..उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद
शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम रेखाबद्ध तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहां नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है। जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।
प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो सोच-विचार खोने को तैयार हों; जो सिर गंवाने को उत्सुक हों। उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में, विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।
तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक नहीं। शास्त्र कम है, संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है, भक्त सत्य की खोज नहीं करता, भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है: सत्य सुंदर है। भक्त कहता है: सौंदर्य सत्य है।
वैज्ञानिक कहते हैं: मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में विभाजित है। बाईं तरफ जो मस्तिष्क है वह सोच-विचार करता है; गणित, तर्क, नियम, वहां सब शृंखलाबद्ध है। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है वहां सोच-विचार नहीं है; वहां भाव है, वहां अनुभूति है। वहां संगीत की चोट पड़ती है। वहां तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहां लयबद्धता पहुंचती है। वहां नृत्य पहुंच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुंचते।
स्त्री दाएं तरफ के मस्तिष्क से जीती है; पुरुष बाएं तरफ के मस्तिष्क से जीता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच बात भी मुश्किल होती है; कोई मेल नहीं बैठता दिखता है। पुरुष कुछ कहता है, स्त्री कुछ कहती है। पुरुष और ढंग से सोचता है, स्त्री और ढंग से सोचती है। उनके सोचने की प्रक्रियाएं अलग हैं। स्त्री विधिवत नहीं सोचती; सीधी छलांग लगाती है, निष्कर्षों पर पहुंच जाती है। पुरुष निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, विधियों से गुजरता है। क्रमबद्ध--एक-एक कदम।
प्रेम में काई विधि नहीं होती, विधान नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह। हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है।
पुरुषों ने भी भक्ति के गीत गाए हैं लेकिन मीरा का कोई मुकाबला नहीं है; क्योंकि मीरा के लिए, स्त्री होने के कारण जो बिलकुल सहज है, वह पुरुष के लिए थोड़ा आरोपित सा मालूम पड़ता है। पुरुष भक्त हुए; जिन्होंने अपने को परमात्मा की प्रेयसी माना, पत्नी माना, मगर बात कुछ अड़चन भरी हो जाती है।
संप्रदाय है ऐसे भक्तों का, बंगाल में अब भी जीवित--जो पुरुष हैं लेकिन अपने
को मानते हैं कृष्ण की पत्नी। रात स्त्री जैसा शृंगार करके, कृष्ण
की मूर्ति को छाती से लगा कर सो जाते हैं। मगर बात में कुछ बेहूदापन लगता है। बात
कुछ जमती नहीं। ऐसा ही बेहूदापन लगता है जैसे कि तुम, जहां
जो नहीं होना चाहिए, उसे जबरदस्ती बिठाने की कोशिश करो,
तो लगे।
पुरुष पुरुष है; उसके लिए स्त्री होना ढोंग ही होगा। भीतर तो वह जानेगा ही कि मैं पुरुष हूं। ऊपर से तुम स्त्री के वस्त्र भी पहन लो और कृष्ण की मूर्ति को हृदय से भी लगा लो--तब भी तुम भीतर के पुरुष को इतनी आसानी से खो न सकोगे। यह सुगम नहीं होगा।
स्त्रियां भी हुई हैं जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से यात्रा की है, मगर वहां भी बात कुछ बेहूदी हो गई। जैसे ये पुरुष बेहूदे लगते हैं और थोड़ा सा विचार पैदा होता है कि ये क्या कर रहे हैं! ये पागल तो नहीं हैं!--ऐसे ही "लल्ला' कश्मीर में हुई, वह महावीर जैसे विचार में पड़ गई होगी; उसने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई। लल्ला में भी थोड़ा सा कुछ अशोभन मालूम होता है। स्त्री अपने को छिपाती है। वह उसके लिए सहज है। वह उसकी गरिमा है। वह अपने को ऐसा उघाड़ती नहीं। ऐसा उघाड़ती है तो वेश्या हो जाती है।
मीरा को तर्क और बुद्धि से मत सुनना। मीरा का कुछ तर्क और बुद्धि से लेना-देना नहीं है। मीरा को भाव से सुनना, भक्ति से सुनना, श्रद्धा की आंख से देखना। हटा दो तर्क इत्यादि को, किनारे सरका कर रख दो। थोड़ी देर के लिए मीरा के साथ पागल हो जाओ। यह मस्तों की दुनिया है। यह प्रेमियों की दुनिया है। तो ही तुम समझ पाओगे, अन्यथा चूक जाओगे।
पद घुँघरू बाँध
ओशो
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