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Tuesday, December 31, 2019

संत दादू ने अपने शिष्यों की पीड़ा समझकर भविष्यवाणी की थी कि सौ साल बाद एक संत प्रगट होगा। वही पीड़ा मेरे समेत आपके सभी शिष्यों में मौजूद है। लगता है कि आपकी अनुपस्थिति हमें अनाथ बना देगी। हमारे अंदर भी यही गहरी आकांक्षा जगती है। कि हमें भी कोई सौ साल बाद संभालनेवाला हो। कृपा कर प्रकाश डालें।




पहली तो बात, मेरे रहते तुम सनाथ क्यों नहीं हो जाते हो? तुम्हारे इरादे अनाथ रहने के ही हैं? मैं तैयार हूं तुम्हें सनाथ करने को, और तुम कह रहे हो कि जब आप चले जाएंगे। अगर तुम एक बार सनाथ हो गए तो सनाथ हो गए; फिर अनाथ नहीं होते। अनाथ वे ही हो जाएंगे मेरे जान के बाद, जो मेरे होते हुए भी अनाथ थे। इसे खूब खयाल में ले लेना।


अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो परम से संबंध जुड़ गया। वही नाथ है उसके बिना तो अनाथ ही रहोगे। और अगर मुझे चूक गए तो सौ साल बाद अगर कोई आ भी जाए तो उसको भी चूक जाओगे। सौ साल में चूकने की आदत और मजबूत हो जाएगी। सौ साल अभ्यास कर लोगे न चूकने का! सौ साल के बाद की फिक्र कर रहे हो। मैं अभी मौजूद हूं, दरवाजा अभी खुला है। तुम कहते हो, जब दरवाजा बंद हो जाएगा, सौ साल बाद कोई दरवाजा खुलेगा कि नहीं? अभी दरवाजा खुला है। तुम्हें सौ साल के बाद ही प्रवेश करना है? सौ साल और संसार में रहना है? अभी थके नहीं? अभी ऊबे नहीं?


जो अभी हो सकता है उसे कल पर मत टालो। और अगर अभी न कर सके तो कल कैसे कर सकोगे? करना है तो इस क्षण हो सकता है।


इसलिए मैं सौ साल के बाद की कोई भविष्य-वाणी न करूंगा। मैं भविष्य की तरफ तुम्हें उन्मुख ही नहीं करना चाहता। वर्तमान मेरे लिए  सब कुछ है, यही क्षण सब कुछ है। कल न तो आता है, न कभी आएगा, न कभी आया है। कल की आशा ही संसार है। आज में प्रवेश कर जाना ही धर्म है। धर्म बिलकुल नगद बात है। उधारी की बातें करो।


अब तुम कह रहे हो कि सौ साल बाद आप की अनुपस्थिति हमें अनाथ बना देगी। मेरी उपस्थिति तुम्हें सनाथ बना रही है? अगर मेरी उपस्थिति तुम्हें सनाथ बना रही है तो अनाथ होने का फिर कोई उपाय नहीं रहा। बात ही खतम हो गई। फिर तुम अनाथ कभी नहीं हो सकोगे। यह नाता कोई दिन दो दिन का नहीं है। यह नाता फिर शाश्वत है। जो तुम्हें चाहिए वह मैं तुम्हें देने को तैयार हूं, तुम भर लेने को तैयार हो जाओ। तुम भर अपना हृदय खोला।


जो प्रश्न तुमने पूछा है, वह प्रश्न औरों के मन में भी हो सकता है। वह प्रश्न किसी एक का नहीं है। वह मैं बहुतों की आंखों में देखता हूं। अलग अलग उत्तर देने की जरूरत नहीं है।


दरवाजा खुला है। आज नगद है और कल उधार हो जाएगा। नगद को स्वीकार कर लो। हिंमत करो। चुनौती लो। अपने को खोलोगे तो ही सनाथ हो सकोगे।


स्वयं मिटे बिना कोई सनाथ नहीं होता। क्योंकि जब अहंकार मिटता है तब परमात्मा प्रवेश करता है।

कानो सुनी सब झूठ 

ओशो

हर मनुष्य अस्वस्थ, बीमार और रुग्ण है चित्त के तल पर, क्योंकि वह अंधकार को दूर करने की कोशिश में लगा है


लेकिन अंधकार दूर नहीं किया जा सकता। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंधकार दूर नहीं हो सकता। अंधकार निश्चित ही दूर हो जाता है। लेकिन प्रकाश के जलने से। सीधे अंधकार के साथ कुछ भी करने का उपाय नहीं है। वह है ही नहीं, उसके साथ करने का उपाय होगा कैसे?


हम सब एक निगेटिव, एक नकारात्मक जीवन-विधि से पीड़ित हैं। अंधकार को दूर करने की विधि से पीड़ित हैं। स्वभावतः हम अपने भीतर हिंसा दूर करना चाहते हैं; घृणा दूर करना चाहते हैं; क्रोध दूर करना चाहते हैं; द्वेष, लोभ, मोह दूर करना चाहते हैं;र् ईष्या दूर करना चाहते हैं। ये सब अंधकार हैं। इनको दूर नहीं किया जा सकता सीधा। इनकी अपनी कोई सत्ता नहीं है।


क्रोध, घृणा, द्वेष यार् ईष्या किसी के अभाव हैं, किसी प्रकाश की अनुपस्थिति हैं। स्वयं किसी चीज की मौजूदगी नहीं हैं। घृणा, प्रेम की अनुपस्थिति है। जैसे अंधकार प्रकाश की अनुपस्थिति है। घृणा को दूर नहीं किया जा सकता सीधा। न द्वेष को, न ईष्या को, न हिंसा को। और जब हम इनको सीधा दूर करने में लग जाते हैं, तो अगर हम पागल न हो जाएं तो और क्या होगा। क्योंकि वे दूर नहीं होते। उनको दूर करने की सारी कोशिश व्यर्थ सिद्ध हो जाती है। और जब वे दूर नहीं होते तो दो ही उपाय रह जाते हैं--या तो व्यक्ति पागल हो जाता है, या पाखंडी हो जाता है। जब वे दूर नहीं होते तो उन्हें छिपा लेता है। ऊपर से जाहिर करने लगता है वे दूर हो गए और भीतर, भीतर वे उबलते रहते हैं, भीतर वे मौजूद रहते हैं, भीतर वे चित्त की पर्तों पर सरकते रहते हैं। ऐसा दोहरा व्यक्तित्व पैदा हो जाता है। एक जो ऊपर से दिखाई पड़ने लगता है। और एक, एक जो भीतर होता है।


इस द्वैत में इतना तनाव है, इतनी अशांति है, इतनी कानफ्लिक्ट है। होगी ही, क्योंकि जब एक आदमी दो हिस्सों में टूट जाएगा--एक जैसा वह है, और एक जैसा वह लोगों को दिखलाता है कि मैं हूं।

असंभव क्रांति 

ओशो

इस संसार में इतनी हिंसा क्यों हैं?

क्योंकि इस संसार में अधिक लोगों के प्राण हिंसा से भरे हैं। इस संसार में इतना वैमनस्य, इतने युद्ध क्यों हैं? क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति लड़ने को मरने-मारने को आतुर है। क्योंकि सदियों-सदियों से हमें जीना तो सिखाया नहीं गया, मरना सिखाया गया है। लोग कहते हैं: मरो देश पर; मरो देश के झंडे पर; मरो जाति पर; मरो धर्म पर ; मरो चर्च पर, मस्जिद पर, मंदिर पर। मगर तुमसे कोई भी नहीं कहता कि जीओ! कपड़े के टुकड़े, जो झंडे बन जाते हैं, उन पर मरो! जिंदगी जो परमात्मा की भेंट है, उसे आदमी के चीथड़ों पर बर्बाद करो! देश की सीमाएं, जो विक्षिप्त राजनीतिज्ञों द्वारा खींची जाती हैं, उन पर मरो! और यह अखंड पृथ्वी, जो परमात्मा ने बिना किसी सीमा के बनायी है, इस पर जीओ मत। मंदिर और मस्जिद पर मरो, जो कि आदमी की ईजादें हैं। और परमात्मा ने यह विशाल मंदिर बनाया है--जिसमें आकाश के दीए जल रहे हैं, जिसमें चांद और सूरज हैं, जिसमें अनंत-अनंत फूलों की बहार है--इसमें जीओ मत!


मेरा संदेश है: मरने की भाषा छोड़ो, मरने की भाषा रुग्ण है। जीने की भाषा सीखो। जीओ, जी भर के जीओ! समग्रता से जीओ! पूरे-पूरे जीओ! क्योंकि तुम जितनी गहनता से जिओगे, उतने ही परमात्मा के निकट पहुंच जाओगे। परमात्मा जीवन का ही दूसरा नाम है। ऐसी लपट हो तुम्हारा जीवन जैसे मशाल को किसी ने दोनों ओर से एक-साथ जलाया हो। चाहे क्षणभर को जीओ, मगर ऐसी त्वरा हो जीवन में कि वह एक क्षण अनंतता के बराबर हो जाए।


तुम्हें सिखायी गयी है भाषा मरने की। राजनीति मरने की भाषा ही सिखानी है। वह कहती है: मरो और मारो। क्रांति भी वही भाषा बोलती है कि मरो और मारो। मैं विद्रोह सिखा रहा हूं। मैं कहता हूं, न तो मरना है, न मारना है--जीओ और जीने दो। खुद भी जीओ, औरों के जीने के लिए भी आयोजन दो। यह थोड़े दिन, यह चार दिन परमात्मा की बड़ी भेंट हैं, इन्हें ऐसे गंवा मत दो!


और अगर यह पृथ्वी जीने के गीत गाने लगे, यह पृथ्वी अगर जीने की बांसुरी बजाने लगे, तो हो जाएगी, क्रांति जो अब तक नहीं हुई है। और उस क्रांति को कोई विकृत न कर सकेगा, क्योंकि इस क्रांति को हम किसी की प्रतिक्रिया में नहीं कर रहे हैं। हम किसी से लड़ नहीं रहे हैं। सिर्फ अपने भीतर के अंधेरे को काट रहे हैं, सिर्फ हम अपने भीतर के पत्थरों को अलग कर रहे हैं, ताकि बह उठे झरना हमारे भीतर के जीवन का। और झरना बह उठे तो सागर दूर नहीं। झरना, न बहे, तो सागर के किनारे भी डबरा रहेगा और झरना बहे, तो दूर हिमालय से भी सागर तक पहुंच जाता है।

दरिया कहै शब्द निरवाना

"जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर मिलते है और विषयगत रूप में वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे आस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।‘’



प्रत्‍येक चीज मेरे अस्‍तित्‍व में आकर मिल रही है। मैं खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं और सभी दिशाओं से, सभी कोने-कातर से सारा आस्‍तित्‍व मुझमें मिलने चला आ रहा है। इस हालत में तुम्‍हारा अहंकार नहीं रह सकता। इस खुलेपन में जहां समस्‍त अस्‍तित्‍व तुममें मिल रहा है, तुम मैंकी भांति नहीं रह सकते हो। तुम खुले आकाश की भांति तो रहोगे, लेकिन एक जगह केंद्रित मैंकी भांति नहीं।


इस विधि को छोटे-छोटे प्रयोगों से शुरू करो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ। हवा बह रही है। और वृक्ष के पत्‍तों से सरसराहट की आवाज हो रही है। हवा तुम्‍हें छूती है, तुम्‍हारे चारों और डोलती है। तुम्‍हें छू कर गूजर रही है, लेकिन तुम उसे ऐसे मत गुजरने दो। उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और अपने में होकर गुजरने दो। आंखें बंद कर लो। और जैसे हवा वृक्ष से होकर गुज़रे और पत्‍तों में सरसराहट हो, तुम भाव करो कि मैं भी वृक्ष के समान खुला हुआ हूं। और हवा मुझमें से होकर गुजर रही है। मेरे आस-पास से नहीं, ठीक मेरे भीतर से होकर वह बह रही है। वृक्ष की सरसराहट तुम्‍हें अपने भीतर अनुभव होगी और तुम्‍हें लगेगा कि मेरे शरीर के रंध्र-रंध्र से हवा गुजर रही है।


हवा वस्‍तुत: तुमसे होकर गुजर रही है। यह कल्‍पना ही नहीं है, यह तथ्‍य है। तुम भूल गये हो। तुम नाक से ही श्‍वास नहीं लेते,तुम्‍हारा पूरा शरीर श्‍वास लेता है। एक-एक रंध्र से श्‍वास लेता है। लाखों छिद्रों से श्‍वास लेता है। अगर तुम्‍हारे शरीर के सभी छिद्र बंद कर दिये जाये,उन पर रंग पोत दिया जाये और तुम सिर्फ नाक से श्वास लेने दिया जाए तो तुम तीन घंटे के अंदर मर जाओगे। सिर्फ नाक से श्‍वास लेकर तुम जीवित नहीं रह सकते। तुम्‍हारे शरीर का प्रत्‍येक कोष्‍ठ जीवंत है और प्रत्‍येक कोष्‍ठ श्‍वास लेता है। हवा सच में तुम्‍हारे शरीर से होकर गुजरती है, लेकिन उसके साथ तुम्‍हारा संपर्क नहीं रहा है।


तो किसी झाड़ के नीचे बैठो और अनुभव करो। आरंभ में यह कल्‍पना मालूम पड़ेगी। लेकिन जल्‍दी ही कल्‍पना यथार्थ बन जाएगी। वह यथार्थ ही है कि हवा तुमसे होकर गुजर रही है। और फिर उगते हुए सूरज के नीचे बैठो और अनुभव करो कि सूरज की किरणें न केवल मुझे छू रही है। बल्‍कि मुझमें प्रवेश कर रही है। और मुझसे होकर गुजर रही है। इस तरह तुम खुल जाओगे, ग्रहणशील हो जाओगे।
यह प्रयोग किसी भी चीज के साथ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैं यहां बोल रहा हूं,और तुम सुन रहे हो। तुम मात्र कानों से भी सून सकते हो और अपने पूरे शरीर से भी सून सकते हो। तुम अभी और यहीं यह प्रयोग कर सकते हो। सिर्फ थोड़ी सी बदलाहट की बात है। और अब तुम मुझे कानों से ही नहीं सुन रहे हो, तुम मुझे अपने पूरे शरीर से सून रहे हो। तुम्‍हारा कोई अंश नहीं सुनता है, तुम्‍हारी ऊर्जा का कोई एक खंड नहीं सुनता है; पूरे के पूरे सुनते हो। तुम्‍हारा समूचा शरीर सुनने में संलग्न होता है। और तब मेरे शब्‍द तुमसे होकर गुजरते है; अपने प्रत्‍येक कोष्‍ठ से, प्रत्‍येक रंध्र से, प्रत्‍येक छिद्र से तुम उन्‍हें पीते हो। वे सभी और से तुममें समाहित होते है।


तुम एक और प्रयोग कर सकते हो: जाओ और किसी मंदिर में बैठ जाओ। अनेक भक्‍त आएँगे जाएंगे ओर मंदिर का घंटा बार-बार बजेगा। तुम अपने पूरे शरीर से उसे सुनो। घंटा बज रहा है और पूरा मंदिर उसकी ध्‍वनि से गूंज रहा है। मंदिर की प्रत्‍येक दीवार उसे प्रतिध्‍वनित कर रही है। उसे तुम्‍हारी ओर वापस फेंक रही है।


इस लिए हमनें मंदिर को गोलाकार बनाया है। ताकि आवाज हर तरफ से प्रतिध्‍वनित हो और तुम्‍हें अनुभव हो कि हर तरफ से ध्‍वनि तुम्‍हारी और आ रही है। सब तरफ से ध्‍वनि लौटा  दी जाती है। सब तरफ से ध्‍वनि तुममें आकर मिलती है। और तुम उसे अपने पूरे शरीर से सुन सकते हो। तुम्‍हारी प्रत्‍येक कोशिका, प्रत्‍येक रंध्र उसे सुनता है। उसे पीता है। अपने में समाहित करता है। ध्‍वनि तुम्‍हारे भीतर होकर गुजरती है। तुम रंध्र मय हो गए हो। सब तरफ द्वार ही द्वार है। अब तुम किसी चीज के लिए बाधा न रहे हो। अवरोध न रहेन हवा के लिए,न ध्‍वनि के लिएन किरण के लिए, किसी के लिए भी नहीं। अब तुम किसी भी चीज का प्रतिरोध नहीं करते हो। अब तुम दीवार न रहे।


जैसे ही तुम्‍हें अनुभव होता है कि तुम अब प्रतिरोध नहीं करते,संघर्ष नहीं करते। वैसे ही अचानक तुम्‍हें बोध होता है कि अहंकार भी नहीं है। क्‍योंकि अहंकार तो तभी है जब तुम संघर्ष करते हो। अहंकार प्रतिरोध है। जब-जब तुम कहते हो, ‘नहींअहंकार खड़ा हो जाता है। जब-जब तुम कहते हो हांअहंकार विदा हो जाता है।


मैं उस व्‍यक्‍ति को आस्‍तिक कहता हूं,सच्‍चा आस्‍तिक  जिसने अस्‍तित्‍व को हाँ कहां है। उसमें कोई नहींनहीं रहा, कोई प्रतिरोध नही रहा। उसे सब स्‍वीकार है; वह सब कुछ को घटित होने देता है। अगर मृत्‍यु भी आती है तो वह अपना द्वार बंद नहीं करेगा। उसके द्वार मृत्‍यु के लिए भी खुले रहेंगे।

विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो

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