संसार, जिसे छोड़ने को सारे संत कहते रहते हैं, बाहर नहीं है,
जिसे छोड़कर कोई भाग सके। संसार मन का ही खेल है, और भीतर है। और बाहर तुम कितने ही भागो, कोई फर्क न पड़ेगा;
क्योंकि संसार तुम अपना अपने भीतर ही लिए फिरते हो।
संसार जीवन को देखने का तुम्हारा ढंग है। ज्ञानी यहीं पत्थरों में
छिपे परमात्मा को देख लेता है;
तुम चारों तरफ मौजूद परमात्मा में केवल पत्थर को देख पाते हो। देखने
की बात है। दृष्टि की ही सारी बात है। तुम वही देखते हो, जो तुम्हारे
मन की धारणाएं हैं। तुम वही नहीं देखते, जो है।
पूर्णिमा की रात हो और तुम उदास हो, तो नाचता—गाता चांद भी उदास मालूम पड़ता है। अमावस की रात हो, आकाश
में बादल घिरे हों, सब उदास और खिन्न मालूम पड़ता हो; लेकिन तुम प्रसन्न हो, तुम आनंदमग्न हो, तो अमावस भी पूर्णिमा मालूम पड़ती है, अंधेरा भी ज्योतिर्मय
हो जाता है; आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट सुमधुर नाद मालूम होती
है।
तुम जो हो, उसे ही तुम फैलाकर बाहर देखते हो!
धन में कुछ भी नहीं है;
तुम्हारे मन में ही सब छिपा है। तुम्हारा मन जो लोभ से भरा हो,
तो संसार में सब जगह तुम्हें धन ही धन दिखाई पड़ता है—ऐसे ही जैसे उपवास किया हो तुमने किसी दिन और तुम बाजार गए, तो कपड़े की दुकानें, जूते की दुकानें उस दिन दिखाई नहीं
पड़तीं; उस दिन सिर्फ मिठाई मिष्ठान्न के भंडार दिखाई पड़ते हैं;
सब तरफ से भोजन की ही गंध मालूम पड़ती है; सब ओर
भोजन का ही निमंत्रण दिखाई पड़ता है। तुम भरे पेट हो, तब यही बाजार
बदल जाता है।
तुम जैसे हो वैसा ही तुम अपने चारों तरफ एक संसार निर्मित करते हो।
इसलिए संसार एक नहीं है; संसार उतने ही हैं, जितने मन हैं। हर व्यक्ति का अपना
संसार है, जो अपने चारों तरफ लपेटे हुए घूमता है। और जब तक तुम
यह न समझोगे, तब तक तुम कभी भी संन्यासी न हो सकोगे। क्योंकि
तुम उस संसार को छोड़ोगे, जो बाहर है; और
तुम उस संसार को पकड़े ही रहोगे, जो भीतर है। और बाहर संसार है
ही नहीं, बस भीतर है। तो तुम संन्यासी का संसार बना लोगे,
कोई भेद न पड़ेगा। हिमालय की गुफा में भी बैठ जाओगे, तो तुम तुम ही रहोगे। और तुम अगर तुम ही हो, तो गुफा
क्या करेगी, पहाड़—पर्वत क्या करेंगे?
तुम वहां भी धीरे—धीरे अपनी दुनिया फिर से सजा
लोगे। तुम्हारे भीतर ब्लू—प्रिंट है, नक्शा
छिपा है कि कैसे संसार बनाना है। उस संसार को बनाने के लिए अगर कोई भी सामग्री न हो,
तो भी तुम बना लोगे।
तुमने ऋषि—मुनियों की कहानियां पढ़ी हैं कि इंद्र अप्सराओं को भेजता है उन्हें डिगाने
को। तुम इस भ्रांति में मत पड़ना। न तो कहीं कोई इंद्र है, और
न कहीं कोई परमात्मा ने ऋषि—मुनियों को डिगाने का इंतजाम कर रखा
है। क्यों करेगा परमात्मा किसी को डिगाने का इंतजाम? परमात्मा
तो चाहता है कि तुम थिर हो जाओ। तो कोई भी डिपार्टमेंट नहीं है, जहां ऋषि—मुनियों को हिलाने की कोशिश की जा रही है। ऋषि—मुनि खुद ही हिल रहे हैं। ऋषि—मुनि उसी अवस्था में हैं,
जिसकी मनोवैज्ञानिक चर्चा कर रहे हैं। उन्होंने खुद ही अपने चारों तरफ
सब संसार बाहर का छोड़ दिया है, अपनी गुफा में बैठ गए हैं,
अब धीरे—धीरे मन खेल पैदा कर रहा है। अब कोई जरूरत
ही नहीं है। अब बाहर की स्त्री नहीं चाहिए, जिस पर तुम प्रक्षेपण
करो; अब शून्य आकाश में भी तुम्हारा प्रक्षेपण होने लगा। अब तुम
अप्सराओं को देख रहे हो! धन के अंबार लगे हैं! तुम सोचते हो, कोई प्रलोभन दे रहा है; तुम्हारा मन ही...। कोई और तुम्हें
डिगाने को नहीं है।
यह तो पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि संसार भीतर है; अन्यथा तुम वही भूल करोगे,
जो संसारी कर रहा है। संसारी भी सोचता है कि संसार बाहर है, और संन्यासी भी सोचता है कि संसार बाहर है—तो दोनों के
ज्ञान में फर्क क्या? तो दोनों की समझ में कौन सा बुनियादी रूपांतरण
हुआ? संसारी भी धन बाहर देखता है और संन्यासी भी धन बाहर देखता
है—तो दोनों एक ही तल पर हैं; कोई क्रांति
घटित नहीं हुई; कोई बोध नहीं जगा; कोई ध्यान
का आविर्भाव नहीं हुआ।
सुनो भई साधो
ओशो
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