कई के मन में यह सवाल उठता है। कई कहते
हैं कि सेवा ही धर्म है। मैं आपसे कहना चाहता हूं: सेवा धर्म नहीं है। यद्यपि
एक धार्मिक व्यक्ति सेवक होता है। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
धर्म तो सेवा है; लेकिन सेवा धर्म नहीं। क्या फर्क हो गया इतनी सी बात में? जमीन-आसमान का
फर्क हो गया। जो आदमी शांत होता है,
मौन होता है, जो आदमी प्रभु
की दिशा में प्रार्थना में लीन होता है। उसका सारा जीवन सेवा बन जाता है। लेकिन
उसे पता नहीं चलता कि मैं सेवा कर रहा हूं। दूसरी तरफ जो आदमी कहता है: मैं सेवा
कर रहा हूं। इस सेवा से न तो वह शांत होता है, न मौन होता है;
और न प्रभु से संबंधित होता है। बल्कि मैं सेवा कर रहा हूं इससे उसका मैं और
अहंकार बलिष्ट होता है और मजबूत होता है।
जाइए, सेवकों को खोजिए! और आप पाएंगे उनका अहंकार इतना मजबूत, जिसका हिसाब नहीं। सेवक भारी अहंकार से
भरा रहता है कि मैं सेवा करने वाला हूं। धर्मिक चेतना हो जाए तो जीवन सेवा बन जाता
है, आनायास, आकस्मिक, सहज। लेकिन तब सेवा अहंकार की पूर्ति नहीं
करती।
लेकिन कोई कहता है: हम सेवा कर-कर के ही, गरीब का पैर दाब कर, कोढ़ी की सेवा करके, सड़क झाड़ कर, हम सेवा कर-कर के परमात्मा को पा लेंगे।
तो मैं आपको निश्चित कहता हूं: कोई
परमात्मा को पाने का द्वार सेवा से नहीं जाता। सेवा एक नई तरह की अस्मिता और
अहंकारपूर्ण ईगो को भर मजबूत करती है। और इस चेष्टा में जो सेवा की जाती है वह
अक्सर गैर-जरूरी, कृत्रिम, अनावश्यक और कई बार जिसकी हम सेवा करते
हैं उसके लिए भी खतरनाक हो जाती है।
एक घटना मुझे स्मरण आती है। एक स्कूल में
एक पादरी ने जाकर एक दिन सेवा का उपदेश दिया। उसने बच्चों को समझाया कि सेवा करो।
क्योंकि सर्विस, सेवा ही सच्चा
धर्म है। रोज एक न एक सेवा करनी ही चाहिए। बिना सेवा किये भोजन नहीं खाना चाहिए।
बिना सेवा किए चैन से सोना नहीं चाहिए। अगर तुम सेवा नहीं करते तो तुम कभी अच्छे
आदमी नहीं बन सकते हो।
उन बच्चों ने पूछा: मतलब? कैसी सेवा? क्या करें?
उसने कहा: जैसे, जैसे कोई नदी में डूबता हो, तो उसको बचाना चाहिए। किसी के घर में आग
लगी हो, तो दौड़ कर बुझाना
चाहिए। कोई बूढ़ा, कोई बूढ़ी
रास्ता पार होता हो, न होता हो
उससे बनते, तो हाथ पकड़ कर
रास्ता पार कराना चाहिए।
छोटे-छोटे बच्चे थे।
उन्होंने कहा: अच्छी बात है। हम कोशिश
करेंगे। सात दिन बात वह पादरी फिर वापस आया।
उसने बच्चों से पूछा: तुमने कोई सेवा का
काम किया? कोई एक्ट ऑफ
सर्विस? तीन बच्चों ने हाथ ऊपर
उठाए कि हमने किया।
उसने कहा: कोई हर्ज नहीं। आज तीन ने किया, कल तीस करेंगे। मैं बहुत खुश हूं। बेटे
तुम खड़े होओ। बताओ, तुमने क्या
सेवा की?
पहले लड़के से पूछा: तुमने क्या सेवा की?
उसने कहाः मैंने एक बूढ़ी औरत को सड़क पार
करवाई।
पादरी ने कहाः बहुत अच्छा किया। हमेशा
सेवा का काम करो। उससे तुम्हारे जीवन में बड़ा, बड़ा सत्य का अवतरण होगा। प्रभु का सान्निध्य मिलेगा। बैठ
जाओ।
दूसरे से पूछा कि बेटे तुमने क्या किया।
उसने कहा कि मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क
पार करवाई।
तब जरा पादरी को शक हुआ। इसने भी बूढ़ी औरत
पार करवाई। फिर भी हो सकता है। क्योंकि बूढ़ी औरतों की कोई कमी तो है नहीं। करवा दी
होगी। सड़कें भी बहुत, बूढ़ी औरतें भी
बहुत, पार भी बहुत करती हैं। ऐसी क्या
हैरानी की बात। संयोग की बात होगी।
उसको भी कहा: अच्छा बेटा, बहुत अच्छा किया।
तीसरे से पूछा: तुमने क्या किया?
उसने कहा: मैंने भी एक बूढ़ी औरत पार
करवाई।
उसने कहा: बड़ी हैरानी हो गई। तुम तीनों को
तीन बूढियां मिल गईं।
उन्होंने कहा: तीन कहां साहब! एक ही बूढ़ी
थी। उसी को हम तीनों ने पार करवाया।
एक ही बूढ़ी थी! तो क्या बहुत बिलकुल मरने
के करीब थी कि तुम तीन की जरूरत पड़ी ले जाने को?
उन्होंने कहा कि नहीं, मरने के करीब नहीं। बूढ़ी बड़ी ताकतवर थी।
वह उस तरफ जाना ही नहीं चाहती थी। हम तो बामुश्किल से पार करवा लाए। वह तो बिलकुल
इंकार करती थी कि हमको जाना ही नहीं उस तरफ। लेकिन आपने कहा था: कोई एक्ट ऑफ
सर्विस। कोई सेवा का काम बिना किए भोजन नहीं। अब हमको भूख लग रही थी। हमको भूख... हमको
भोजन करना था और सेवा का काम हुआ नहीं। मकान में आग लगाएं, झंझट हो जाए! नदी में किसी को डुबाएं, मुश्किल हो जाए! हमने कहा: इस बूढ़ी को पार करवा
दें। हमने पार करवा दिया। बिलकुल पूरा पार करवा दिया। उस तरफ जाकर छोड़ा। अब वह फिर
से लौट गई हो तो भगवान जाने!
सेवा को जो धर्म समझ लेते हैं उनकी सब
सेवा खतरनाक हो सकती है। फिर उन्हें इसकी फिकर नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।
इसकी फिकर है कि मेरा धर्म, मेरा पुण्य
कैसे अर्जित हो रहा है? सेवक अक्सर
मिस्चिफ मेकर साबित होते हैं। बहुत उत्पात,
उपद्रव खड़ा करवा लेते हैं। अगर दुनिया में सेवक और समाज सुधारकों की संख्या कम
रही होती तो शायद समाज पहले से बहुत बेहतर होता। लेकिन वे अपनी धुन में लगे हैं, उनको समाज बदल के दिखा देना है। उनको सेवा
करके दिखा देनी है। और वे इतने पागल हैं इसमें, कि यह कभी पूछते ही नहीं, कि मेरा मन शांत नहीं है।
शांत मन जो नहीं है: उससे निकली हुई सेवा
जहरीली हो जाएगी। पहली बात है कि मन अत्यंत शांत हो। तो शांत मन से जो भी कृत्य
होता है, वह मंगलदायी
होता है। अशांत मन से कोई भी कृत्य मंगलदायी नहीं होता। अशांत आदमी राजनीति में
होगा तो मुश्किल खड़ी करेगा, अशांत आदमी
सेवा करेगा तो मुश्किल खड़ी करेगा,
अशांत आदमी साधु हो जाएगा तो मुश्किल खड़ी करेगा।
यह साधु-सेवा या राजनीति का सवाल नहीं। यह
अशांत मन का अनिवार्य कारण है कि उससे,
उससे उपद्रव होगा। इसलिए मैं कहता हूं कि सेवा की फिकर मत करें। शांत होना
पहली बात है, सेवा तो उसके
पीछे छाया की तरह आती है।
धर्म की यात्रा
ओशो
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