मेरे पास बहुत लोग आते हैं। उनमें अनेक कृष्णमूर्ति के भक्त
हैं। वे मुझसे आ कर कहते हैं कि हम वर्षों से सुनते हैं; जो सुनते हैं वह शत—प्रतिशत ठीक भी मालूम होता है, उसमें हमें कुछ संदेह
नहीं है। जो कृष्णमूर्ति कहते हैं, उसे हमने समझ भी लिया है।
हम नहीं समझे, ऐसा भी नहीं है। लेकिन फिर भी जीवन में कोई
क्रांति नहीं घटती। बौद्धिक रूप से सब समझ में आ गया है। बुद्धि भर गई है, लेकिन आत्मा रिक्त की रिक्त रह गई है। ऊपर—ऊपर सब
जान लिया और भीतर— भीतर हम वैसे के वैसे हैं; भीतर कोई घटना नहीं घटी। अछूते के अछूते रह गए हैं। वर्षा हो गयी है,
घड़ा खाली रह गया है।
बड़ी अड़चन में पड़ जाता है व्यक्ति, जब उसे बौद्धिक रूप से सब समझ में आ जाता है और
अस्तित्वगत कोई समानांतर घटना नहीं घटती। तुम्हें उसकी दुविधा का अंदाज नहीं। उसे
दिखाई पड़ता है कि दरवाजा कहा है, लेकिन निकलता दीवाल से है।
जिसको दरवाजा नहीं दिखाई पड़ता, वह भी दीवाल से निकलता है;
लेकिन उसे दरवाजा दिखाई ही नहीं पड़ता, इसलिए
शिकायत किससे?
जिस आदमी को खयाल है कि मुझे दरवाजा दिखाई पड़ता है, समझ आ गया है कि कहां है,
लेकिन फिर भी मैं दीवाल से सिर तोड़ता हूँ—तुम
उसकी पीड़ा समझो। जब भी उसका सिर टूटता है, वह महाविषाद से भर
जाता है कि मुझे मालूम तो है कि ठीक क्या है, फिर मैं गलत
क्यों करता हूं? मुझे मालूम तो है कि कहां जाना चाहिए,
फिर मैं विपरीत क्यों जाता हूं?
सब मालूम है उसे और कुछ भी मालूम नहीं। तो उसके भीतर सीखने की
क्षमता भी खो जाती है। उसमें शिष्यत्व का भाव भी खो जाता है, क्योंकि उसे मालूम तो सब है;
अब सीखने को और क्या है? उसकी विनम्रता भी खो
जाती है। और भीतर की पीड़ा सघन होती चली जाती है। उसमें कोई अंतर पड़ता नहीं।
ऐसा ही समझो कि तुम दवाइयां इकट्ठी करते चले जाओ, इससे तो तुम्हारी बीमारी
समाप्त न होगी। पीयोगे तब समाप्त होगी। तुम डाक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन
इकट्ठे कर के फाइलें बना लो। उन 'प्रिसक्रिपानों'
से तो कुछ परिणाम न होगा, जब तक उन प्रिस्क्रिप्शन के अनुसार जीवन न बनेगा। लेकिन
दवाइयों का ढेर तुम्हें एक भ्रांति दे सकता है कि सब दवाइयां तो मेरे पास हैं,
पूरी केमिस्ट की दूकान तो उठा लाया, अब और
क्या है, अब कहां जाऊं? किससे पूछूं?
अब तो पूछने को भी कुछ नहीं बचा।
तो एक दंभ पैदा होता है। बुद्धि की थोथी समझ से एक अहंकार, एक अस्मिता जगती है कि मैं
जानता हूं और भीतर एक पीड़ा भी होती है कि मुझे कुछ भी तो पता नहीं, क्योंकि कुछ हो तो नहीं रहा है।
हो, तो ही कसौटी है। तुम्हारा जीवन बदले किसी सत्य से, तो
ही सत्य तुम्हारे पास है। अगर जीवन न बदले तो सत्य तुम्हारे पास नहीं है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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