निश्चित ही, ज्ञान से भी मुक्त
हो जाना जरूरी है। किस ज्ञान से?
जो केवल शब्दों, विचारों, सिद्धांतों और किताबों से उपलब्ध होता है।
उसमें कोई प्राण नहीं होते, वह एकदम
निष्प्राण, थोथा, बासा, उधार, बारोड होता है। उसमें कोई
प्राण नहीं होते, वह जीवन को कोई
गति नहीं देता। वह वैसा ही होता है, जैसे एक आदमी तैरने के संबंध में किताबें पढ़ ले, बहुत किताबें पढ़ ले। दुनिया में जितनी किताबें लिखी हैं,
पढ़ ले। दस-पांच भाषाएं सीख ले, तो दस-पांच भाषाओं में जितनी किताबें हैं,
वह पढ़ ले। पचास साल जिंदगी के खतम कर दे,
और तैरने के बाबत दुनिया का सबसे बड़ा विचारक हो
जाए। और भाषण उससे करवाने हों, तो तैरने के बाबत
घंटों भाषण कर सके। किताबें लिख सके, युनिवर्सिटीज में व्याख्यान दे सके, तर्क कर सके, विवाद कर सके।
लेकिन उस आदमी को जरा सी नदी में पानी में धक्का दे दें, तो पता चल जाए कि वह पचास वर्ष में जो जाना था, किस अर्थ का है? किस कीमत का है? किस प्रयोजन का है? वह ज्ञान था।
लेकिन तैरना ज्ञान से नहीं आता, तैरना तैरने से
आता है। और तैरना और ही बात है।
एक फकीर था, मुल्ला
नसरुद्दीन। वह एक नदी पर कुछ दिनों तक मांझी का काम करता था। छोटी सी नाव थी,
उसमें लोगों को पार ले जाता था। उस गांव का एक
बहुत बड़ा विद्वान, गणितज्ञ, बहुत पुरानी भाषाओं का जानने वाला पंडित,
वह एक दिन उसकी नाव पर बैठा और नदी के पार गया।
बीच में सहज ही उसने नसरुद्दीन को कहाः तुम गणितशास्त्र जानते हो? वह गणितशास्त्र का पंडित था।
नसरुद्दीन ने कहाः नहीं, महाराज!
उस पंडित ने कहाः तेरा चार आना जीवन व्यर्थ हो गया। फिर थोड़ी बात आगे चली,
उसने कहाः तू धर्मशास्त्र जानता है?
उसने कहाः नहीं, महाराज!
उस पंडित ने कहाः तेरा और चार आना जीवन नष्ट हो गया; आठ आना बेकार हो गया। और थोड़ी बात चली, उसने कहाः तू दर्शनशास्त्र जानता है?
उस मल्लाह ने कहाः नहीं, महाराज!
वह पंडित हंसने लगा, उसने कहाः तू
जीवन बेकार ही करने को उतारू है क्या? बारह आना जीवन नष्ट हो गया।
और तभी उठ आया जोर का तूफान, नाव डगमगाने लगी।
तो मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछाः पंडितजी, तैरना आता है?
उन्होंने कहाः नहीं।
मुल्ला ने कहाः आपका सोलह आना जीवन नष्ट होता है। मैं चला, मुझे तैरना आता है। बारह आना नष्ट हुआ, कोई फिकर नहीं, चार आना बचा रहेगा। लेकिन आपका सोलह आना नष्ट होता है,
हुआ नहीं। मैं जा रहा हूं।
जिंदगी में भी किताबें तैरना नहीं सिखाती हैं और न परमात्मा में तैरना सिखाती
हैं। परमात्मा की नदी में भी केवल वे ही लोग पार होते हैं, जो परमात्मा को जीने की कोशिश करते हैं, जानने की नहीं। जीने से जानना निकल आता है,
लेकिन जानने से जीना नहीं निकलता। जो आदमी जी
लेता है, वह जान लेता है; लेकिन जो जानने में लगा रहता है, वह जी तो पाता ही नहीं, जान भी नहीं पाता है। शब्द इकट्ठे कर लेता है--उपनिषद,
गीता, कुरान, बाइबिल, सब उसे कंठस्थ हो जाते हैं। लेकिन शब्द तैराते
नहीं, शब्द नाव नहीं बन सकते,
शब्द प्राण नहीं बन सकते। शब्द बोझ बन जाते हैं
उलटे, हलका नहीं करते आदमी को,
और भारी कर देते हैं। जितना सिर पर किताबों का
बोझ होता है, आदमी उतना और
छोटा हो जाता है, बड़ा नहीं। बोझ
दबा देता है।
इसलिए मैंने कहा कि शब्दों से आने वाला ज्ञान साथी नहीं है, संगी नहीं है, उस ज्ञान को छोड़ देना जरूरी है। और जो उस ज्ञान को छोड़ कर
जीवन-सत्य के प्रति शांत होकर जीवन-सत्य को जीने की दिशा में गतिमान होता है,
वह जान पाता है एक दिन उस सबको--उस सबको,
जो शब्दों में कहा गया, लेकिन कहा नहीं जा सका है; उस सबको, जो शास्त्रों में
बांधा गया, लेकिन बंध नहीं पाया;
उस सब सौंदर्य को, उस सब प्रेम को, उस सब आनंद को, उस परमात्मा को,
जो सब तरफ मौजूद है, वह जान पाता है जो धर्म में तैरना सीखता है।
अपने माहीं टटोल
ओशो
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