साधारण आदमी खोजना ही
मुश्किल है। अगर कहीं मिल जाए तो उसके चरण छूना, क्योंकि वह
असाधारण है। जो जानता हो कि मैं साधारण हूं, उसके जीवन में
असाधारण की शुरुआत हो गई।
और
निश्चित ही संन्यास का यही प्रयोजन है कि मैं तुम्हें बोध दिलाऊं--तुम्हारे
वास्तविक जीवन का,
तुम्हारी मूर्च्छा कर, तुम्हारे क्रोध का,
तुम्हारे मोह का, तुम्हारे लोभ का। इसलिए
तुमसे भागने को नहीं कहता, क्योंकि भाग जाओगे तो बोध कैसे
होगा? घर-द्वार छोड़ कर जंगल में बैठ जाओगे तो वहां तो शांति
मालूम होगी ही। कोई कारण नहीं है अशांत होने का। पत्नी मांग नहीं करती कि आज यह
नहीं लाए वह नहीं लाए; नोनत्तेल-लकड़ी का कोई उपद्रव नहीं है;
बच्चों की फीस नहीं भरनी, कालेज में भरती नहीं
करवाना; लड़की की शादी नहीं करनी; बूढ़ा
बाप, बूढ़ी मां सिर नहीं खाते; मुहल्ले-पड़ोस
के लोग जोर-जोर से रेडियो नहीं बजाते। कुछ भी तो नहीं हो रहा। सब सन्नाटा है।
तुम
वृक्ष के नीचे बैठे, तो स्वभावतः लगेगा शांत हो गए। मगर यह कोई
शांति नहीं है। यह शांति का धोखा है। छोड़ दिया सब, तब क्या
असफलता और क्या सफलता? जंगल में न असफलता होती न सफलता होती।
तुम नंग-धड़ंग बैठो तो जंगल के जानवरों को कोई मतलब नहीं; तुम
रंग-रोगन लगा कर बैठो तो उन्हें कोई मतलब नहीं। न तुम्हारी प्रशंसा को आएंगे,
न निंदा को आएंगे। ध्यान ही नहीं देंगे। वहां तो तुम अकेले हो।
यहां
भीड़-भाड़ में धक्का-मुक्की हो रही है; चारों तरफ से धक्के लग रहे हैं,
रेलमपेल है! यहां गुस्सा भी आएगा, क्रोध भी
आएगा, लोभ भी पकड़ेगा, मोह भी पकड़ेगा।
दूसरे आगे बढ़े जा रहे हैं। यहां तो कुछ न कुछ हो ही रहा है।
एक
व्यक्ति नदी में कूदने जा ही रहा था कि मुल्ला नसरुद्दीन ने दौड़ कर उसकी कौलिया भर
ली। वह व्यक्ति छूटने के लिए जोर मारने लगा और बोला, मैं दुनिया से तंग आया हूं,
मुझे छोड़ दो। मैं मरूंगा।
मगर
मुल्ला ने कभी कस कर उसको पकड़ा। वह बोला कि हद हो गई, अरे न
जीने देते न मरने देते! तेरा मैंने क्या बिगाड़ा भाई? कभी
जिंदगी में मिला नहीं, कभी जिंदगी में किसी काम आया नहीं;
अब मरने जा रहा हूं तो कूदने क्यों नहीं देता? तू और कहां से आ टपका!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा कि सुन भैया, अगर तू पानी में छलांग लगाएगा तो तुझे बचाने के
लिए मुझे भी कूदना पड़ेगा। डूब तुम सकोगे नहीं। दया के कारण मुझे बचाना ही पड़ेगा।
और मेरे सिवाय यहां कोई और है भी नहीं, सो मैं ही फंसूंगा।
अब देखते हो, सर्दी कितने जोर की पड़ रही है! पानी बिलकुल
बर्फ हो रहा है। और जब तक तुम्हें एंबुलेंस लेने आएगी, हमें यहीं
बैठा रहना होगा--गीले कपड़े, ठंडी हवा, बर्फ
जैसा पानी। तू तेरी जान, मगर मुझे निमोनिया हो जाए तो फिर
कौन जिम्मेवार? तुम तो चले अपनी स्वतंत्रता बताने, आखिर हमें भी जीने का हक है कि नहीं? ऐसा कर भैया कि
घर जाकर फांसी लगा ले। मुझे क्यों झंझट में डालता है? या फिर
नुक्कड़ वाले डाक्टर से कोई भी दवा लेकर खा लेना, मरने में
कठिनाई नहीं होगी। उस डाक्टर के पास जिसको मैंने जाते देखा, उसको
मरते देखा। तू क्यों इतना कष्ट करता है? इतने ऊपर से कूदेगा,
टांग-वांग टूट गई और बच गया...और मुझे बचाना ही पड़ेगा, यह मैं तेरे से कह दे रहा हूं। आखिर लाज-शरम भी तो है कुछ!
यहां
मर भी नहीं सकते,
जी भी नहीं सकते। यहां तो कुछ न कुछ रुकावट है, बाधा है। यहां तो हर चीज, जब तक कि तुम ध्यान-मग्न न
हो जाओ, तुम्हें अवसर देगी उद्विग्न होने का, विक्षिप्त होने का। यहां बहुत निमंत्रण हैं, चारों
तरफ प्रलोभन हैं। इश्तहार पर इश्तहार लगे हैं, जो बुला रहे
हैं कि आओ, जिंदगी इसको कहते हैं!
लिव्वा लिटिल हाट, सिप्पा गोल्ड-स्पाट! जीओ, कुछ गरम-गरम जीओ! क्या
बैठे-बैठे कर रहे हो, गोल्ड-स्पाट पियो! खाली बैठे हो तो भी
सामने लगा है इश्तहार, कब तक बैठते देखते रहोगे, एकदम दिल में कुलबुली उठेगी कि एक दफा देखो तो यह गोल्ड-स्पाट क्या है! और
अपन यूं ही जिंदगी जीए जा रहे हैं, बिना ही गोल्ड-स्पाट पीए,
पता नहीं हो कुछ राज इसमें!
यहां
प्रलोभन हैं,
आकर्षण हैं, सब तरह के भुलावे हैं, सब तरह के छलावे हैं। भाग गए जंगल में, वहां तो कुछ
भी नहीं है। न कोई इश्तहार, न कोई बुलावा, न कोई निमंत्रण, न कोई पार्टी, न कोई जुआघर, न कोई वेश्यालय, कुछ
भी नहीं। बैठे रहो, मजबूरी में भजन ही करोगे, करोगे क्या और! मगर मजबूरी का भजन कोई भजन है?
इसलिए
मैं नहीं कहता मेरे संन्यासी को कि तुम भागो। मैं तो कहता हूं, जम कर
यहीं रहो और यहीं रह कर जीओ और यहीं रह कर जागो! और जागना किस चीज से है? जागना इस बात से कि हमारी मूर्च्छा हमें साधारण बनाए हुए है; हमारा अहंकार हमें साधारण बनाए हुए है। और मजा यह है कि हमारा अहंकार हमें
समझाता है कि हम असाधारण हैं, हम विशिष्ट हैं, हम खास हैं, हम अद्वितीय हैं। अहंकार ही के कारण हम
अद्वितीय नहीं हो पा रहे हैं। और वही हमें समझा रहा है कि हम अद्वितीय हैं। झूठे
सिक्के पकड़े रहोगे तो असली सिक्के कैसे खोजोगे?
संन्यास
का अर्थ है झूठे सिक्कों से मुक्त होना, ताकि असली सिक्के पाए जा सकें। असली
भी यहीं है, नकली भी यहीं है। जंगल गए तो असली भी नहीं हैं,
नकली भी नहीं हैं। जंगल में सिक्के ही नहीं हैं। जंगल में तो तुम
खाली अकेले हो। वहां धोखा तुम अपने को आसानी से दे सकते हो। गुफाओं में बैठ कर बड़ी
आसानी से सोच सकते हो कि मुक्त हो गए। बाजार में बैठ कर मुक्त हो जाओ तो मुक्ति
है।
प्रीतम छवि नैनन बसी
ओशो
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