स्वामी रामतीर्थ ने कहा है, एक छोटी—सी कहानी कही कि एक प्रेमी दूर देश गया। वह लौटा नहीं
वापिस। उसकी प्रेयसी राह देखती रही,
देखती—देखती थक गई।
वह पत्र लिखता है, बार—बार कहता है. अब आता हूं तब आता हूं; इस महीने, अगले महीने। वर्ष पर वर्ष बीतने लगे, एक दिन वह प्रेयसी तो घबड़ा गई। प्रतीक्षा
की भी एक सीमा होती है।
उसने यात्रा की और वह परदेश के उस नगर
पहुंच गई, जहां उसका
प्रेमी है। पूछताछ करके उसके घर पहुंच गई। द्वार खुला है, सांझ का वक्त है, सूरज ढल गया है, वह द्वार पर खड़े होकर देखने लगी। बहुत दिन
से अपने प्यारे को देखा नहीं। वह बैठा है सामने, मगर किसी गहरी तल्लीनता में डूबा है, कुछ लिख रहा है! वह इतना तल्लीन है कि
प्रेयसी को भी लगा कि थोड़ी देर रुकुं उसे बाधा न दूं, न
मालूम किस विचार—तंतु में है..
कौन—सी बात खो जाए। वह ऐसा
भाव—विभोर है, उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं, और वह कुछ लिख रहा है, और वह लिखता ही चला जाता है। घड़ी बीत गई, दो घड़ी बीत गई, तब उसने आंख उठा कर देखा, उसे भरोसा न आया, वह घबड़ा गया।
वह अपनी प्रेयसी को ही पत्र लिख रहा था।
इसी को पत्र लिख रहा था, जो दो घड़ी से
उसके सामने बैठी थी, और प्रतीक्षा
कर रही थी कि तुम आंख उठाओ! उसे तो भरोसा न आया, वह तो समझा कि कोई धोखा हो गया, कोई भ्रम हो गया, शायद कोई आत्म—सम्मोहन! मैं इतना ज्यादा भावातिरेक में
भरा हुआ इस प्रेयसी के संबंध में सोच रहा था,
शायद इसीलिए एक सपने की तरह वह दिखाई पड़ रही है। कोई भ्रम तो नहीं.। उसने
आंखें पोंछीं। वह प्रेयसी हंसने लगी। उसने कहा कि क्या सोचते हो? मुझे क्या भ्रम समझते हो?
वह कैप गया। उसने कहा, तू लेकिन आई कैसे और मैं तुझी को पत्र लिख
रहा था। पागल, तूने रोका
क्यों नहीं? तू सामने थी
और मैं तुझी को पत्र लिख रहा था।
परमात्मा सामने है और हम उसी से प्रार्थना
कर रहे हैं कि मिलो, हे प्रभु तुम
कहां हो? आंखों से आंसू
बह रहे हैं, लेकिन हमारी
आंसुओ की दीवाल के कारण, जो सामने है, दिखाई नहीं पड़ रहा है। हम उसी को तलाश रहे
हैं। तलाश के कारण ही हम उसे खो रहे हैं।
अष्टावक्र की बात तो बड़ी सीधी—साफ है। वे कहते हैं. बंद करो यह लिखा—पढ़ी! बंद करो अनुष्ठान!
समाधि घटती नहीं। ही, अगर समाधि भी एक घटना होती, तो फिर कार्य—कारण से घटती। कार्य—कारण से घटती तो बाजार की चीज हो जाती।
समाधि अछूती और कुंआरी है; बाजार में
बिकती नहीं। तुमने कभी खयाल किया,
तुम्हारा बाजारू दिमाग परमात्मा को भी बाजार में रख लेता है! तुम सोचते हो कि
इतना करेंगे तो परमात्मा मिल जाएगा,
जैसे कोई सौदा है! पुण्य करेंगे तो परमात्मा मिल जाएगा। तुम्हारे तथाकथित साधु—संत भी तुमसे यही कहे चले जाते हैं :
पुण्य करो, अगर परमात्मा
को पाना है। जैसे परमात्मा को पाने के लिए कुछ करना पड़ेगा! जैसे परमात्मा बिना
किये मिला हुआ नहीं है! जैसे परमात्मा को खरीदना है, मूल्य चुकाना पड़ेगा। इतने पुण्य करो, इतनी तपश्चर्या, इतना ध्यान, इतना मंत्र,
जप, तप—तब मिलेगा! बाजार में रख लिया तुमने।
बिकने वाली एक चीज बना दी। खरीददार खरीद लेंगे। जिनके पास है पुण्य, वे खरीद लेंगे। जिनके पास पुण्य नहीं है
वे वंचित रह जायेंगे। पुण्य के सिक्के चाहिए;
खनखनाओ पुण्य के सिक्के, तो मिलेगा।
अष्टावक्र कह रहे हैं. क्या पागलों जैसी
बात कर रहे हो? पुण्य से
मिलेगा परमात्मा? तब तो
खरीददारी हो गई। पूजा से मिलेगा परमात्मा?
तो तुमने तो खरीद लिया। प्रसाद कहां रहा?
और जो कारण से मिलता है, वह कारण अगर
खो जायेगा, तो फिर खो
जायेगा। जो अगर कारण से मिलता हो,
तो कारण के मिट जाने से फिर छूट जायेगा।
तुमने धन कमा लिया। तुमने खूब मेहनत की, तुमने खूब स्पर्धा की बाजार में—धन कमा लिया। लेकिन क्या तुम सोचते हो, धन कमाया हुआ टिकेगा? चोर इसे चुरा सकते हैं। चोर का मतलब है, जो तुमसे भी ज्यादा जीवन को दाव पर लगा
देता है। दुकानदार भी मेहनत करता है,
लेकिन चोर अपने जीवन को भी दाव पर लगा देता है। वह कहता है, लो हम मरने—मारने को तैयार हैं,
लेकिन लेकर जायेंगे। तो वह ले जाता है।
जो कारण से मिला है, वह तो छूट सकता है। परमात्मा अकारण मिलता
है। लेकिन हमारा अहंकार मानता नहीं। हमारा अहंकार कहता है, अकारण मिलता है, तो इसका मतलब यह कि जिन्होंने कुछ भी नहीं
किया, उनको भी मिल जायेगा? यह बात हमें बड़ी कष्टकर मालूम होती है कि
जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनको भी मिल
जायेगा।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
No comments:
Post a Comment