क्योंकि इस संसार में अधिक लोगों के प्राण
हिंसा से भरे हैं। इस संसार में इतना वैमनस्य, इतने युद्ध क्यों हैं?
क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति लड़ने को मरने-मारने को आतुर है। क्योंकि
सदियों-सदियों से हमें जीना तो सिखाया नहीं गया, मरना सिखाया गया है। लोग कहते हैं: मरो देश पर; मरो देश के झंडे पर; मरो जाति पर; मरो धर्म पर ; मरो चर्च पर, मस्जिद पर, मंदिर पर। मगर तुमसे कोई भी नहीं कहता कि जीओ! कपड़े के
टुकड़े, जो झंडे बन जाते हैं, उन पर मरो! जिंदगी जो परमात्मा की भेंट है, उसे आदमी के चीथड़ों पर बर्बाद करो! देश की
सीमाएं, जो विक्षिप्त
राजनीतिज्ञों द्वारा खींची जाती हैं,
उन पर मरो! और यह अखंड पृथ्वी,
जो परमात्मा ने बिना किसी सीमा के बनायी है, इस पर जीओ मत। मंदिर और मस्जिद पर मरो, जो कि आदमी की ईजादें हैं। और परमात्मा ने
यह विशाल मंदिर बनाया है--जिसमें आकाश के दीए जल रहे हैं, जिसमें चांद और सूरज हैं, जिसमें अनंत-अनंत फूलों की बहार है--इसमें
जीओ मत!
मेरा संदेश है: मरने की भाषा छोड़ो, मरने की भाषा रुग्ण है। जीने की भाषा
सीखो। जीओ, जी भर के जीओ!
समग्रता से जीओ! पूरे-पूरे जीओ! क्योंकि तुम जितनी गहनता से जिओगे, उतने ही परमात्मा के निकट पहुंच जाओगे।
परमात्मा जीवन का ही दूसरा नाम है। ऐसी लपट हो तुम्हारा जीवन जैसे मशाल को किसी ने
दोनों ओर से एक-साथ जलाया हो। चाहे क्षणभर को जीओ, मगर ऐसी त्वरा हो जीवन में कि वह एक क्षण अनंतता के बराबर
हो जाए।
तुम्हें सिखायी गयी है भाषा मरने की।
राजनीति मरने की भाषा ही सिखानी है। वह कहती है: मरो और मारो। क्रांति भी वही भाषा
बोलती है कि मरो और मारो। मैं विद्रोह सिखा रहा हूं। मैं कहता हूं, न तो मरना है, न मारना है--जीओ और जीने दो। खुद भी जीओ, औरों के जीने के लिए भी आयोजन दो। यह थोड़े
दिन, यह चार दिन परमात्मा
की बड़ी भेंट हैं, इन्हें ऐसे
गंवा मत दो!
और अगर यह पृथ्वी जीने के गीत गाने लगे, यह पृथ्वी अगर जीने की बांसुरी बजाने लगे, तो हो जाएगी, क्रांति जो अब तक नहीं हुई है। और उस
क्रांति को कोई विकृत न कर सकेगा,
क्योंकि इस क्रांति को हम किसी की प्रतिक्रिया में नहीं कर रहे हैं। हम किसी
से लड़ नहीं रहे हैं। सिर्फ अपने भीतर के अंधेरे को काट रहे हैं, सिर्फ हम अपने भीतर के पत्थरों को अलग कर
रहे हैं, ताकि बह उठे
झरना हमारे भीतर के जीवन का। और झरना बह उठे तो सागर दूर नहीं। झरना, न बहे, तो सागर के किनारे भी डबरा रहेगा और झरना बहे, तो दूर हिमालय से भी सागर तक पहुंच जाता
है।
दरिया कहै शब्द निरवाना
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