रामकृष्ण के पास एक भक्त आता था। और वह भक्त जब काली के दिन आते, तो कई बकरे कटवाता था। बड़ा
समारोह मचाता था। उसकी बड़ी गणना थी भक्तों में, बड़े भक्तों
में। फिर अचानक उसने पूजा— भक्ति सब छोड़ दी, बकरे कटने बंद हो गए।
तो एक दिन रामकृष्ण ने उससे पूछा कि क्या हुआ? क्या भक्ति— भाव जाता रहा? क्या अब काली में श्रद्धा न रही?
उसने कहा, नहीं, यह बात
नहीं। आप देखते नहीं, दांत ही सब गिर गए।
वह आदमी बड़ा ईमानदार रहा होगा। वह बकरे वगैरह काली ? के लिए कोई काटता है! काली
तो बहाना है, तरकीब है। बकरे तो अपने ही दांतों के लिए काटे
जाते हैं। लेकिन उसने कहा कि दांत ही न रहे, दांत ही गिर गए,
अब क्या काटना और क्या नहीं काटना! किसके लिए काटना?
लेकिन वह आदमी ईमानदार रहा होगा। उसने एक बात तो कम से कम समझी
कि यह सब दांतों के लिए चल रहा था।
बुढ़ापे में लोग शीलवान हो जाते हैं। बुढ़ापे में लोग सच्चरित्रता
की बात करने लगते हैं। बुढ़ापे में दूसरे लोगों को समझाने लगते हैं कि जवानी सब रोग
है। जब वे जवान थे, तो उनके घर के बड़े—बूढ़े भी उन्हें यही समझा रहे थे
कि जवानी सब रोग है। उन्होंने उनकी नहीं सुनी। उनके बेटे भी उनकी नहीं सुनेंगे।
और बड़ा मजा यह है कि जब आपने अपने बाप की नहीं सुनी, तो आप किस भ्रांति में हैं
कि अपने बेटे को सोच रहे हैं, सुन ले। किसी बेटे ने कभी नहीं
सुनी। क्योंकि जवानी सुनती ही नहीं। और बुढ़ापा बोले चला जाता है। बुढापा समझाए चला
जाता है। क्योंकि बुढ़ापा अब कुछ और कर नहीं सकता। करने के दिन गए। वह जिन तत्वों
से करना निकलता था, वे क्षीण हो गए।
और बड़े मजे की बात है,
जब आप नहीं कर सकते, तब भी आपको यह खयाल नहीं
आता कि शरीर के गुणधर्म क्षीण हो गए हैं, जिससे आप नहीं कर
सकते हैं। जब आप कर सकते थे, तब आप सोचते थे, मैं कर रहा हूं। और जब आप नहीं कर सकते, तब आप सोचते
हैं कि मैंने त्याग कर दिया! जब आप नहीं कर सकते, तब आप
सोचते हैं, मैंने त्याग कर दिया !'
वे अक्सर सोचते हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हैं।
अन्यथा उपाय क्या था? मजबूरी को ब्रह्मचर्य समझ लें, तो भ्रांति जारी रहती
है। उचित यही होगा कि समझें कि जिन गुणधर्मों से, जिस
प्रकृति के तत्व से वासना उठती थी, वे तत्व क्षीण हो गए,
जल गए।
जब वे जग रहे थे तत्व, सजग थे, तेज थे, दौड़ते थे, तब आप उनका
पीछा कर रहे थे। तब भी आप कर्ता नहीं थे। और अब भी आप कर्ता नहीं हैं। लेकिन वासना
के दिन में समझा था कि मैं कर्ता हूं। मैं हूं जवान। और बुढ़ापे के दिन में समझ रहे
हैं कि मैं हूं त्यागी, मैं हूं ब्रह्मचारी। दोनों
भ्रांतियां हैं।
अगर आप देख पाएं कि सारा खेल प्रकृति का है और आप उसके बीच में
सिर्फ खड़े हैं देखने वाले की तरह,
एक क्षण को भी कर्तृत्व आपका नहीं है, आप
मुक्त हो गए। यह जानते ही कि मैं कर्ता नहीं हूं बंधन गिर गए। यह पहचानते ही कि
मैंने कभी कुछ नहीं किया है, सारे कर्मों का जाल टूट गया।
कर्म आपको नहीं बांधे हुए हैं। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि जन्मों—जन्मों के कर्म पकड़े हुए हैं। कोई कर्म आपको नहीं पकड़े हुए है, कर्ता पकड़े हुए है। कर्ता के छूटते ही सारे कर्म छूट जाएंगे। क्योंकि
जिसने किए थे, जब वह ही न रहा, तो कर्म
कैसे पकड़ेंगे? कर्म नहीं पकड़ता, कर्ता
पकड़ता है। और कर्ता के कारण जन्मों—जन्मों के कर्म इकट्ठे
रहते हैं, उनका बोझ आप ढोते हैं।
कई लोग मुझसे यह भी पूछने आते हैं कि पिछले किए हुए कर्मों को
कैसे काटें?
एक तो उनको किया नहीं कभी। अब उनको काटने का कर्म करने की कोशिश
चल रही है! उनको कैसे काटें? जिनको किया ही नहीं, उनको अनकिया कैसे करिएगा?
वह भांति थी कि आपने किया। अब आप एक नई भ्रांति चाहते हैं कि उनको
हम काटने का कर्म कैसे करें! पहले संसारी थे, अब संन्यासी
कैसे हों?
संन्यास का कुल मतलब इतना है कि करने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ देखने को है। अब करने
वाला मैं नहीं हूं, सिर्फ देखने वाला हूं। फिर जो भी हो रहा
हो, उसे देखते रहना है सहज भाव से, उसमें
कोई बाधा नहीं डालनी है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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