वस्तुत: बुद्धि का स्वभाव नकार है। इसे समझ लें,ठीक से। बुद्धि का स्वभाव
निगेटिव है, नकारात्मक हे। जब बुद्धि कहती है नहीं—तभी होती है। ओर जब आप कहते है हां, तब बुद्धि
विसर्जित हो जाती है, ह्रदय होता है। जब भी आपके भीतर से ‘’हां’’ होती है, यस होता है,
तब ह्रदय होता है। और जब नहीं होती है, ‘’नो’’
तब बुद्धि होती है। इसलिए जो व्यक्ति जीवन को पूरी तरह ‘’हां’’ कह सकता है, वह आस्तिक
है; और जो व्यक्ति ‘’नहीं’’ पर जोर दिये चला जाता है, वह नास्तिक है।
नास्तिक होने से कोई संबंध नहीं कि वह ईश्वर को अस्वीकार
करता है या नहीं करता। नास्तिक होने का अर्थ है कि ‘’नहीं’’ उसके जीवन की व्यवस्था है; ‘’न’’ कहना उसका सुख है, हां कहने में उसे अड़चन है,
कठिनाई है।
इसलिए आप देखते है जैसे ही बच्चे में बुद्धि आनी शुरू होती है
वह इंकार करना शुरू कर देता है। जैसे ही बच्चा जवान होने लगता है, उसकी अपनी बुद्धि चलने लगती
है, उसे ‘’न’’ कहने
में रस आने लगता है, ‘’हां’’ कहना
मजबूरी मालूम पड़ती है।
बुद्धि का स्वभाव संदेह है, ह्रदय का स्वभाव श्रद्धा है। तो कुछ लोग है
जिनको तर्क की ही कुल जमा बेचैनी है, पक्ष में या विपक्ष
में। और कोई अंतर नही पड़ता, जो तर्क पक्ष में है वहीं
विपक्ष में हो सकता है। तर्क वेश्या है। वह कोई गृहिणी नहीं है, कोई पत्नी नहीं है; किसी एक पति से उसका संबंध नहीं
जो उसे पैसे दे, उसी के साथ है।
तर्क वेश्या है। इस लिए महावीर, बुद्ध या कृष्ण जैसे लोगों की उत्सुकता तर्क
में नहीं है। और मैंने कहा कि उनकी उत्सुकता काव्य में भी नहीं है। क्योंकि
काव्य तो आखिरी फूल है। जब कोई व्यक्ति समाधि को उपलब्ध होता है, तो उसके जो गीत की स्फुरण होती है। वह जो संगीत उससे बहने लगता है। जिससे
उठने बैठने में काव्य आ जाता है। वह अंतिम चीज है। उसका रस लिया जा सकता है। वह
जो संगीत उससे बहने लगता है। जो उस जगह तक पहुंच गया है। साध के लिए उसका कोई मूल्य
नहीं है। खतरा है।
महावीर वाणी
ओशो
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