मेरे प्रिय आत्मन्!
जो बाहर है,
वह एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। और जो सत्य है, वह भीतर है। जो दृश्य है, वह परिवर्तन है। और जो
द्रष्टा है, वह सनातन है।
सत्य की खोज में विज्ञान बाहर देखता है, धर्म भीतर देखता है।
विज्ञान परिवर्तन की खोज है, धर्म शाश्वत की। और सत्य शाश्वत
ही हो सकता है। इस शाश्वत सत्य की दिशा में तीसरा सूत्र साक्षीभाव है। द्रष्टा को
खोजना है, तो द्रष्टा बने बिना और कोई रास्ता नहीं है।
लेकिन हम सब हैं सोए हुए लोग। हम सब करीब-करीब सोए-सोए जीते हैं, सोए-सोए ही जागते हैं।
बुद्ध एक सुबह प्रवचन करते थे। कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे।
सामने ही बैठ कर एक भिक्षु पैर का अंगूठा हिलाता था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया
और उस भिक्षु को पूछा कि यह पैर का अंगूठा तुम्हारा क्यों हिल रहा है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा,
पैर का अंगूठा हिलना बंद हो गया। उस भिक्षु ने कहा, आप भी कहां की फिजूल बातों में पड़ते हैं! आप अपनी बात जारी रखिए। बुद्ध ने
कहा, नहीं; मैं यह पूछे बिना आगे नहीं
बढूंगा कि तुम पैर का अंगूठा क्यों हिला रहे थे? उस भिक्षु
ने कहा, मैं हिला नहीं रहा था, मुझे
याद भी नहीं था, मुझे पता भी नहीं था।
तो बुद्ध ने कहा,
तुम्हारा अंगूठा है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं; तो तुम सोए हो या जागे हुए हो?
और बुद्ध ने कहा, पैर का अंगूठा हिलता है,
तुम्हें पता नहीं; मन भी हिलता होगा और
तुम्हें पता नहीं होगा। विचार भी चलते होंगे और तुम्हें पता नहीं होगा। वृत्तियां
भी उठती होंगी और तुम्हें पता नहीं होगा। तुम होश में हो या बेहोश हो? तुम जागे हुए हो या सोए हुए हो?
यदि हम गौर से देखें,
तो आंखें खुली होते हुए भी हम अपने को होश में नहीं कह सकते। हमारा
मन क्या कर रहा है इस क्षण, वह भी हमें ठीक-ठीक पता नहीं।
अगर कभी दस मिनट एकांत में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें,
और मन में जो चलता हो उसे एक कागज पर लिख लें--जो भी चलता हो,
ईमानदारी से--तो उस कागज को आप अपने प्रियजन को भी बताने के लिए
राजी नहीं होंगे। मन में ऐसी बातें चलती हुई मालूम पड़ेंगी कि लगेगा क्या मैं पागल
हूं? ये बातें क्या हैं जो मन में चलती हैं? खुद को भी विश्वास नहीं होगा कि यह मेरा ही मन है जिसमें ये सारी बातें
चलती हैं!
लेकिन हम भीतर देखते ही नहीं, बाहर देख कर जी लेते हैं। मन में क्या चलता है,
पता भी नहीं चलता। और यही मन हमें सारी क्रियाओं में संलग्न करता
है। इसी मन से क्रोध उठता है, इसी मन से लोभ उठता है,
इसी मन से काम उठता है। इस मन के गहरे में न हम कभी झांकते हैं,
न कभी इस मन के गहरे में जागते हैं। जो भी चलता है, चलता है। यंत्रवत, सोए-सोए हम सब कर लेते हैं।
जाग्रत चित्त शांत होता है, सोया चित्त अशांत होता है। रास्ते पर चल कर देखें दस मिनट
भी जागे हुए। और जितनी देर होश रहेगा कि मैं चल रहा हूं, उतनी देर चित्त शांत रहेगा; जैसे ही होश
जाएगा, चित्त अशांत हो जाएगा।
हमारी सामान्य क्रियाओं से शुरू करना
जरूरी है साक्षी का भाव--चलते, उठते, खाना खाते, सुनते, बोलते। अभी मैं बोल रहा हूं और आप सुन रहे हैं। यह सुनना दो
तरह से हो सकता है। या तो सोए-सोए आप सुन रहे हैं, सुन रहे हैं
एक यंत्र की तरह। या आप जाग कर सुन रहे हैं; कि आपको पूरा
पता है कि आप सुन रहे हैं; होश है पूरा
कि आप सुन रहे हैं। अगर आप होशपूर्वक सुन रहे हैं, तो सुनने में
ही एक अदभुत शांति आनी शुरू हो जाएगी जिसका आपको कोई पता नहीं।
तृषा गयी एक बूंद से
ओशो
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