पुरुष ध्यान की तो ऊंचाइयों पर उठा, लेकिन प्रेम की ऊंचाइयों पर
नहीं उठ सका। इसलिए स्त्रियां ही सती हुईं। भक्ति स्त्री के लिए सुगम है। भाव की
बात है। हृदय की बात है।
बुद्ध हुए, महावीर हुए, पतंजलि हुए--ये सब ध्यानी हैं। लेकिन
पुरुषों में एक भी अपनी प्रेयसी पर नहीं मरा--इतना डूबा नहीं एक में! पुरुष का
चित्त चंचल होकर दौड़ता ही रहा। अनेक स्त्रियां एक पुरुष में डूब गईं; सती की ऊंचाई पर उपलब्ध हुईं।
पुरुषों में जो संत की दशा है, वही स्त्रियों में सती की दशा है। और दोनों
शब्द बने हैं सत् से। इसे स्मरण रखना। सती क्यों कहा? जो
शब्द "संत' को बनाता है "सत्', वही शब्द "सती' को बनाता है। सती यानी
संत--प्रेम का संतत्व। एक में डूब गयी। इस तरह डूब गयी कि अपने जीवन का अलग होने
का कोई प्रयोजन ही न बचा; अलग होने की कोई धारणा ही न बची,
कोई विचार न बचा। तो जब प्रेमी गया तो प्रेमी के साथ चिता पर चढ़
गयी। इसमें न तो आत्मघात है। इसमें न अपने साथ जबरदस्ती है। यहां तो प्रश्न ही
नहीं बचा। दोनों एक ही हो गए थे। इसलिए न तो यह आत्मघात है और न यह स्त्री अपने
शरीर की दुश्मन है। और न यह कोई हिंसा कर रही है। यह तो प्रेम की परम प्रतिष्ठा हो
रही है।
यह तो जब सती की धारणा आकाश छू रही थी, तब की बात। फिर धीरे-धीरे
यह विकृत हुई। फिर पुरुष के अहंकार ने इसको विकृत कियाः स्त्री के अहंकार ने इसको
विकृत किया। फिर ऐसी स्त्रियां भी सती होने लगीं, जिनको पति
से कुछ मतलब न था; लेकिन प्रतिष्ठा के लिए होने लगीं। अगर
सती न हों तो लोग समझते हैंः "पतिव्रता नहीं हो।' मजबूरी
से होने लगीं। कर्तव्य भाव से होने लगीं। जो प्रेम से घटती थी महान् घटना, वह जब कर्तव्य हो गयी तो फिर महान् नहीं रही, क्षुद्र
हो गयी, साधारण हो गयी। सोच-विचार कर मरने लगी। लोग क्या
कहेंगे, लोक-लाज से मरने लगीं।
और लोग भी ऐसे मूढ़ थे कि उन्होंने इसे नियम भी बना लिया। अगर
कोई पति मरे, उसकी
पत्नी उसके साथ न मरे, तो लोग कहने लगे: "अरे, यह भ्रष्ट है। यह सती नहीं है।' तो इतना अपमान और
अनादर होने लगा कि उससे यही बेहतर था कि मर ही जाओ। इतना अनादर, इतना अपमान सहने से यही बेहतर था मर जाओ। लेकिन यह मर जाना दुःखपूर्ण था;
यह आत्मघात था। फिर हालत और भी बिगड़ी। फिर तो हालत यहां तक बिगड़ी कि
जो स्त्रियां न मरें. . . क्योंकि कुछ स्त्रियां ऐसी भी थीं. . . और स्वाभाविक,
क्योंकि जीवेषणा बड़ी प्रबल है, हजार में कोई
एकाध सती हो सकती है। जब तुम नौ सौ निन्यानबे को भी उसके साथ डालने लगोगे तो झंझट
आएगी। शायद नौ इसलिए सती हो जाएं कि लोक-लज्जा से मर जाना बेहतर है। लोक-लाज खोने
से मरना बेहतर है। प्रतिष्ठा से मर जाना बेहतर है अप्रतिष्ठा से जीने की बजाय। तो
शायद हजार में नौ इसलिए मर जाएं। मगर, वे जो नौ सौ नब्बे
बचती हैं, उनके लिए क्या उपाय है? उनमें
से नौ सौ नब्बे ने तो यही तय किया कि चाहे अप्रतिष्ठा से जीना हो, मगर जीएंगे। जीना इतना महत्त्वपूर्ण है! इसमें कुछ उन्होंने बुरा किया,
ऐसा मैं कह भी नहीं रहा हूं। इसमें निंदा की कोई बात ही नहीं थी;
यह बिल्कुल स्वाभाविक है। जिन्होंने सती होना चुना--एक हजार
में--उसने तो बड़ा अतिमानवीय कृत्य किया; उसने तो प्रार्थना
का अपूर्व कृत्य किया। उसका तो जितना सम्मान हो, थोड़ा है।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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