मैं तुम्हारे साथ स्पष्ट रहना चाहता हूं: बीमारों
की देखभाल करो, लेकिन प्रेम
कभी मत प्रदर्शित करो। बीमार की देखभाल करना बिलकुल ही अलग बात है। तटस्थ रहो, क्योंकि सिरदर्द ऐसी कोई महा घटना नहीं है; देखभाल करो, लेकिन अपनी मिठबोलियों से बचो! बहुत ही व्यावहारिक ढंग से
देखभाल करो। उसके सिर में दवा लगाओ,
लेकिन प्रेम मत दर्शाओ क्योंकि वह खतरनाक है। जब एक बच्चा बीमार है, उसकी देखभाल करो, लेकिन नितात तटस्थ रहकर। बच्चे को समझ में
आने दो किं बीमार होकर वह तुम्हें ब्लैकमेल नहीं कर सकता। पूरी मानवता ही एक दूसरे को ब्लैकमेल कर
रही है। रुग्णावस्था, वृद्धावस्था, बीमारियां करीब—करीब मांगपूर्ण बन चुकी हैं, तुम्हें मुझे प्रेम करना ही होगा क्योंकि
मैं बीमार हूं मैं वृद्ध हूं...
जरथुस्त्र सही हैं ठीक से कहें तो बीमारों
और मृतकों के साथ प्रेम से युक्त नहीं।
व्यक्ति को स्वयं को एक गहन एवम् स्वस्थ
प्रेम सहित प्रेम करना सीखना अनिवार्य है ताकि व्यक्ति इसे स्वयं अपने साथ टिका
सके और इधर उधर भटकता न
फिरे ऐसा ही मैं
सिखाता हूं।
तुम्हें स्वयं को प्रेम करना चाहिए बिना
यह सोचे कि तुम इसके पात्र हो अथवा नहीं। तुम जीवित हो वह पर्याप्त सबूत है कि तुम प्रेम के
पात्र हो, ठीक जैसे कि
तुम साँस लेने के पात्र हो। तुम नहीं सोचते कि तुम साँस लेने के पात्र हो अथवा
नहीं। प्रेम आत्मा के लिए पोषण है,
ठीक जैसे कि भोजन है शरीर के लिए। और यदि तुम स्वयं के प्रति प्रेम से भरे हुए
हो तो तुम दूसरों को भी प्रेम करने में सक्षम होओगे। लेकिन स्वस्थ को प्रेम करो, मजबूत को प्रेम करो।
बीमार की देखभाल करो, वृद्ध की देखभाल करो; लेकिन देखभाल बिलकुल भिन्न बात है। प्रेम
और देखभाल के बीच का भेद एक मा और एक नर्स के बीच का भेद है। नर्स देखभाल करती है, माँ प्रेम करती है। जब बच्चा बीमार है तो माँ के लिए भी केवल नर्स भर होना बेहतर है। जब बच्चा स्वस्थ है, उतना प्रेम बरसाओ उस पर जितना तुम बरसा
सकते होओ। प्रेम का साहचर्य स्वस्थता,
शक्ति और मेधा के साथ होने दो;
वह बच्चे को उसके जीवन में बहुत दूर तक मदद करेगा।
और सच में, स्वयं को प्रेम करना सीखना न आज के लिए आदेश है न कल के
लिए। बल्कि कला सब में उत्कृष्टतम सूक्ष्मतम परम और सर्वाधिक अध्यवसायी है। यह
आदेश नहीं है, यह कला है, एक अनुशासन; तुम्हें इसे सीखना होगा। संभवत: प्रेम महानतम कला है जीवन
में। लेकिन व्यक्ति सोचता है कि वह प्रेम करने की क्षमता लेकर ही पैदा हुआ है, तो कोई भी उसे परिष्कृत नहीं करता? वह अपरिष्कृत और आदिम ही बना रह जाता है।
और यह उन ऊंचाइयों तक परिष्कृत किया जा सकता कि उन ऊंचाइयों में तुम कह सकतै हो :
प्रेम परमात्मा है।
एक प्रतिभाशाली व्यक्ति, एक व्यक्ति जिसके पास थोड़ी भी ध्यानमय
चेतना है, अपने जीवन कला
का एक सुंदर नमूना बना सकता है;
उसे प्रेम से, संगीत से, काव्य से, नृत्य से इतना भर सकता जिसकी कोई सीमाएं नहीं हैं। जीवन
कठोर नहीं है। यह मनुष्य की मूढ़ता है जो उसे कठोर बना देती है।
ऐसा जरथुस्त्र ने कहा...
जरथुस्त्र: एक नाचता जाता मसीहा
ओशो
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