं
कि गुरु की जिम्मेवारी क्या है?
तुम सोचते हो,
तुम्हारा काम खतम हो गया। तुम्हारा काम शुरू हुआ। सिर में तो कुछ था
नहीं, कचरा तुमने चढ़ा दिया पैरों पर, अब
भूल जाओ सिर को। अगर नहीं भूले और याद रखा तो चढ़ाया ही नहीं। और अब पूछो कि शिष्य
की जिम्मेवारी क्या है? अब मैं क्या करूं? यह तो कोई करने जैसी बात न थी, यह तो सिर्फ शुरुआत
है करने की। यह कोई बहुत बडा काम नहीं हो गया। इससे कुछ क्रांति नहीं हो जाएगी। अब
क्या करूं? व्यर्थ तो छोड़ दिया, अब
सार्थक को कैसे तलाशूं? यह पूछो।
लेकिन तुम पूछते हो,
'गुरु की जिम्मेवारी क्या है?'
तुम्हारा मतलब यह है कि हमारी तरफ का काम तो हमने कर दिया है, अब आप, अब आप बताएं आपकी जिम्मेवारी क्या है?
यह बात ही शिष्य न होने का लक्षण है। मेरी जिम्मेवारी मैं समझता
हूं। तुम उसे समझ भी न सकोगे अभी। अभी तुम शिष्य भी नहीं हुए, तो तुम गुरु की जिम्मेवारी
तो कैसे समझ सकोगे? गुरु की जिम्मेवारी तो तभी समझ में आएगी
जब तुम शिष्यत्व की गहराई में इतने उतर जाओगे कि तुम्हारे भीतर ही गुरु का जन्म
होने लगेगा, तब तुम गुरु की जिम्मेवारी समझ सकोगे। अभी तो
तुम्हें आख चाहिए, अभी तो तुम्हें विनम्रता चाहिए, सरलता चाहिए, ध्यान चाहिए, प्रेम
चाहिए, भक्ति चाहिए, अभी तो तुम्हें
बहुत कुछ करना है। यह तो सिर्फ घोषणा हुई तुम्हारी, तुमने
शपथ ली कि हम झुक गए, अब हम करने को तैयार हैं, अब जो कहेंगे, हम करेंगे।
लेकिन प्रश्न महत्वपूर्ण है। क्योंकि अधिक लोगों का यही भाव
होता है कि हम तो कर दिए जो करने योग्य था,
अब जो करना हो आप करें। मैं करूंगा, लेकिन
मेरे अकेले किए कुछ भी न होगा, क्योंकि तुम्हारी स्वतंत्रता
परम है। तुम अगर साथ दोगे तो ही होगा। मैं तो करूंगा, लेकिन
अगर तुमने विरोध किया तो कुछ भी न हो सकेगा। तुमने अगर द्वार—दरवाजे बंद रखे, तो यह सूरज की किरण बाहर ही खड़ी
रहेगी और भीतर न आ सकेगी। सूरज की किरण जोर—जबरदस्ती से भीतर
आ भी नहीं सकती। तुम्हें सहयोग देना होगा, द्वार—दरवाजे खोलना होगा।
अब तुम पूछते हो,
'मुझे कैसे भरोसा आए कि मुझे गुरु प्राप्त हो गया?'
यह तुम्हें भरोसे का सवाल ही नहीं है। तुम्हें तो इतना ही भरोसा
लाना है कि तुम शिष्य हो गए, बस, इतना ही भरोसा आ जाए तो बात समाप्त हो गयी।
तुम्हारा काम तुम पूरा कर दो। इतनी बात तुम्हारी तुम पूरी कर दो कि तुम शिष्य हो
गए तुम्हारे शिष्य होने में ही भरोसा आ जाएगा कि गुरु मिल गया। और कोई उपाय नहीं
है। मैं और कोई प्रमाण नहीं जुटा सकता। जो भी प्रमाण जुटाऊंगा, वे व्यर्थ होंगे। उनसे कैसे भरोसा आएगा? मैं लाख
कहूं कि तुम्हें मिल गया, इससे कैसे भरोसा आएगा?
तुम शिष्य बनोगे,
उसी शिष्य बनने में कुछ रसधार बहेगी, कुछ
प्राणों में गुनगुनाहट उठेगी, कुछ मस्ती जगेगी, उसी मस्ती में प्रमाण मिलेगा कि गुरु मिल गया, अब
अकेला नहीं हूं। तुम अपने अकेलेपन में भी एकांत में जब मौन बैठोगे तब तुम पाओगे कि
कोई मौजूद है। तुम अपने भीतर भी झांकोगे तो पाओगे कोई मौजूद है। तुम्हारा हाथ किसी
के हाथ में है। चलते, उठते, बैठते जैसे
—जैसे तुम शिष्य बनते जाओगे, वैसे—वैसे तुम्हें लगता जाएगा कि गुरु साथ है। एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम तो
विसर्जित ही हो जाते हो, तुम्हारे भीतर गुरु ही विराजमान हो
जाता है।
अभी तो सिर झुकाया है,
अभी हृदय में विराजमान करना होगा। और उसी के साथ प्रमाण मिलेगा।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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