कभी सोचो इस बात को: कितना सिर मारा कृष्ण
ने, तभी तो गीता बनी! काफी
सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दावपेंच लगाता रहा! बड़ी देर तक यह
मल्लयुद्ध चला! और जब अर्जुन ने अंततः यह कहां कि 'मेरे सब संदेह गिर गये; निरसन हो गया मेरे संदेहों का'—तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही
लगता है कि वह घबडा गया, कि बकवास कब
तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाये चला जायेगा! यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।
तर्क उसका हार गया—वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की
कथा इस बात को प्रगट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गये रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर
और उनका कुत्ता, दो पहुंचे
स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी, और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था।
महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है
कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया—कि अब कब तक
तर्क करो! कब तक प्रश्न करो? इससे बेहतर है—निपट ही लो। उठाओ गांडीव—जूझ जाओ युद्ध में। मरो—मारो—झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास
प्रबल तर्क है। मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं
हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने—सामने थे; जिनमें मैत्री थी; संबंध था; एक—दूसरे के
प्रति सदभाव था।
तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार
साल का फासला हो गया! तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे? तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा। हौ, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल
जायेगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग—अलग नहीं होते
हैं।
सत्य को मैं जानूं कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने कि ब जाने कि स जाने, सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का
अनुभव हो जाये, तो बाइबिल और
वेद और दवेस्ता—सब के अर्थ एक
साथ खुल जायेंगे।
लोग मुझसे पूछते हैं कि 'क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?' अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा
ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है,
यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मानकर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने
यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।
लोग मुझसे पूछते हैं कि 'क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?' पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र
मैंने पढ़ा—अपने भीतर—और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों
के अर्थ प्रगट हो गये। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है, जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे
क्या फर्क पड़ता है!
मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीये की रोशनी में झलकेगा। और
तुम कुरान लाओगे, तो कुरान
झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद
झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे—उस रोशनी में
झलकेगा।
दीये को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने
रखा है कि कुरान कि बाइबिल! दीये की रोशनी तो पड़ेगी—सब पर समान,
समभाव
अनहद में बिसराम
ओशो
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