वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार
खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था,
छूटा ही था, कि कुछ घटा--कुछ अपूर्व घटा।
भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी,
और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे
मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी--वह जो सुंदर हिरणी
में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा..
वह जो बिजली जैसी कौंध गई जीवन की! अवाक रह गए। यह जीवन नष्ट करने को तो नहीं, इसी जीवन में तो परमात्मा छिपा है। यही जीवन तो परमात्मा का दूसरा नाम है, यह जीवन परमात्मा की अभिव्यक्ति है। तोड़ दिए तीर-कमान; चले थे मारने, घर नहीं लौटे--खोजने निकल पड़े परमात्मा को। जीवन की जो थोड़ी-सी झलक मिली थी, यह झलक अब झलक ही न रह जाए--यह पूर्ण साक्षात्कार कैसे बने, इसकी तलाश शुरू हुई।
बड़ी आकस्मिक घटना है! ऐसा और बार भी हुआ है, अशोक को भी ऐसा ही हुआ था। कलिंग में लाखों लोगों को काटकर जिस युद्ध में उसने विजय पाई थी, लाशों से पटे हुए युद्ध-क्षेत्र को देखकर उसके जीवन में क्रांति हो गई थी। मृत्यु का ऐसा वीभत्स नृत्य देखकर उसे अपनी मृत्यु की याद आ गई थी। यहां सभी को मर जाना है, यहां मृत्यु आने ही वाली है। और अशोक जगत से उदासीन हो गया था। रहा फिर भी महल में, रहा सम्राट, लेकिन फकीर हो गया। उस दिन से उसकी जीवन की यात्रा और हो गई। युद्ध विदा हो गए, हिंसा विदा हो गई; प्रेम का सूत्रपात हुआ। उसी प्रेम ने उसे बुद्ध के चरणों में झुकाया। वाजिद अशोक से भी ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति रहे होंगे। लाखों व्यक्तियों को काटने के बाद होश आया, तो संवेदनशीलता बहुत गहरी न रही होगी। वाजिद को होश आया, काटने के पहले। हिरणी को मारा भी नहीं था, अभी तीर छूटने को ही था--चढ़ गया था कमान पर, प्रत्यंचा खिंच गई थी, वहीं हाथ ढीले हो गए।
जीवन नष्ट करने जैसा तो नहीं; जीवन पूज्य है, क्योंकि जीवन में ही तो सारा रहस्य छिपा है। मंदिर-मस्जिदों में जो पूजा चलती है, वह जीवन की पूजा तो नहीं है। जीवन की पूजा होगी, तो तुम वृक्षों को पूजोगे, नदियों को पूजोगे, सागरों को पूजोगे, मनुष्यों को पूजोगे, जीवन को पूजोगे, जीवन की अनंत-अनंत अभिव्यक्तियों को पूजोगे। और यही अभिव्यक्तियां उसके चेहरे हैं। ये परमात्मा के भिन्न-भिन्न रंग-ढंग हैं, अलग-अलग झरोखों से वह प्रगट हुआ है।
अशोक को हत्या के बाद, भयंकर हत्या के बाद, रक्तपात के बाद मृत्यु का बोध हुआ था। मृत्यु के बोध से वह थरथरा गया था, घबड़ा गया था। उसी से उसकी सत्य की खोज शुरू हुई। वाजिद ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति मालूम होते हैं। अभी मारा भी नहीं था, लेकिन हिरणी की वह छलांग, जैसे अचानक एक पर्दा हट गया, जैसे आंख से कोई धुंध हट गई; वह छलांग तीर की तरह हृदय में चुभ गई! वह सौंदर्य, हिरणी का वह जीवंत रूप! और परमात्मा की पहली झलक मिली।
सौंदर्य परमात्मा का निकटतम द्वार है। जो सत्य को खोजने निकलते हैं, वे लंबी यात्रा पर निकले हैं। उनकी यात्रा ऐसी है, जैसे कोई अपने हाथ को सिर के पीछे से घुमाकर कान पकड़े। जो सौंदर्य को खोजते हैं, उन्हें सीधा-सीधा मिल जाता है; क्योंकि सौंदर्य अभी मौजूद है--इन हरे वृक्षों में, पक्षियों की चहचहाहट में, इस कोयल की आवाज में--सौंदर्य अभी मौजूद है! सत्य को तो खोजना पड़े। और सत्य तो कुछ बौद्धिक बात मालूम होती है, हार्दिक नहीं। सत्य का अर्थ होता है--गणित बिठाना होगा, तर्क करना होगा; और सौंदर्य तो ऐसा ही बरसा पड़ रहा है! न तर्क बिठाना है, न गणित करना है--सौंदर्य चारों तरफ उपस्थित है। धर्म को सत्य से अत्यधिक जोर देने का परिणाम यह हुआ कि धर्म दार्शनिक होकर रह गया, विचार होकर रह गया। धर्म सौंदर्य ज्यादा है। मैं भी तुमसे चाहता हूं कि तुम सौंदर्य को परखना शुरू करो। सौंदर्य को, संगीत को, काव्य को--परमात्मा के निकटतम द्वार जानो।
हिरणी का छलांग लगाना...हिरणी को छलांग लगाते देखा? उसकी छलांग में एक सौंदर्य होता है, एक अपूर्व सौंदर्य होता है! अत्यंत जीवंतता होती है! उस छलांग में त्वरा होती है, तीव्रता होती है--बिजली जैसे कौंध जाए, जीवन की बिजली जैसे कौंध जाए! हाथ तीर-कमान से छूट गए वाजिद के, यह सौंदर्य नष्ट करने जैसा तो नहीं! यह सौंदर्य विनष्ट करने जैसा तो नहीं! यह सौंदर्य ही तो पूजा का आराध्य है! झुक गए वहीं; फिर घर नहीं लौटे। जीवन में क्रांति हो गई!
कहै वाजिद पुकार
ओशो
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