ध्यान करते हुए, अपने पर काम करते हुए यदि तुम्हें यह पता
न चलता हो कि तुम प्रगति कर रहे हो या नहीं तो यह बात ठीक से समझ लेना कि तुम
प्रगति नहीं कर रहे हो। क्योंकि जब प्रगति होती है तो तुम उसे जानते हो। क्यों? यह ठीक ऐसे ही है जैसे कि बीमार होते हो
और दवा ले रहे होते हो, तो क्या
तुम्हें यह अनुभव नहीं होगा कि तुम स्वस्थ हो रहे हो या नहीं? यदि तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव नहीं हो
रहा हो और फिर भी यह प्रश्न उठता हो कि तुम ठीक हो रहे हो या नहीं, तो यह बात ठीक से जान लेना कि तुम ठीक
नहीं हो रहे हो। स्वस्थ होना एक ऐसा अनुभव है कि जब तुम स्वस्थ होते हो, तो तुम उसे जानते ही हो।
लेकिन यह सवाल क्यों उठता है? यह सवाल कई कारणों से उठता है। एक कि तुम
वस्तुतः श्रम नहीं कर रहे हो। तुम सिर्फ अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने साथ
चालबाजी कर रहे हो। तब तुम क्या कर रहे हो इसकी तुम्हें परवाह कम है और इस बात की
ज्यादा है कि क्या घट रहा है। यदि तुम वस्तुतः उसे कर रहे हो, तो तुम परिणाम को परमात्मा पर छोड़ सकते
हो। लेकिन हमारा मन कुछ ऐसा है कि हमें कारण की परवाह कम है और हमें परिणाम की
परवाह ज्यादा है-लोभ के कारण।
लोभ बिना कुछ भी किये पाना चाहता है।
इसलिए लोभी मन आगे चलता है। तब लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट रहा है? कुछ हो भी रहा है या नहीं? जो तुम लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट
रहा है? कुछ हो भी रहा है या
नहीं? जो तुम कर रहे हो केवल
उसकी ही चिन्ता करो, और जब कुछ
होगा तो तुम उसे जानोगे। वह होगा ही तुम्हें। उसे पूछने किसी और के पास नहीं जाना
पड़ेगा।
दूसरा कारण इस बात को पूछने का यह है
क्योंकि हम सोचते हैं कि कुछ चिन्ह,
कुछ प्रतीक, कुछ रास्ते के
पत्थर होने चाहिए जिनसे कि पता चले कि मैं पहुँच रहा हूँ, कि मैं यहाँ तक पहुँच गया, मैं अब वहाँ तक पहुँच गया अंतिम लक्ष्य पर
पहुँचने के पहले हम हिसाब-किताब लगाना चाहते हैं। हम आश्वस्त होना चाहते हैं कि हम
आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन वस्तुतः रास्ते के कोई पत्थर नहीं
हैं क्योंकि कोई पटा-पटाया एक रास्ता नहीं है। और प्रत्येक अलग-अलग रास्ते पर हैं, हम सब एक ही सड़क पर नहीं चल रहे हैं। यहाँ
तक कि जब तुम एक ही ध्यान की विधि का प्रयोग कर रहे हो, तब भी तुम उसी रास्ते पर नहीं हो। तुम हो
नहीं सकते। कोई आम रास्ता नहीं है। हर रास्ता, हर मार्ग व्यक्तिगत है, निजी है। इसलिए किसी और का अनुभव तुम्हें इस मार्ग पर मदद
नहीं करेगा। बल्कि, वह हानिप्रद
भी हो सकता है।
किसी को अपने मार्ग पर कुछ चीज दिखलाई पड़
सकती है। यदि वह कहता है कि यह प्रगति का चिन्ह है तो हो सकता है कि वह चीज
तुम्हें दिखलाई न पड़े। वे ही वृक्ष तुम्हारे मार्ग में नहीं भी हो सकते, वे ही पत्थर तुम्हारे मार्ग में नहीं भी मिल
सकते हैं। अतः इस प्रकार की बकवास के शिकार होने की जरूरत नहीं है। केवल कुछ
आंतरिक अनुभूतियाँ ही संगत हैं। उदाहरण के लिये, यदि तुम प्रगति कर रहे हो, तो कुछ बातें युगपथ होने लगेंगी। एक, तुम्हें अधिकाधिक सन्तोष का अनुभव होगा।
जब ध्यान पूरा होता है तो कोई इतना तृप्त
अनुभव करता है कि वह ध्यान करना भी भूल जाता है। क्योंकि ध्यान करना भी एक प्रयास
है, एक असंतोष है। यदि
किसी दिन तुम ध्यान करना भी भूल जाओ और तुम्हें उसकी कोई तलब न लगे, तुम्हें कोई अन्तराल महसूस नहीं हो, तुम्हें भरा-पूरापन लगे, तब जानो कि यह अच्छा चिन्ह है। बहुत से
लोग हैं जो कि ध्यान करते हैं और यदि वे नहीं करते हैं वो उनके साथ एक अजीब घटना
घटती है। यदि वे कहते हैं तो उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं होता। यदि वे नहीं करते हैं
तो उन्हें लगता है कि जैसे वे कुछ चूक रहे हैं।
यह एक प्रकार की आदत है, जैसे कि सिगरेट पीना, शराब पीना, या कोई भी,
यह सिर्फ एक आदत है। ध्यान को एक आदत मत बनाओ, उसे जीवन्त रहने दो तब असन्तोष धीरे-धीरे खो जायेगा।
तुम्हें सन्तोष का, तृप्ति का
अनुभव होगा। और जब तुम ध्यान करते हो,
तभी यदि कुछ घटित होता है,
जब तुम ध्यान करते हो केवल तभी घटता है तो फिर वह झूठा है, वह सम्मोहन है। वह कुछ अच्छा करता है, लेकिन गहरा जाने वाला नहींहै। वह सिर्फ
तुलना में अच्छा है। यदि कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई ध्यान नहीं हो रहा है, कोई आनंद का क्षण नहीं आ रहा है, तो उसकी चिन्ता मत करो।
यदि कुछ हो रहा है
तो उसे पकड़ो भी मत। यदि ध्यान ठीक जा रहा है,
गहरा हो रहा है तो तुम सारे दिन रूपांतरित अनुभव करोगे। एक सूक्ष्म तृप्ति, एक संतोष हर क्षण मौजूद रहेगा। जो भी तुम
कर रहे होओगे, तुम्हारे भीतर
तुम्हें एक शीतल केन्द्र का अनुभव होगा-एक संतोष, एक तृप्ति की अनुभूति होगी।
आत्मपूजा उपनिषद
ओशो
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