मैंने सुना है, एक रूसी कथा है। एक कौवा बडी तेजी से उड़ता
जा रहा था।
एक कोयल ने उसे देखा और पूछा, चाचा, कहा जा रहे हो?
पूरब को जा रहा हूं यहां मेरा रहना दूभर हो गया है, कौवे ने कहा। कोयल ने पूछा, क्यों? कौवे ने कहा,
यहां मेरे गायन पर सभी को एतराज है। मैं गाता नहीं, मैंने शुरू गाना नहीं किया कि लोग एतराज
करने लगते हैं कि अरे बंद करो,
बकवास बंद करो, काव—काव बंद करो! यहां गाने की स्वतंत्रता
नहीं और सब को मेरे गाने पर एतराज है। कोयल ने पूछा, लेकिन जाने मात्र से तो तुम्हारी समस्या हल नहीं होगी। पूरब
जाने से क्या होगा! कौवे ने कहा,
क्यों? कौवे ने
साश्चर्य पूछा। इसलिए कि जब तक तुम अपनी आवाज नहीं बदलते, पूरब वाले भी तुम्हारे गाने पर एतराज
उठाएंगे। पूरब वाले भी तुम्हारे गाने को इसी तरह नापसंद करेंगे। कुछ फर्क न पड़ेगा।
तुम्हारी आवाज, तुम्हारा कंठ
बदलना चाहिए।
परिस्थिति बदलने से कुछ नहीं होता, मनःस्थिति बदलनी चाहिए। एक आदमी गृहस्थ था, गृहस्थी से अभी मुक्त तो मन न हुआ था
लेकिन संन्यस्त हो गया, अब वह
संन्यस्त होकर नयी गृहस्थी बसाका। एक आदमी के बेटे —बेटी थे,
उनसे छूट गया तो शिष्य—शिष्याओं से
उतना ही मोह लगा लेगा, कोई फर्क न
पड़ेगा।
मेरे एक मित्र हैं। उनको मकान बनाने का
बड़ा शौक है। अपना ही मकान बनवाते हैं ऐसा नहीं, मित्रों के भी मकान बनवाते हैं, वहां भी छाता लिये खड़े रहते थे। धूप हो, वर्षा हो, मगर वह खड़े हैं,
उनको मकान बनाने में बड़ा रस। और बड़े कुशल हैं—सस्ते में बनाते हैं,
ढंग का बनाते हैं। और शौक से बनाते हैं तो कुछ पैसा भी नहीं लेते
फिर वह संन्यासी हो गये। आठ—दस साल संन्यासी रहे। एक दफे मैं उनके पास
से गुजरता था तो मैंने कहा जाकर देखूं। मैंने सोचा तो कि लिये होंगे छाता! खड़े
होंगे! बड़ा हैरान हुआ, जब मैं पहुंचा
वह छाता ही लिये खड़े थे—आश्रम बनवा
रहे थे। मैंने उनसे पूछा, फर्क क्या हुआ? उधर तुम अपना मकान बनवाते थे, मित्रों के मकान बनवाते थे, इधर तुम आश्रम बनवा रहे हो। छाता वही का
वही है, छाते के नीचे धूप में
तुम वही के वही खड़े हुए हो। फर्क कहा हुआ?
मकान के लिए उतनी चिंता रखते थे,
उतनी अब आश्रम की चिंता हो गयी,
चिंता कहा गयी!
कोयल ने ठीक कहा कि चाचा, पूरब जाने से कुछ भी न होगा। लोग वहां भी
तुम्हारी काव—काव पर इतना
ही एतराज उठाएंगे।
हम धर्म के नाम पर ऊपर—ऊपर से बदलाहटें कर लेते हैं, और भीतर का मन वही का वही। वह भीतर का मन
फिर—फिर करके अपने पुराने
जाल लौटा लाता है। महात्मा हैं,
मगर राजनीति पूरी चलती है। महात्माओं में बड़ी राजनीति चलती है। हालाकि धर्म के
नाम पर चलती है। जहर तो राजनीति का,
उसके ऊपर धर्म की थोड़ी सी मिठास चढ़ा दी जाती है, बस इतना ही। और यह और भी खतरनाक राजनीति है।
ईश्वर के खोजी संसार में इसलिए कम हैं कि
ईश्वर के झूठे खोजी बहुत ज्यादा हैं। और ईश्वर के झूठे खोजी होने में बड़ी सुगमता
है—कुछ बदलना नहीं पड़ता
और बदलने का मजा आ जाता है, धार्मिक होना
नहीं पड़ता और धार्मिक होने का रस और अहंकार।
कच्चे लोग वृक्षों से तोड़ लिये गये हैं—कच्चे फल, पके नहीं थे,
पकने का मौका नहीं मिला था। मैं तुमसे कहता हुं नास्तिक रहना अगर नास्तिकता
अभी तुम्हारे लिए स्वाभाविक मालूम पडती हो,
अभी आस्तिक होने की जरूरत नहीं,
फिर अभी घड़ी नहीं आयी, जल्दी क्या है? अभी कच्चे हो, पको। जिस दिन नास्तिकता अपनी ही समझ से
गिर जाए और जीवन में स्वीकार का भाव उठे,
उसी दिन आस्तिक बनना, उसके पहले मत
बन जाना।
नहीं तो झूठा आस्तिक सच्चे नास्तिक से
बदतर हालत में हो जाता है। सच्चा नास्तिक कम से कम नास्तिक तो है, सच्चा तो है। कम से कम जो भी उसके भीतर है
वही उसके बाहर तो है। अधिकतर लोग भीतर से नास्तिक हैं, बाहर से आस्तिक हैं। मंदिर में जाते हैं, सिर भी झुका आते हैं, मस्जिद में नमाज भी पढ़ आते हैं, और भीतर न नमाज होती है, न सिर झुकता है, न प्रार्थना उठती है। भीतर तो वे जानते
हैं —कहा रखा है परमात्मा
इत्यादि, मगर ठीक है, औपचारिक है, कर लेने से लाभ रहता है, लोग देख लेते हैं धार्मिक हैं, दुकान अच्छी चलती है। लड़की की शादी करनी
है, बेटे को नौकरी लगवानी
है, अगर लोगों को पता चल
जाए नास्तिक हो, तो लड़के को
नौकरी न मिले, लड़की की शादी
मुश्किल हो जाए।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आपकी बात बिलकुल जंचती है, लेकिन अभी लड़की की शादी करनी है, अभी बेटे को नौकरी लगवानी है, अभी जरा ठहरें! आपकी बात बिलकुल जंचती है, मगर जरा पहले हम निपट लें, नहीं तो झंझट होगी; असुविधा होगी खड़ी। आप जो कहते हैं, ठीक हमें मालूम पड़ता है, और जो हम मानते हैं, वह गलत मालूम पड़ने लगा है। लेकिन अभी हम
छोड़ेंगे नहीं, अभी औपचारिकता
निभा लेंगे। ऐसे लोग औपचारिक रूप से धार्मिक हैं, दिखावे के लिए धार्मिक हैं। यह एक तरह की सामाजिकता है, इसका कोई धर्म से संबंध नहीं है।
फिर ईश्वर की खोज पर कठिनाइयां हैं। सुगम
नहीं है बात। पहाड़ की चढ़ाई है। घाटियों में उतरने जैसा नहीं है। जैसे एक पत्थर को
लुढ़का दो चोटी पर से, तो फिर कुछ और
नहीं करना पड़ता, एक दफे लुढ़का
दिया तो खुद ही लुढ़कता हुआ घाटी तक पहुंच जाता है। लेकिन पत्थर को पहाड़ पर चढ़ाना
हो तो लुढ़काने से काम नहीं चलता,
खींचना पड़ता है। थक जाओगे,
पसीने—पसीने हो
जाओगे, जटिल है, दुरूह है, दुर्गम है,
खतरनाक है। और जैसे—जैसे ऊंचाई
बढ़ेगी वैसे—वैसे मुश्किल
होता जाएगा। उतना ही बोझ कठिन होता जाएगा। आखिरी ऊंचाई पर पहुंचने वाले को बड़ा
दुस्साहस चाहिए। ईश्वर की खोज कायरों का काम नहीं है। और अक्सर कायर ईश्वरवादी
हैं। इसलिए ईश्वर की खोज नहीं हो पा रही है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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