एक राजकुमार था बचपन से ही सुन रहा था कि
पृथ्वी पर एक ऐसा नगर भी है जहां कि सभी लोग धार्मिक हैं। बहुत बार उस धर्म नगर की
चर्चा, बहुत बार उस धर्म नगर
की प्रशंसा उसके कानों में पड़ी थी। जब वह युवा हुआ और राजगद्दी का मालिक बना तो
सबसे पहला काम उसने यही किया कि कुछ मित्रों को लेकर, यह उस धर्म नगरी की खोज में निकल पड़ा।
उसकी बड़ी आकांक्षा थी, उस नगर को देख
लेने की, जहां कि सभी
लोग धार्मिक हों। बड़ा असंभव मालूम पड़ता था यह। बहुत दिन की खोज, बहुत दिन की यात्रा के बाद, वह एक नगर में पहुंचा, जो पड़ा अनूठा था। नगर में प्रवेश करते ही
उसे दिखाई पड़े ऐसे लोग, जिन्हें देख
कर वह चकित हो गया और उसे विश्वास भी न आया कि ऐसे लोग भी कहीं हो सकते हैं।
उस नगर का एक खास नियम था, उसके ही परिणाम स्वरूप यह सारे लोग अपंग
हो गए हैं। देखो, द्वार पर लिखा
है, कि अगर तेरा बांया हाथ
पाप करने को संलग्न हो तो उचित है कि तू अपना बायां हाथ काट देना बजाय कि पाप करे।
देखो, लिखा है द्वार पर कि
अगर तेरी एक आंख तुझे गलत मार्ग पर ले जाए तो अच्छा है कि उसे तू निकाल फेंकना, बजाय इसके कि तू गलत रास्ते पर जाए।
इन्हीं वचनों का पालन करके यह गांव अपंग हो गया है।
छोटे-छोटे बच्चे, जो अभी द्वार पर लिखे इन अक्षरों को नहीं
पढ़ सकते हैं, उन्हें छोड़
दें तो इस नगर में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो धर्म का पालन करता हो और अपंग न
हो गया हो।
वह राजकुमार उस द्वार के भीतर प्रविष्ट
नहीं हुआ, क्योंकि वह
छोटा बच्चा नहीं था और द्वार पर लिखे अक्षरों को पढ़ सकता था। उसने घोड़े वापस कर
लिए और उसने अपने मित्रों को कहाः हम वापस लौट चलें, अपने अधर्म के नगरों को, कम से कम आदमी वहां पूरा तो है!
इस कहानी से इसलिए मैं अपनी बात शुरू करना
चाहता हूं कि सारी जमीन पर धर्मों के तथाकथित रूप ने आदमी को अपंग किया है। उसके
जीवन को स्वस्थ और पूर्ण नहीं बनाया बल्कि उसके जीवन को खंडित, उसके जीवन को अवस्था, पंगु और कुंठित किया है। उसके परिणाम
स्वरूप सारी दुनिया में, जिनके भीतर भी
थोड़ा विचार है, जिनके भीतर भी
थोड़ा विवेक है, जो थोड़ा सोचते
हैं और समझते हैं, उन सब के मन
में धर्म के प्रति एक विद्रोह की तीव्र भावना पैदा हुई है। यह स्वाभाविक भी है कि
यह भावना पैदा हो। क्योंकि धर्म ने,
तथाकथित धर्म ने जो कुछ किया है,
उससे मनुष्य आनंद को तो उपलब्ध नहीं हुआ,
वरन उदास, और चिंतित और
दुखी हो गया है।
निश्चित ही, मेरे देखे,
मनुष्य को कुंठित और पंगु करने वाले धर्म को धर्म नहीं कहता हूं। मैं तो यही
कहता हूं कि अभी तक धर्म का जन्म नहीं हो सका है। धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित
है, धर्म के नाम से जो
मंदिर और मस्जिद और ग्रंथ और शास्त्र गुरु है, धर्म के नाम पर पृथ्वी पर जो इतनी दुकानें है, उन सबसे धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। और
यदि हम ठीक-ठीक धर्म को जन्म न दे सके तो इसका एक ही परिणाम होगा कि आदमी अधार्मिक
होने को मजबूर हो जाएगी।
आदमी विवशता में अधर्म की और गया है धर्म
ने आकर्षण नहीं दिया, बल्कि विकर्षण
पैदा किया है। धर्म ने बुलाया नहीं,
बल्कि दूर किया है। और अगर,
इसी तरह के धर्म का प्रचलन भविष्य में भी रहा, तो हो सकता है कि मनुष्य के वचन की को, संभावना भी न रह जाए। धर्मों ने ही धर्म
को जन्म लेने से रोक दिया है, और उनके रोकने
का जो बुनियादी कारण है, वह यही है कि
अब तक हमने, मनुष्य-जाति
ने मनुष्य को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार करने का साहस नहीं दिखलाया। मनुष्य के
कुछ अंगों को खंडित करके ही हम मनुष्य को स्वीकार करने की बात सोचते रहे। समग्र
मनुष्य को, टोटल मनुष्य
को विचार में लेने की अब तक हमने हिम्मत नहीं दिखाई है। मनुष्य को काट कर, छांट कर, ढांचे में ढालने की हमने कोशिश की है। उसके परिणाम में, मनुष्य तो पंगु हो गया और जिनमें थोड़ा भी
विचार है, वे उन ढांचों
से दूर रहने के लिए मजबूर हो गए।
आठों पहर यूं झूमिए
ओशो
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