पहली बातः तुम्हारा दु:ख और दूसरे का दु:ख अलग-अलग नहीं है। मनुष्यमात्र का दु:ख एक है। थोड़ी-बहुत मात्राओं के भेद
होंगे, थोड़े-बहुत
रंग-आकार के भेद होंगे; लेकिन दु:ख का स्वभाव एक है।
इसलिए जब मैं दु:ख
के संबंध में बोलता हूं, तुम समझोगे तो जरूर लगेगा कि तुम्हारे ही दु:ख के संबंध में बोल रहा हूं।
तुम्हारे दु:ख के संबंध में
बोल नहीं रहा हूं; दु:ख के संबंध में बोल रहा हूं। दु:ख का स्वभाव एक हैः वह तुम्हारा हो
कि पड़ोसी का हो कि किसी और का हो;
अतीत के किन्हीं मनुष्यों का हो या भविष्य के मनुष्यों का हो..एक ही
है। दु:ख का स्वभाव एक
है।
ऐसा समझो कि कोई आदमी अंगारे से जल गया, कोई आदमी चिराग जलाते हुए
जल गया, कोई आदमी चकमक तोड़ रहा था और जल गया..जलन तो एक ही
होगी, चकमक अलग है, चिराग अलग है,
अंगारा अलग है; मगर हाथ में आग से जो जलन होती
है वह तो एक ही है। मैं जलन के संबंध में बोल रहा हूं, चकमक
के संबंध में क्या बोलना? कहां तुम जले, इससे क्या लेना-देना है? कैसे तुम जले, इससे क्या प्रयोजन है? तुम्हारी जलन, जलन के शुद्ध स्वभाव के संबंध में बोल रहा हूं..इसलिए सभी को लगेगा कि
उसके ही दु:ख
के संबंध में बोल रहा हूं। इससे तुम भ्रांति में मत पड़ना कि मैं तुम्हारे दु:ख के संबंध में बोल रहा हूं। क्योंकि
अहंकार बड़ा सूक्ष्म है; वह इसमें भी मजा लेता है कि देखो, मेरे ही दु:ख के संबंध में बोल रहे हैं!
तुम्हारे दु:ख से क्या लेना-देना? तुम्हारा मुझे पता ही कहां
है? दु:ख के संबंध में
बोल रहा हूं!
लेकिन तुमने भी दु:ख
जाना है, सबने दु:ख जाना है। जब तुम आनंद जानोगे तब जो
मैं आनंद के संबंध में बोल रहा हूं वह भी ऐसा ही लगेगा कि तुम्हारे आनंद के संबंध
में बोल रहा हूं।
तुम तो केवल निमित्तमात्र हो, जहां घटनाएं घटती हैं। उन घटनाओं का स्वभाव
क्या है? अगर मैं एक-एक व्यक्ति के दु:ख के संबंध में बोलूं तब तो बड़ा
मुश्किल हो जाए; तब तो विस्तार अनंत होगा; सभी के हृदय तक पहुंच पाना
असंभव होगा। दु:ख
के संबंध में बोलता हूं, बस..सबके हृदय तक पहुंच जाता हूं।
ऐसा समझो कि मैं सागर के संबंध में बोल रहा हूंः हिंद महासागर
ने सुना, प्रशांत
महासागर ने सुना, कि अरब महासागर ने सुना, कि अटलांटिक महासागर ने सुना..क्या फर्क पड़ेगा? मैंने
अगर कहा कि सागर का पानी खारा है, वे सभी समझेंगे कि मेरे
संबंध में बोल रहें हैं। सभी सागरों का पानी खारा है। यही तो तुम्हीं समझना है कि
तुम्हारा दु:ख
और पड़ोसी का दु:ख
अलग-अलग नहीं है।
तुम मनुष्य होः तुम्हारे होने के ढंग में थोड़े-बहुत भेद होंगे, लेकिन तुम्हारी अंतःसत्ता
तो एक है। तुम्हारे आंगन में जो आकाश समाया है वही तुम्हारे पड़ोसी के आंगन में भी
समाया है। तुम्हारा आंगन तिरछा होगा, तुम्हारे आंगन में
साधारण गरीब आदमी की मिट्टी की दीवाल होगी, पड़ोसी का आंगन
कीमती होगा, संगमरमर जड़ा होगा..पर आकाश तुम्हारे मिट्टी के
आंगन में भी वही है, संगमरमर के आंगन में भी वही है। मैं
आकाश के संबंध में बोल रहा हूं, तुम्हारे आंगन के संबंध में
नहीं। इसलिए तुम्हें स्वाभाविक लगेगा। इसमें रहस्य कुछ भी नहीं है, सीधा गणित है।
और स्वभावतः मैं शून्य में नहीं बोल रहा हूं; मैं तुमसे बोल रहा हूं;
तुम्हारी गहनतम मनुष्यता से बोल रहा हूं। इसलिए मेरा, जिनको मैटाफिजीकल, पारलौकिक विषय कहें, उनमें मेरा कोई रस नहीं है; वह फिजूल की बकवास है।
मैं तो मनोवैज्ञानिक सत्यों पर बोल रहा हूं। मैं तो तुम्हारे संबंध में बोल रहा
हूं ताकि तुम जहां हो वहां से ही यात्रा शुरू हो सके।
मुझे फिकर नहीं है कि परमात्मा ने संसार बनाया कि नहीं बनाया, कि किस तारीख में बनाया,
किस दिन में बनाया, कि हिंदुओं के ढंग से
बनाया कि मुसलमानों के ढंग से बनाया..यह सब बकवास है, इस
सबमें कोई अर्थ नहीं है। मैं कोई पागल नहीं हूं। मेरी दृष्टि में सभी दार्शनिक
पागल हैं। वे जो बोल रहे हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है,
अर्थ नहीं है।
तुम दुखी हो,
यह सत्य है। तुम हिंदू हो तो दुखी हो, मुसलमान
हो तो दुखी हो, तुम मानते हो कि ईश्वर ने संसार बनाया तो
दुखी हो, तुम मानते हो कि ईश्वर ने बनाया नहीं संसार,
ईश्वर है ही नहीं, तो भी दुखी हो। तुम्हारे दु:ख को मिटाना है। और मेरे अनुभव में
ऐसा है कि जब तुम्हारा दु:ख
मिट जाएगा तो जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है।
अकथ कहानी प्रेम की
ओशो
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