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Sunday, November 3, 2019

नकारात्मक मन से, आलोचक दृष्टि से और अहंकार से कैसे छुटकारा होगा?



पहली बात, नकारात्मक मन से छुटकारे की चेष्टा सफल नहीं हो सकती, क्योंकि विधायक मन को बचाने की चेष्टा साथ में जुड़ी है। और विधायक और नकारात्मक साथसाथ ही हो सकते हैं। अलगअलग नहीं। यह तो ऐसे ही है जैसे सिक्के का एक पहलू कोई बचाना चाहे और दूसरा पहलू फेंक देना चाहे। मन या तो पूरा जाता है, या पूरा बचता है, मन को बाट नहीं सकते। नकारात्मक और विधायक जुड़े हैं, संयुक्त हैं, साथसाथ हैं। एकदूसरे के विपरीत हैं, इससे यह मत सोचना कि एकदूसरे से अलगअलग हैं। एकदूसरे के विपरीत होकर भी एकदूसरे के परिपूरक हैं। जैसे रात और दिन जुड़े हैं, ऐसे ही नकारात्मक और विधायक मन जुड़े हैं।

तो पहली तो बात यह समझ लो कि अगर नकारात्मक से ही छुटकारा पाना है, तो कभी छुटकारा न होगा। मन से ही छुटकारा पाने की बात सोचो। मन यानी नकारात्मकविधायक, दोनों।


हम जीवनभर ऐसी चेष्टाएं करते हैं और असफल होते हैं। असफल होते हैं तो सोचते हैं, हमारी चेष्टा शायद समग्र मन से न हुई, पूरे संकल्प से न हुई, शायद हमने अधूराअधूरा किया, कुछ भूलचूक रह गयी।


नहीं, भूलचूक कारण नहीं है। जो तुम करने चले हो, वह हो ही नहीं सकता। उसके होने की ही संभावना नहीं है। वह स्वभाव के नियम के अनुकूल नहीं है, इसलिए नहीं होता।


इसलिए इसके पहले कि कुछ करो, ठीक से देख लेना कि जो तुम करने जा रहे हो, वह जगतधर्म के अनुकूल है? वह जगतसत्य के अनुकूल है? जैसे एक आदमी दुख से छुटकारा पाना चाहता है और सुख से तो छुटकारा नहीं पाना चाहता, तो कभी भी सफल नहीं होगा। सुखदुख साथसाथ जुड़े हैं। दुख गया तो सुख गया। सुख बचा तो दुख बचा।


तुम्हारी उलझन और दुविधा यही है कि तुम एक को बचा लेना चाहते हो, दूसरे को हटाते। यही तो सभी लोग जन्मोंजन्मों करते रहे हैं। सफलता बच जाए, असफलता चली जाए। सम्मान बच जाए, अपमान चला जाए। विजय हाथ रहे, हार कभी न लगे। जीवन तो बचे और मौत समाप्त हो जाए। यह नहीं हो सकता। यह असंभव है। जीवन और मृत्यु साथसाथ हैं। जिसने जीवन को चुना, उसने अनजाने मृत्यु के गले में भी वरमाला डाल दी। ऐसा ही विधायक और नकारात्मक मन है। विधायक मन का अर्थ होता है, हो; और नकारात्मक मन का अर्थ होता है, नहीं। ही और नहीं को अलग कैसे करोगे? और अगर नहीं बिलकुल समाप्त हो जाए तो हो में अर्थ क्या बचेगा? हा में जो अर्थ आता है, वह नहीं से ही आता है। इसलिए मैं कहता हूं तुम अगर आस्तिक हो, तो नास्तिक भी होओगे ही। चाहे नास्तिकता भीतर दबा ली हो। नास्तिकता के ऊपर बैठ गए होओ, उसे बिलकुल भुला दिया हो, अचेतन के अंधेरे में डाल दिया हो, मगर, अगर तुम आस्तिक हो तो तुम नास्तिक भी रहोगे ही। अगर तुम नास्तिक हो, तो कहीं तुम्हारी आस्तिकता भी पड़ी ही है; जानो न जानो, पहचानो न पहचानो। आस्तिक और नास्तिक साथसाथ ही होते हैं।


इसलिए धार्मिक व्यक्ति को मैं कहता हूं जो आस्तिक और नास्तिक दोनों से मुक्त हो गया। धार्मिक व्यक्ति को मैं आस्तिक नहीं कहता, और धार्मिक व्यक्ति को विधायक नहीं कहता, धार्मिक व्यक्ति को कहता हूं द्वंद्व के पार।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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