पहली बात, नकारात्मक मन से छुटकारे की चेष्टा सफल नहीं हो सकती, क्योंकि विधायक मन को बचाने की चेष्टा साथ में जुड़ी है। और विधायक और
नकारात्मक साथ—साथ ही हो सकते हैं। अलग—अलग नहीं। यह तो ऐसे ही है जैसे सिक्के का एक पहलू कोई बचाना चाहे और
दूसरा पहलू फेंक देना चाहे। मन या तो पूरा जाता है, या पूरा
बचता है, मन को बाट नहीं सकते। नकारात्मक और विधायक जुड़े हैं,
संयुक्त हैं, साथ—साथ
हैं। एक—दूसरे के विपरीत हैं, इससे यह
मत सोचना कि एक—दूसरे से अलग—अलग हैं।
एक—दूसरे के विपरीत होकर भी एक—दूसरे
के परिपूरक हैं। जैसे रात और दिन जुड़े हैं, ऐसे ही नकारात्मक
और विधायक मन जुड़े हैं।
तो पहली तो बात यह समझ लो कि अगर नकारात्मक से ही छुटकारा पाना
है, तो कभी
छुटकारा न होगा। मन से ही छुटकारा पाने की बात सोचो। मन यानी नकारात्मक—विधायक, दोनों।
हम जीवनभर ऐसी चेष्टाएं करते हैं और असफल होते हैं। असफल होते
हैं तो सोचते हैं, हमारी चेष्टा शायद समग्र मन से न हुई, पूरे संकल्प
से न हुई, शायद हमने अधूरा— अधूरा किया,
कुछ भूल—चूक रह गयी।
नहीं, भूल—चूक कारण नहीं है। जो तुम करने चले हो, वह हो ही नहीं सकता। उसके होने की ही संभावना नहीं है। वह स्वभाव के नियम
के अनुकूल नहीं है, इसलिए नहीं होता।
इसलिए इसके पहले कि कुछ करो, ठीक से देख लेना कि जो तुम करने जा रहे हो,
वह जगत— धर्म के अनुकूल है? वह जगत—सत्य के अनुकूल है? जैसे
एक आदमी दुख से छुटकारा पाना चाहता है और सुख से तो छुटकारा नहीं पाना चाहता,
तो कभी भी सफल नहीं होगा। सुख—दुख साथ—साथ जुड़े हैं। दुख गया तो सुख गया। सुख बचा तो दुख बचा।
तुम्हारी उलझन और दुविधा यही है कि तुम एक को बचा लेना चाहते हो, दूसरे को हटाते। यही तो सभी
लोग जन्मों—जन्मों करते रहे हैं। सफलता बच जाए, असफलता चली जाए। सम्मान बच जाए, अपमान चला जाए। विजय
हाथ रहे, हार कभी न लगे। जीवन तो बचे और मौत समाप्त हो जाए।
यह नहीं हो सकता। यह असंभव है। जीवन और मृत्यु साथ—साथ हैं।
जिसने जीवन को चुना, उसने अनजाने मृत्यु के गले में भी
वरमाला डाल दी। ऐसा ही विधायक और नकारात्मक मन है। विधायक मन का अर्थ होता है,
हो; और नकारात्मक मन का अर्थ होता है, नहीं। ही और नहीं को अलग कैसे करोगे? और अगर नहीं
बिलकुल समाप्त हो जाए तो हो में अर्थ क्या बचेगा? हा में जो
अर्थ आता है, वह नहीं से ही आता है। इसलिए मैं कहता हूं तुम
अगर आस्तिक हो, तो नास्तिक भी होओगे ही। चाहे नास्तिकता भीतर
दबा ली हो। नास्तिकता के ऊपर बैठ गए होओ, उसे बिलकुल भुला
दिया हो, अचेतन के अंधेरे में डाल दिया हो, मगर, अगर तुम आस्तिक हो तो तुम नास्तिक भी रहोगे ही।
अगर तुम नास्तिक हो, तो कहीं तुम्हारी आस्तिकता भी पड़ी ही है;
जानो न जानो, पहचानो न पहचानो। आस्तिक और
नास्तिक साथ—साथ ही होते हैं।
इसलिए धार्मिक व्यक्ति को मैं कहता हूं जो आस्तिक और नास्तिक
दोनों से मुक्त हो गया। धार्मिक व्यक्ति को मैं आस्तिक नहीं कहता, और धार्मिक व्यक्ति को
विधायक नहीं कहता, धार्मिक व्यक्ति को कहता हूं द्वंद्व के
पार।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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