पूछा है कृष्ण प्रिया ने।
जहां तक कृष्ण प्रिया को मैं समझता हूं इसमें कुछ गलतियां हैं
प्रश्न में, वह
ठीक कर दूं।
कहा है, 'मेरे मन में कभी—कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह उठता
है।'
ऐसा मुझे नहीं लगता। मुझे तो लगता है, विद्रोह स्थायीभाव है। कभी—कभी शायद मेरे प्रति प्रेम उमड़ता हो। लेकिन कभी—कभी
विद्रोह उमड़ता है, यह बात सच नहीं है। विद्रोह तुम्हारी
स्थायी दशा है। और वह जो कभी—कभी प्रेम उमड़ता है, वह इतना न्यून है कि उसके होने न होने से कुछ बहुत फर्क पड़ता नहीं।
और कृष्णप्रिया की दशा कुत्ते की पूंछ जैसी है। रखो बारह साल
पोंगरी में, जब
पोगरी निकालो, फिर तिरछी की तिरछी। कभी—कभी मुझे भी लगता है कि शायद कृष्णप्रिया के संबंध में मुझे भी निराश होना
पड़ेगा—होऊंगा नहीं, वैसी मेरी आदत नहीं
है—लेकिन कृष्णप्रिया के ढंग देखकर कभी—कभी मुझे भी लगने लगता है कि यह पूंछ सीधी होगी? यह
भी मुझे खयाल आता है कि कृष्णप्रिया यह पूंछ तिरछी रहे, इसमें
मजा भी ले रही है। इससे विशिष्ट हो जाती है। इससे लगता है—कुछ
खास है, औरों जैसी नहीं है। खास होने के लिए कोई और अच्छा
ढंग चुके। यह भी कोई खास होने का ढंग!
राबर्ट रिप्ले ने बहुत सी घटनाएं इकट्ठी की हैं सारी दुनिया से।
उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताबों की सीरीज है. बिलीव इट आर नाट, मानो या न मानो। उसने सब
ऐसी बातें इकट्ठी की हैं जिनको कि तुम पहली दफा सुनकर कहोगे, मानने योग्य नहीं। मगर मानना पड़ेगी, क्योंकि वह तथ्य
है। उसने एक आदमी का उल्लेख किया है जो सारे अमरीका में अपनी छाती के सामने एक
आईना रखकर उलटा चला। कारण! बड़ी मेहनत का काम था उलटा चलना। पूरा अमरीका उलटा चला।
कारण जब पूछा गया तो उसने कहा कि मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं। वह प्रसिद्ध हो भी
गया।
एक आदमी प्रसिद्ध होना चाहता था, तो उसने अपने आधे बाल काट डाले, एक तरफ के बाल काट डाले, आधी खोपड़ी साफ कर ली और घूम
गया न्यूयार्क में। तीन दिन घूमता रहा, अखबारों में खबरें छप
गयीं, टेलीविजन पर आ गया, पत्रकार उसके
पीछे आने लगे कि भई, यह बात क्या है? और
वह चुप्पी रखता था। तीन दिन बाद वह बोला कि मुझे प्रसिद्ध होना था।
मगर ऐसे अगर प्रसिद्ध भी हो गए तो सार क्या? यह कोई बड़ी सृजनात्मक बात
तो न हुई!
ऐसा लगता है कि कृष्णप्रिया सोचती है कि इस तरह की बातें करने
से कुछ विशिष्ट हुई जा रही है। यहां विशिष्ट होने के हजार उपाय तुम्हें दे रहा हूं—ध्यान से विशिष्ट हो जाओ,
प्रेम से विशिष्ट हो जाओ, प्रार्थना से
विशिष्ट हो जाओ। कुछ सृजनात्मक करो, विशिष्टता ही का कोई
मूल्य नहीं होता। नहीं तो मूढ़ता से भी आदमी विशिष्ट हो जाता है।
जाओ, रास्ते पर जाकर शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाओ, विशिष्ट
हो गए। पूना हेराल्ड का पत्रकार पहुंच जाएगा, फोटो ले लेगा।
नंगे घूमने लगो, प्रसिद्ध हो जाओगे। मगर उससे तुम्हारी आत्मा
को क्या लाभ होगा? कहां तुम्हारा विकास होगा? कई बार ऐसा हो जाता है कि हम गलत उपाय चुन लेते हैं विशिष्ट होने के,
रुग्ण उपाय चुन लेते हैं। कृष्णप्रिया ने रुग्ण उपाय चुने हुए हैं।
वैसे मैं यह नहीं कहता कि अगर इसमें ही तुम्हें आनंद आ रहा हो
तो बदलो। मैं किसी के आनंद में दखल देता ही नहीं। अगर इसमें ही आनंद आ रहा है, तुम्हारी मर्जी! मेरे
आशीर्वाद। इसको ऐसा ही जारी रखो।
तुम कहती हो कि 'मैं छोटी—मोटी निंदा आपकी कर बैठती हूं।'
फिर छोटी—मोटी क्या करनी! फिर ठीक से ही करो। जब मजा ही लेना हो, तो छोटा—मोटा क्या करना! जब चोरी ही करनी हो,
तो फिर कौड़ियों की क्या करनी! फिर ठीक से निंदा करो। फिर दिल खोलकर
निंदा करो और मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है इसलिए चिंता की कोई जरूरत नहीं है।
और गया कि की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं।'
वह किसी डरे हुए गुरु ने कहा होगा, मैं नहीं कहता। मैं तो कहता
हूं, फिक्र छोड़ो, ठौर मैं हूं
तुम्हारी। तुम करो निंदा जितनी तुम्हें करनी हो, मैं तुम पर
नाराज नहीं हूं, और कभी नाराज नहीं होऊंगा। अगर तुम्हें इसी
में मजा आ रहा है, अगर यही तुम्हारा स्वभाव है, अगर यही तुम्हारी सहजता है कि इससे ही तुम्हें कुछ मिलता मालूम पड़ता है,
तो मैं बाधा न बनूंगा; फिकर छोड़ो कि गुरु की
निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, मैं
हूं ठौर तुम्हारा। तुम्हें जितनी निंदा करनी हो, करो। वह
जिन्होंने कहा होगा, कमजोर गुरु रहे होंगे। निंदा से डरते
रहे होंगे। मेरी निंदा से मुझे कोई भय नहीं है। तुम्हारी निंदा से मेरा कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। और पराए तो मेरी निंदा करते ही हैं, अपने करेंगे तो कम से कम थोड़ी कुशलता से करेंगे—यह
भी आशा रखी जा सकती है। करो!
मगर एक बात खयाल रखना,
इससे तुम्हारा विकास नहीं होता है। इसलिए मुझे दया आती है। इससे
तुम्हें कोई गति नहीं मिलती। मेरी निंदा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? इस पर ध्यान करो। थोड़े स्वार्थी बनो। थोडी अपनी तो सोचो कि मुझे क्या लाभ
होगा? यह समय मेरा व्यर्थ जाएगा। अब कृष्णप्रिया यहां वर्षों
से है, और मैं समझता हूं वह यहां न होती तो कुछ हानि नहीं थी—कुछ लाभ उसे हुआ नहीं, व्यर्थ ही यहां है; यहां होने न होने से कुछ मतलब नहीं है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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