लेकिन अंधकार दूर नहीं किया जा सकता। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंधकार दूर
नहीं हो सकता। अंधकार निश्चित ही दूर हो जाता है। लेकिन प्रकाश के जलने से। सीधे
अंधकार के साथ कुछ भी करने का उपाय नहीं है। वह है ही नहीं, उसके साथ करने का उपाय होगा कैसे?
हम सब एक निगेटिव, एक नकारात्मक जीवन-विधि से पीड़ित हैं।
अंधकार को दूर करने की विधि से पीड़ित हैं। स्वभावतः हम अपने भीतर हिंसा दूर करना
चाहते हैं; घृणा दूर करना
चाहते हैं; क्रोध दूर
करना चाहते हैं; द्वेष, लोभ,
मोह दूर करना चाहते हैं;र् ईष्या दूर
करना चाहते हैं। ये सब अंधकार हैं। इनको दूर नहीं किया जा सकता सीधा। इनकी अपनी
कोई सत्ता नहीं है।
क्रोध, घृणा, द्वेष यार्
ईष्या किसी के अभाव हैं, किसी प्रकाश
की अनुपस्थिति हैं। स्वयं किसी चीज की मौजूदगी नहीं हैं। घृणा, प्रेम की अनुपस्थिति है। जैसे अंधकार
प्रकाश की अनुपस्थिति है। घृणा को दूर नहीं किया जा सकता सीधा। न द्वेष को, न ईष्या को, न हिंसा को। और जब हम इनको सीधा दूर करने में लग जाते हैं, तो अगर हम पागल न हो जाएं तो और क्या
होगा। क्योंकि वे दूर नहीं होते। उनको दूर करने की सारी कोशिश व्यर्थ सिद्ध हो
जाती है। और जब वे दूर नहीं होते तो दो ही उपाय रह जाते हैं--या तो व्यक्ति पागल
हो जाता है, या पाखंडी हो
जाता है। जब वे दूर नहीं होते तो उन्हें छिपा लेता है। ऊपर से जाहिर करने लगता है
वे दूर हो गए और भीतर, भीतर वे उबलते
रहते हैं, भीतर वे मौजूद
रहते हैं, भीतर वे चित्त
की पर्तों पर सरकते रहते हैं। ऐसा दोहरा व्यक्तित्व पैदा हो जाता है। एक जो ऊपर से
दिखाई पड़ने लगता है। और एक, एक जो भीतर
होता है।
इस द्वैत में इतना तनाव है, इतनी अशांति है, इतनी कानफ्लिक्ट है। होगी ही, क्योंकि जब एक आदमी दो हिस्सों में टूट
जाएगा--एक जैसा वह है, और एक जैसा वह
लोगों को दिखलाता है कि मैं हूं।
असंभव क्रांति
ओशो
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