दो तीन बातें मुझे दिखाई पडती हैं। एक तो, कि हिंदुस्तान की पूरी चिंतना बदलनी
पडेगी। इस संबंध में, समृद्धि का
विरोधी है हिंदुस्तान और गरीबी का पक्षपाती है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि है।
तो पहले तो हमारे मुल्क की हमें यह दृष्टि बदलनी पडेगी कि समृद्धि कोई अशुभ बात
नहीं है। बल्कि समृद्ध होंगे, तो ही हम
धार्मिक हो सकेंगे। अभी क्या हमारे मन में बात है कि धार्मिक होने के लिए दरिद्र
होना जरूरी है। यह बिल्कुल ही पागलपन की बात है। तोएक तो हमें इस मुल्क के विचार
से यह बात निकाल देनी है कि गरीबी कोई पूजा की चीज है, या गरीब होना कोई बहुत अच्छी बात है। कि
एक आदमी कोई लंगोटी लगाकर खड़ा हो जाता है तो कोई बहुत महान कार्य कर रहा है।
तो अभी एक फिलासफिक आफ पॉवर्टी, दरिद्रता का दर्शन हमारे चित्त में बैठा
रहा है। कम से कम चीजें, कम से कम
आवश्यकता..छोटे से छोटा मकान, दाल रोटी खा
ली और अपना एक चादर ओढ़ लिया और गुजार दिया। जितनी कम जरूरत हो सके, उतनी कम रखो। कम जरूरत जिन लोगों के ख्याल
में बहुत महत्वपूर्ण है वे देश को दरिद्र बना देंगे। मैं कहता हूं, जरूरत इतनी बढ़नी चाहिए। जरूरत इतनी बढाओ
कि तुम्हें जरूरत बढाने से नये-नये मार्ग खोजने पड़ें, उनको पूरा करने के लिए, नई दिशाएं खोजनी पडें, तो समृद्धि की तरफ गति शुरू होती है। तो
पहले तो एक समृद्धि का दर्शन चाहिए। यह दरिद्रता का दर्शन हटाने की जरूरत है मानसिक रूप से इसकी तैयारी करनी चाहिए। पहले तो मानसिक तैयार करना पडे, तब मटिअरिअल तैयार होती है। वह दूसरी बात
है। पहले तो मेंटली तैयारी बहुत जरूरी है।
अभी तो मन से हम गरीब हैं, और गरीब रहने को हम तत्पर हैं! बल्कि सच
यह है, जो अमीर हैं, जिन से हम भीख मांग रहे हैं, उनको हम गाली दे रहे हैं, कि वे लोग अमीर हैं तो भौतिकवादी हैं। यह
बड़े मजे की बात है कि अमरिका से हम भीख मांगकर जी रहे हैं और अमरीका को गाली दिए
जा रहे हैं कि तुम भौतिकवादी हो,
तुम मटिअरिलिस्ट हो; तुम फलां हो, ढिकां हो। हम आध्यात्मिक है! और तुम्हारा
अध्यात्म यह है कि तुम्हें भौतिकवाद से भीख मांगनी पड रही है! तो पहले तो हमारे मन
में यह साफ हो जाना चाहिए कि समृद्धि लक्ष्य है..एक-एक व्यक्ति के मन में और
मस्तिष्क में। आने वाली पीढी और विधार्थियों के मन में समृद्धि का विचार गहराई से
डालने की जरूरत है। ताकि हजारों साल की दरिद्रता का पागलपन खत्म हो जाए।
दूसरी बात कोई भी मुल्क तभी समृद्ध हो
सकता है, जब टेकनोलॅाजी
में विकसित हो। और हमारा मुल्क टेकनोलॅाजी में विकसित नहीं रहा, बल्कि हम टेकनोलॅाजी के दुश्मन रहे अब तक।
और गांधी ने और मुसीबत खडी कर दी है पीछे। वह टेकनोलॅाजी के दुश्मन हैं, वह विनोबा भी टेकनोलॅाजी के दुश्मन हैं।
तो इस मुल्क मेंटेकनोलॅाजी के खिलाफ एक हवा चल रही है। वह यह है कि अगर पैदल चलना
है और चल सकें, तो कार की
जरूरत क्या है? कार की जरूरत
क्या है, हवाई जहाज की
जरूरत क्या है? बडी मशीन की
जरूरत क्या है? चर्खे से काम
चलाओ, तकली कात लो! अब अगर
तकली और चर्खा हम कातेंगे, तो हम कभी
समृद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि
समृद्धि मूलतः नब्बे परसेंट टेकनोलॅाजी का फल है। जो संपत्ति पैदा होती है वह सौ
में से नब्बे प्रतिशत टेक्नालॅाजी,
टेक्नीक का फल है।
हिंदुस्तान के माइंड को टेकनोलॅाजिकल
बनाने की जरूरत है। यह बेवकूफी खादी की,
चर्खे की, तकली की; आग लगा देने की जरूरत है। यह ग्रामोद्योग
और बकवास बंध करने की जरूरत है। बडा उद्योग,
केंद्रित उद्योग चाहिए। यह विकेंद्रीकरण की बात घातक है कि डेसेंट्रलाइज करो।
क्योंकि जितना डिसेंट्रलाइजड हुई इकोनामी,
उतनी ही गरीब होगी।
नए भारत की खोज
ओशो
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