मेरे प्रिय आत्मन्,
मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के
नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में, जो जमीन के
नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल में जो बिलकुल भूगर्भ में
छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहां कोई
प्रकाश नहीं है।
इस तीन मंजिल के मकान में--जो कि मनुष्य है, अधिक लोग ऊपर की मंजिल में
ही जीवन को व्यतीत कर देते हैं। उन्हें नीचे की दो मंजिलों का न तो कोई पता होता
है, न खयाल होता है। ऊपर की मंजिल बहुत छोटी है। नीचे की दो
मंजिलें बहुत बड़ी हैं। और जो अंतिम अंधेरा भवन है नीचे, वही
सबसे बड़ा है--वही आधार है सारे जीवन का।
जिस व्यक्ति को सत्य की और स्वयं की यात्रा करनी हो, उसे नीचे की दो मंजिलों में
उतरना पड़ता है। सत्य की यात्रा आकाश की तरफ की यात्रा नहीं है, बल्कि पाताल के तरफ की यात्रा है। ऊपर की तरफ नहीं--नीचे और भीतर और गहरे
उतरने का सवाल है।
जंगल में चारों तरफ हमारे वृक्ष खड़े हुए हैं। वृक्षों का एक
हिस्सा तो वे पत्ते हैं, जो सूरज के बिलकुल सामने हैं और सूरज की रोशनी से प्रकाशित हैं। वृक्ष का
दूसरा हिस्सा वे शाखाएं और पीड़ हैं, जो पत्तों के नीचे छिपी
हैं, जिन पर कहीं-कहीं सूरज की रोशनी पड़ती भी है, कहीं-कहीं नहीं भी पड़ती है। वृक्ष का तीसरा हिस्सा, वे
जड़ें हैं, जो जमीन के भीतर छिपी हैं, जिन
पर सूरज की रोशनी कभी भी नहीं पड़ती। लेकिन वृक्ष के प्राण वृक्ष की जड़ों में हैं।
और जो वृक्ष को पूरा जानना चाहता हो, उसे जड़ों को जानना ही
पड़ेगा, जो कि दिखाई नहीं पड़ती हैं, अदृश्य
हैं, छिपी हैं। जो वृक्ष के पत्तों पर ही रह जाएगा, वह वृक्ष को नहीं समझ पाएगा।
हमारे मन के भी ऐसे ही तीन हिस्से हैं। पहला हिस्सा: जिस पर
थोड़ी रोशनी पड़ती है, वह है कांशस माइंड, चेतन मन। दूसरा हिस्सा: जो उसके
नीचे दबा है, वह है सब-कांशस माइंड, अर्द्ध-चेतन
मन। और तीसरा हिस्स: जो सबसे नीचे छिपा है, वह है अनकांशस
माइंड, अचेतन मन। पहले हिस्से में थोड़ी चेतना है। दूसरे
हिस्से में और भी कम, तीसरे हिस्से में बिलकुल नहीं है। यह
मनुष्य है।
मनुष्य का जो चेतन मन है,
जो कांशस माइंड है, उसमें ही हममें से अधिक
लोग जी कर समाप्त हो जाते हैं, इसलिए जीवन को नहीं जान पाते
हैं। जीवन की जड़ें अनकांशस माइंड में, अचेतन मन में छिपी
हैं। वह अदृश्य है, वह भूमि के नीचे है। वहीं से हमारा संबंध
परमात्मा से, सत्य से, जीवन से है।
वहीं से जड़ें पृथ्वी से जुड़ी हैं। जड़ों का संबंध ही जीवन से है। हमारे अचेतन मन
में हमारी जड़ें हैं।
सत्य की जो खोज है या स्वयं की या प्रभु की, वह खोज खुद की जड़ों की खोज
है। वह जो रूट्स हैं हमारे भीतर, उनकी खोज है। वे अंधेरे में
छिपी हैं। और हम? हम वह जो छोटा सा कमरा है ऊपर जमीन के,
वहां जहां रोशनी पड़ती है, वहीं जी लेते हैं और
वहीं समाप्त हो जाते हैं।
यह जिस कमरे में थोड़ी रोशनी पड़ती है, यह जो चेतन मन है, यह जो कांशस माइंड है, यह समाज के द्वारा निर्मित
होता है। शिक्षा के द्वारा, संस्कार के द्वारा। बचपन से हम
इसे तैयार करते और बनाते हैं। और आज तक मनुष्य का यह जो कांशस माइंड है, यह जो चेतन मन है, यह बिना इस बात के खयाल के
निर्मित किया गया है कि इसके नीचे दो मन और हैं। इसलिए अक्सर इस मन को जो बातें सिखाई
जाती हैं, वे नीचे के मन के विरोध में पड़ जाती हैं, भिन्न हो जाती हैं। और तब इस ऊपर की मंजिल में और नीचे की मंजिलों में एक
विरोध, एक खिंचाव, एक तनाव शुरू हो
जाता है। आदमी खुद के भीतर डिवाइडेड हो जाता है, खुद के भीतर
विभाजित हो जाता है।
चेतन मन में जो बातें सिखाई जाती हैं, वे अचेतन मन और अर्द्ध-चेतन
मन के अगर समानांतर न हों, पैरेलल न हों, हारमनी में न हों, उनके साथ लयबद्ध न हों तो
व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। हम सबका व्यक्तित्व खंडित व्यक्तित्व है, डिसइंटीग्रेटेड। और है इसलिए कि हमारे चेतन मन को जो बातें सिखाई गई हैं,
सिखाई जाती रही हैं, उनमें हमारे पूरे
व्यक्तित्व का कोई ध्यान नहीं रखा गया है।
चेतन मन को कहा जाता है,
क्रोध मत करो। बच्चा पैदा हुआ--हम उसे सिखाना शुरू करते हैं,
क्रोध मत करो। उसके अचेतन मन में क्रोध मौजूद है। हम उसे सिखाते हैं,
क्रोध मत करो। उसका ऊपर का मन सीख लेता है, क्रोध
नहीं करना है, लेकिन भीतर क्रोध मौजूद है। ऊपर का मन कहता है,
क्रोध मत करो--भीतर का मन क्रोध के लिए धक्के देता है। हर क्षण जब
भी मौका आता है, क्रोध प्रगट होना चाहता है। भीतर का मन
क्रोध को प्रगट करना चाहता है। ऊपर का मन क्रोध को रोकना और दबाना चाहता है। एक
सप्रेशन, एक दमन शुरू हो जाता है। और तब हम दो हिस्सों में
टूट जाते हैं।
जिसे हम दबाते हैं,
वह हिस्सा अलग हो जाता है। जो दबाता है, वह
हिस्सा अलग हो जाता है। और इन दोनों में निरंतर एक द्वंद्व, एक
कानफ्लिक्ट, एक संघर्ष चलने लगता है। इसी संघर्ष में मनुष्य
टूटता और नष्ट होता है।
मनुष्य के इन तीन मनों के बीच एकता के सध जाने का नाम ही योग
है। मन के इन तीन हिस्सों के बीच हारमनी,
संगीत का पैदा हो जाना ही साधना है।
असंभव क्रांति
ओशो
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