मैं एक संन्यासी को जानता हूं जो किसी स्त्री को नहीं देखता।
वे बहुत घबरा जाते है। अगर कोई स्त्री मौजूद हो तो आंखें झुका रखते है। वे सीधे
नहीं देखते। क्या समस्या है?
निश्चित ही, वे अति कामुक रहे होंगे।
कामवासना से बहुत ग्रस्त रहे होंगे। वह ग्रस्तता अभी भी जारी है। लेकिन पहले वे
स्त्रियों के पीछे भागते थे अब वे स्त्रियों से दूर भाग रहे है। पर स्त्रियों
से ग्रस्तता बनी हुई है; चाहे वे स्त्रियों की और भाग रहे
हों या स्त्रियों से दूर भाग रहे हो। उनका मोह बना ही हुआ है।
वे सोचते है कि अब स्त्रियों से मुक्त है, लेकिन यह एक नया बंधन है।
तुम प्रतिक्रिया करके मुक्त नहीं हो सकते। जिस चीज से तुम भागोगे वह पीछे के रास्ते
से तुम्हें बाँध लेगी; उससे तुम बच नहीं सकते हो। यदि कोई
व्यक्ति संसार के विरोध में मुक्त होना
चाहता है तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकता; वह संसार में ही
रहेगा। किसी चीज के विरोध में होना भी एक बंधन है।
यह सूत्र कहता है: ‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है......।’
वे विपरीत नहीं,
सापेख है। मोक्ष क्या है? तुम कहते हो,
जो बंधन नहीं है। वह मोक्ष है। और बंधन क्या है? तब तुम कहते हो, जो मोक्ष नहीं है वह बंधन है। तुम
एक दूसरे से उनकी परिभाषा कर सकते हो। वे गर्मी और ठंडक की भांति है। विपरीत नही
है। गर्मी क्या है और ठंडक क्या है? वे एक ही चीज की कम और
ज्यादा मात्राएं है—ताप की मात्राएं है। लेकिन चीज एक ही है;
गर्मी और ठंडक सापेक्ष है।
तंत्र कहता है,
बंधन और मोक्ष संसार और निर्वाण दो चीजें नहीं है; वे सापेक्ष है, वे एक ही चीज की दो अवस्थाएं है।
इसलिए तंत्र अनूठा है। तंत्र कहता है कि तुम्हें बंधन से ही मुक्त नहीं होना है,
तुम्हें मोक्ष से भी मुक्त होना है। जब तक तुम दोनों से मुक्त
नहीं होते, तुम मुक्त नहीं हो।
तो पहली बात कि किसी भी चीज के विरोध में जीने की कोशिश मत करो, क्योंकि ऐसा करके तुम उसी
चीज की कोई भिन्न अवस्था में प्रवेश कर जाओगे। वह विपरीत दिखाई पड़ता है। लेकिन
विपरीत है नहीं। कामवासना से ब्रह्मचर्य में जाने की चेष्टा करोगे तो तुम्हारा
ब्रह्मचर्य कामुकता के सिवाय और कुछ नहीं होगा। लाभ से अलोभ में जाने की चेष्टा
मत करो, क्योंकि वह अलोभ भी सूक्ष्म लोभ ही होगा। इसीलिए
अगर कोई परंपरा अलोभ सिखाती है तो उसमें भी तुम्हें कुछ लालच देती है।
जो लोग लोभी है,
पर लोभ के लोभी है। वे इस उपदेश से बहुत प्रभावित होंगे। वे इसके
लालच में बहुत कुछ छोड़ने को तैयार हो जायेंगे। कि ‘अगर तुम
लोभ को छोड़ दोगे तो तुम्हें परलोक में बहुत मिलेगा’। लेकिन
पानी की प्रवृति,पाने की चाह बनी रहती है। अन्यथा लोभी आदमी
अलोभ की तरफ क्यों जाएगा? उनके लोभ की सूक्ष्म तृप्ति के
लिए कुछ अभिप्राय कुछ हेतु तो चाहिए ही।
तो विपरीत ध्रुवों का निर्माण मत करो। सभी विपरीतताएं परस्पर
जुड़ी है। वे एक ही चीज की भिन्न-भिन्न मात्राएं है। ओर अगर तुम्हें इसका बोध
हो जाए तो तुम कहोगे कि दोनों ध्रुव एक है। अगर तुम यह अनुभव कर सके, और अगर यह अनुभव तुम्हारे
भीतर गहरा हो सके तो तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे। तब तुम न संसार चाहते हो न
मोक्ष। वस्तुत: तब तुम कुछ भी नहीं चाहते हो; तुमने चाहना
ही छोड़ दिया। और उस छोड़ने में ही तुम मुक्त हो गए। इस भाव में ही कि सब कुछ
समान है, भविष्य गिर गया। अब तुम कहां जाओगे?
यदि कामवासना और ब्रह्मचर्य एक है, तो कहां जाना है। यदि लोभ
और अलोभ एक ही है। हिंसा और अहिंसा एक ही है, तो फिर जाना
कहा है? कहीं जाने को न बचा। सारी गति समाप्त हुई; भविष्य ही न रहा। तब तुम किसी चीज की भी कामना, कोई
भी कामना नहीं कर सकते, क्योंकि सब कामनाए एक ही है। फर्क
केवल परिमाण को होगा। तुम क्या कामना करोगे। तुम क्या चाहोगे?
विज्ञान भैरव तंत्र
ओशो
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