अनेक बातें यहां विचारणीय हैं। एक तो यह कि पाश्चात्य
मनोविज्ञान अभी मनुष्य की आत्मा में विश्वास नहीं करता है। वह केवल मनुष्य के मन
को मानता है। अभी पश्चिम के मनोविज्ञान के लिए मन के पार कुछ नहीं है। और अगर मन
के पार कुछ भी नहीं है तो फिर तुम जो भी करोगे उससे मनुष्य का भला नहीं होगा।
ज्यादा से ज्यादा उससे मनुष्य को सामान्य बनाया जा सकता है, बस। और यह सामान्य होना
क्या है?
सामान्य होना औसत होना है। और अगर औसत व्यक्ति ही सामान्य नहीं
है तो सामान्य होने का कुछ भी अर्थ नहीं है। उसका केवल इतना अर्थ होता है कि तुम
भीड़ के साथ समायोजित हो गए। पश्चिम का मनोविज्ञान एक ही काम करता है—जब भी किसी व्यक्ति का भीड़ के
साथ समायोजन टूट जाता है तो पश्चिमी विधियां फिर से भीड़ के साथ उसका समायोजन जोड़
देती हैं। लेकिन भीड़ को कोई नहीं देखता कि यह भीड़ ठीक है अथवा नहीं।
पूर्वीय मनोविज्ञान के लिए भीड़ मापदंड नहीं है। इस फर्क को
स्मरण रखो। पूर्व के मनोविज्ञान के लिए भीड़ मापदंड नहीं है, समाज मापदंड नहीं है। समाज
तो खुद रुग्ण है। फिर मापदंड क्या है? हमारे लिए बुद्ध
मापदंड हैं। जब तक तुम बुद्ध जैसे नहीं होते तब तक तुम रुग्ण हो। समाज मापदंड नहीं
है।
लेकिन पश्चिमी मनोविज्ञान के लिए समाज ही मापदंड है, बुद्ध उनके लिए मापदंड नहीं
हो सकते। क्योंकि वे नहीं मानते कि आत्मा जैसी कोई चीज है। और अगर आत्मा नहीं है
तो बुद्धत्व भी नहीं हो सकता है। क्योंकि आत्मा का प्रकाशित होना ही बुद्धत्व है।
इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान मात्र चिकित्सा है, चिकित्सा का
अंग है। वह तुम्हें समायोजित होने में सहयोग देता है। वह अतिक्रमण नहीं है।
पूर्व मन के अतिक्रमण के लिए प्रयत्न करता है। क्योंकि हमारे
लिए मानसिक रुग्णताएं नहीं हैं। याद रहे,
हमारे लिए मानसिक रोग नहीं हैं। हमारे लिए तो मन ही रुग्णता है,
मन ही रोग है। पश्चिम के मनोविज्ञान के लिए मन रोग नहीं है। वह तो
तुमको मन समझता है, तुम मन हो। वह मन को रोग कैसे मान सकता
है! उसके लिए मन स्वस्थ भी हो सकता है, मन बीमार भी हो सकता
है। हमारे लिए मन ही रोग है, मन कभी स्वस्थ नहीं हो सकता है।
जब तक तुम मन के पार नहीं जाते, तुम स्वस्थ नहीं हो सकते।
तब तक तुम या तो रुग्ण और समायोजित हो या रुग्ण और असमायोजित हो, लेकिन स्वस्थ नहीं हो।
सामान्य आदमी स्वस्थ नहीं। वह सीमा के भीतर रुग्ण है। असामान्य वह है जो सीमा के
बाहर चला जाता है। और सामान्य तथा असामान्य में केवल मात्रा का फर्क है गुण का
नहीं। तुम्हारे और पागलखाने में रहने वाले के बीच कोई गुणात्मक फर्क नहीं है,
सिर्फ मात्रा का फर्क है। वह तुमसे थोड़ा ज्यादा विक्षिप्त है,
बस। तुम सीमा के भीतर हो। कामकाज के तल पर तुम चला लेते हो। वह नहीं
चला पाता है। वह तुमसे आगे बढ़ गया है। उसकी बीमारी बहुत आगे बढ़ गई है। तुम रास्ते
में हो, वह पहुंच गया है।
पश्चिम का मनोविज्ञान इस आगे चले गए आदमी को भीड़ में वापिस लाकर
समायोजित कर देता है। वह उसे सामान्य बना देता है। यह ठीक है; जितना हो जाए उतना ही ठीक
है। लेकिन हमारे लिए जब तक आदमी मन के पार नहीं जाता है तब तक वह पागल ही है,
क्योंकि मन ही पागलपन है। इसलिए हम मन का निर्ग्रंथन करते हैं,
ताकि हम उसको जान सकें जो मन के पार है। वे भी मन के निर्ग्रंथन के
कुछ उपाय करते हैं, लेकिन उद्देश्य समायोजन है। उनके लिए मन
के पार कुछ नहीं है। और खयाल रहे, जब तक तुम स्वयं के पार
नहीं जाते, कुछ भी महत्वपूर्ण घटित नहीं होगा। जब तक
तुम्हारे लिए तुमसे कुछ पार पाने को नहीं है, तब तक जीवन
निरर्थक है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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