संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय
लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है
संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने
की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह
शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।
तो जो व्यक्ति ध्यान को जीवन के और कामों
में एक काम की तरह करता है। चौबीस घंटों में बहुत कुछ करता है, घंटेभर ध्यान भी कर लेता है—निश्रित ही उस
व्यक्ति के बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान को समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक—ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी—जो ध्यान को अपने चौबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर
गया है।
निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति
देगा। और ध्यान संन्यास के लिए गति देता है। ये संयुक्त घटनाएं हैं। और मनुष्य के
मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय
किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए
'क्रिस्टलाइजेशन', समग्रीकरण बन
जाता है।
कभी बैठे—बैठे इतना ही
सोचें कि चोरी करनी है तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं—तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए
जो मददरूप है. वह मन आपको देना शुरू कर देता है—सुझाव कि क्या
करें, क्या न करें, कैसे कानून से
बचें, क्या होगा, क्या नहीं
होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरू कर देता है। मन आपका
गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए
सुविधा शुरू कर देता है कि अब जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि फंस न जाएं मन इसका इंतजाम जुटा देता
है।
जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं
संन्यास लेता हूं कि मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल
में निर्णय न लेनेवाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की
कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो
अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है— 'इनडिसीसिवनेस
इज माइंड'। निर्णय की क्षमता, डिसीसिवनेस, ही मन से
मुक्ति हो जाती है। वह जो निर्णय है, संकल्प है, बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे
चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं
है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से हम बहुत पीड़ित और
परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है, संन्यास के बाद तो होगा ही—निर्णय लेते
ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।
मैं कहता आँखन देखी
ओशो
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