मैं जो भी बोलता हूं, बोल दिया कि मेरा संबंध छूट गया उससे। फिर
मेरा क्या रहा उसमें? जो बात मैंने
तुमसे कह दी, तुम्हारी हो गई।
दूसरे क्षण में जो बात मैं कहूंगा,
वह हो सकता है पहली के विपरीत दिखाई पड़ती हो; लेकिन अब पहली को बदलने वाला मैं कौन हूं? जिस क्षण में पहली बात उठी थी, वह क्षण न रहा। उस क्षण के न रह जाने से
अब उसे वापिस करने का भी कोई उपाय नहीं रह गया है। इसलिए मैं पीछे लौट कर देखता ही नहीं। उस क्षण में वही
सत्य था जो मैंने कहा। वह उस क्षण का सत्य था। और संगति में मेरी श्रद्धा नहीं है।
मेरी श्रद्धा सत्य में है। मैं जो भी कहूं वह एक—दूसरे से संगत हो,
ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है। क्योंकि अगर एक—दूसरे से मैं जो भी कहूं वे सब वक्तव्य संगत होने चाहिए तो
मैं असत्य हो जाऊंगा। क्योंकि सत्य स्वयं बहुत विरोधाभासी है। कभी सुबह है, कभी रात है। और कभी धूप है और कभी छाव है।
और कभी जीवन है और कभी मृत्यु है। सत्य के मौसम बदलते हैं। सत्य बड़ा विरोधाभासी
है। राम में भी है, रावण में भी
है। शुभ में भी है, अशुभ में भी
है। सत्य के अनेक रूप हैं। सत्य अनेकांत है।
इसलिए जो मैंने एक क्षण में कहा वह सत्य
का एक पहलू था; दूसरे क्षण
में जो कहा वह सत्य का दूसरा पहलू होगा;
तीसरे क्षण में जो कहा वह सत्य का तीसरा पहलू होगा। वे सभी सत्य के पहलू हैं, लेकिन सत्य विराट है। शब्द में तो छोटा—छोटा ही पकड़ में आता है, पूरा तो कभी पकड़ में नहीं आता। नहीं तो एक
बार कह कर बात खतम कर देता। पूरा नहीं आता पकड़ में। पूरा आ नहीं सकता। शब्द बड़े
संकीर्ण हैं। सत्य तो है आकाश जैसा और शब्द हैं छोटे —छोटे आँगन।
तो जितना आँगन में समाता है उतना उस बार
कह दिया। कल के आँगन में कुछ और समायेगा परसों के आँगन में कुछ और।
तो मैं पीछे लौट कर नहीं देखता। और पीछे
लौट कर देखने का अर्थ भी क्या है?
न मैं आगे की फिक्र करता, न मैं पीछे की
फिक्र करता। इस क्षण में जो घटता है घट जाने देता हूं। फिक्र नहीं करता, क्योंकि मैं कोई कर्ता नहीं हूं। मैं अगर
कहूं कि दस साल पहले जो मैंने कहा था,
अब मैं वापिस लेता हूं—तो उसका तो
अर्थ यह हुआ कि उसका कर्ता मैं था। और अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि उससे झंझट आ रही
है; अब मैं जो कह रहा हूं
वह उसके विपरोत पडता है, इसलिए साफ—सुथरा कर लेना, उसे वापिस ले लेना। लेकिन जो दस साल पहले
कहा गया था, किसी संदर्भ
में, किसी परिस्थिति में
किसी व्यक्ति की मौजूदगी में, किसी चुनौती
में, वह उस क्षण का सत्य
था। उसे वापिस लेने का मुझे कोई अधिकार नहीं। उसे मैंने बोला भी नहीं था, तो वापिस लेने का मेरा क्या अधिकार है? मैं उसका मालिक नहीं हूं। जो मुझसे बोला
था उस क्षण वही मुझसे अब भी बोल रहा है—इतना मैं
जानता हूं। उस क्षण उसने ऐसा बोलना चाहा था,
इस क्षण ऐसा बोल रहा है। अगर इसमें किसी को संगति बिठानी हो तो परमात्मा, वह फिक्र करे। मैंने अपने को बांसुरी की
तरह छोड़ दिया है।
अब बांसुरी यह थोड़े ही कहेगी कि 'कल तुमने एक गीत गाया और आज तुम दूसरा
गाने लगे? हे वेणु—वादक, रुको! यह असंगति हुई जाती है। कल तुम कोई और राग छेड़े थे, आज तुमने कोई राग छेड़ दिया। नहीं—नहीं, या तो जो कल गाया था वही गाओ, या फिर आज जो तुम गा रहे हो तो कल के लिए क्षमा मांग लो।’ बांसुरी ऐसा कहेगी. जिसने कल गाया था, वही आज भी गा रहा है। कल उसने उस राग को
पसंद किया था, आज उसने कोई
और राग चुना है।
मैं बीच में पड़ने वाला कौन इसलिए मुझे
चिंता नहीं सताती।
तुम्हारा प्रश्न भी ठीक है। कोई दूसरा
व्यक्ति इतने वक्तव्य देता तो या तो पागल हो जाता. क्योंकि अगर इतना बोझ अपने सिर
पर रखता तो विक्षिप्त हो जाता। इन सबके बीच कैसे हिसाब बिठाता, कितने गीत गाये गये? मगर मैं तो जो गीत इस क्षण गाया जा रहा है, उससे ही संबंधित हूं। उससे अन्यथा का मुझे
कुछ हिसाब नहीं है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
No comments:
Post a Comment