मेरे पास दो ढंग से हो सकते हो। एक तो विचार से, बुद्धि से, और एक हृदय से और भाव से। बुद्धि और विचार से अगर मेरे पास हो, तो बड़ी अड़चन होगी। रोज—रोज विरोधी वक्तव्य होंगे।
रोज—रोज तुम्हें सुलझाना पड़ेगा, फिर भी
तुम सुलझा न पाओगे।
बुद्धि कभी कुछ सुलझा ही नहीं पाती। जहां सीधी—सीधी बात हो, वहा भी बुद्धि उलझा लेती है। तो मेरी बातें तो बड़ी उलझी हैं। जहा सब साफ—सुथरा हो, वहा भी बुद्धि समस्याएं खड़ी कर लेती है।
तो मैं तो उन रास्तों की बात कर रहा हूं जो बड़े धुंधलके से भरे हैं। एक ही रास्ते
की बात हो, तो भी बुद्धि विरोध खोज लेती है। ये तो अनंत
रास्तों की बातें हैं।
विरोध ही विरोध मिलेगा। ऐसा मैंने कोई
वक्तव्य ही नहीं दिया है जिसका हजार बार खंडन न किया हो। तो यदि बुद्धि से मेरे
पास हो, तो दो
ही उपाय हैं। या तो तुम पागल हो जाओगे, बुद्धि को छोड़ दोगे,
या भाग जाओगे।
बुद्धि को बचाना है,
तो मुझे छोड़ना पड़े। मुझे बचाना है, तो बुद्धि
छोड़नी पड़े। और कोई सौदा, और कोई समझौता नहीं हो सकता। इसलिए
बहुत से बुद्धिवादी मेरे पास आते हैं, हट जाते हैं। उनको
अपनी बुद्धि ज्यादा मूल्यवान मालूम होती है। वह उनका निर्णय।
उन्हें मैं बहुत बुद्धिमान नहीं कहता। क्योंकि वे उसी बुद्धि को
पकड़ रहे हैं जिस बुद्धि से कुछ भी नहीं पाया। इधर मैंने एक मौका दिया था
निर्बुद्धि होने का। एक द्वार खोला था—अंजान, अपरिचित। हिम्मत होती और दो कदम चल लेते,
तो कुछ पा जाते। कोई झलक मिलती, कोई जीवन का
स्वाद उतरता। लेकिन घबड़ाकर उन्होंने अपनी बुद्धि की पोटली बांध ली। भाग खड़े हुए।
उसी को बचा लिया जिसके सहारे कुछ भी नहीं पाया था। इसलिए मै उन्हें बहुत बुद्धिमान
नहीं कहता।
जो सच में बुद्धिमान है,
उन्हें मेरी बातों में विरोधाभास दिखायी पड़ेंगे, तो भी मेरी बातों का रस विरोधाभासों के बावजूद उनके हृदय को आंदोलित करता
रहेगा। एक न एक दिन हिम्मत करके वे अंधेरे में मेरे साथ कदम उठाकर देखेंगे। उसी
दिन उनके भीतर क्रांति हो जाएगी। उनकी चेतना की धारा बुद्धि से छिटककर हृदय के
मार्ग पर बहने लगेगी। वही एकमात्र क्रांति है।
तो जो बुद्धि से मेरे पास आए हैं, या तो रुकना है तो बुद्धि खोनी पड़ेगी। वही
मूल्य चुकाना पड़ेगा। अपनी बुद्धि बचानी है, तो मुझे खोना
पड़ेगा। फिर तुम्हारी मर्जी। दूसरा जो वर्ग है, जो हृदय के
कारण मेरे पास आया है। जो मुझे सुनकर नहीं, मुझे सोचकर नहीं,
मुझे देखकर, मुझे अनुभव कर मेरे पास आया है;
जिसने धीरे—धीरे मेरे साथ एक प्रेम का नाता
बनाया है—वह नाता बौद्धिक नहीं है। उस नाते में, मैं क्या कहता हूं? कुछ लेना—देना
नहीं है। मेरी मान्यताएं क्या हैं, उनका कोई विचार नहीं है।
मैं क्या हूं, वही मूल्यवान है—उनके
ऊपर मैं कितने ही विरोधी वक्तव्य देता चला जाऊं, कोई अंतर न
पड़ेगा। उन्होंने अपने भीतर से जो मेरा साथ जोड़ा है, वह
अविरोध का है, हृदय का है।
बुद्धि सोचती है,
कौन सी बात ठीक, कौन सी बात गलत। बुद्धि सोचती
है, कौन सी बात किस बात के विपरीत पड़ रही है। बुद्धि सोचती
है, कल मैंने क्या कहा था, आज मैं क्या
कह रहा हूं। बुद्धि हिसाब रखती है। हृदय तो क्षण— क्षण जीता
है। अतीत को जोड़कर नहीं चलता। मैंने कल क्या कहा था, उससे प्रयोजन
नहीं है। मैं कल क्या था, उससे प्रयोजन है। और जो मैं कल था,
वही मैं आज हूं। मेरे वक्तव्य बदलते जाएं, मेरे
शब्द बदलते जाएं, मेरा शून्य वही का वही है।
कभी मैंने तुमसे मंदिर में जाकर प्रार्थना करने को कहा है; कभी सब मुर्तियों को छोड़कर
, त्यागकर, मस्जिद में नमाज पढ्ने को
कहा है, कभी भगवान के रस में डूबकर नाचने को कहा है, मदमस्त होने को कहा है; कभी, भगवान
है ही नहीं, सब सहारे छोड़ देने को, आत्मखोज
के लिए कहा है।
स्वभावत: ये वक्तव्य विरोधी हैं। लेकिन इन सब विरोधों के भीतर मैं हूं। जिसने तुमसे
पूजा के लिए कहा था, उसी ने तुमसे पूजा छोड़ने को कहा है। और
जिस लिए तुमसे पूजा करने को कहा था, उसी लिए तुमको पूजा
छोड़ने को कहा है। मैं वही हूं और मेरा प्रयोजन वही है।
अगर तुमने प्रेम से मुझसे संबंध जोड़ा, तो तुम देख पाओगे। तुम्हें
यह स्पष्ट होगा। तब तुम जन्मों—जन्मों मेरे साथ रहो और
तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न 'न उठेगा। यह शुभ है। यह
महिमापूर्ण है। प्रेम ने कभी कोई प्रश्न जाना ही नहीं। हा, कभी
जिज्ञासा उठ सकती है। जिज्ञासा बड़ी और बात है।
ऐस धम्मो सनंतनो
ओशो
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