अमृत कृष्ण! वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है।
तुम्हारी अशांति के कारण। नहीं तो उसको भी हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर
शांत बैठ जाओ तो वह हाथ भी न हिले।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर भी पड़ती है।
तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है; उसकी छाया है।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं, जिस करवट सोते हैं, रात भर उसी करवट सोए रहते हैं! आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा--यह कैसे
होता होगा! स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा। उसने कहा: ‘मैंने हर
तरह से आपको जांचा। आप जैसे सोते हैं, पैर जिस पैर पर रख
लिया, रात भर रखे रहते हैं। आप सोते हैं कि रात में यह भी
हिसाब लगाए रखते हैं कि पांव उसी पर रहे, बदले नहीं। करवट
नहीं बदलते!
बुद्ध ने कहाः ‘आनंद, जब मन शांत हो जाए तो शरीर को भी अशांत रहने
को कोई कारण नहीं रह जाता।’
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में। मगर कोई
जरूरत नहीं है। लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते रहते हैं। लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं
और पैर चलाते रहते हैं, पैर हिलाते रहते हैं; जैसे चल रहे हों! जैसे साइकिल
चला रहे हों! बैठे कुर्सी पर हैं, मगर उनके प्राण भीतर भागे
जा रहे हैं।
मन चंचल है,
मन गतिमान है। उसकी छाया शरीर पर भी पड़ेगी। जब मन शांत हो जाएगा तो
शरीर भी शांत हो जाएगा। जरूरत होगी तो हिलाओगे, नहीं जरूरत
होगी तो क्या हिलाना है? इसमें कुछ रहस्य नहीं है, सीधी सादी बात है यह।
तुम जरूर अशांत होते हो। वह मैं जानता हूं। पांच मिनट भी शांत
बैठना मुश्किल है। असल में पांच मिनट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो हजार बाधाएं
आती हैं। कहीं पैर में झुनझुनी चढ़ेगी,
कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा, कहीं पीठ में
चींटियां चढ़ने लगेंगी। और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है! बड़ा मजा यह है! कई
दफा देख चुके कि चींटी वगैरह कुछ भी नहीं है, मगर कल्पित
चींटीयां चढ़ने लगती हैं। न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे! हजार-हजार तरह की बातें
उठेंगी कि यह कर लूं वह कर लूं, इधर देख लूं उधर देख लूं। मन
कहेगा: ‘क्या बुद्धू की तरह बैठे हो! अरे उठो, कुछ कर गुजरो! चार दिन की जिंदगी है, ऐसे ही चले
जओगे? इतिहास के पृश्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में नाम लिख जाए,
ऐसा कुछ कर जाओ। ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे। दूसरे हाथ मारे ले रहे
हैं।’
तुम्हारा मन भागा-भागा है,
इसलिए शरीर भागा-भागा है। और लोग क्या करतें हैं? लोग उल्टा करते हैं। लोग शरीर को थिर करने कोशिश करते हैं। इसलिए लोग
योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें, तो मन थिर हो
जाएगा। वे उलटी बात करने की कोशिश कर रहे हैं। यह नहीं हो सकता। शरीर को थिर करने
से मन थिर नहीं होता। मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे। जरूरत ही नहीं है। ध्यान
पर्याप्त है। और शरीर को अगर बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो। सर्कस में लोग सफल हो जाते हैं,
मगर उनको तुम योगी समझते हो? सरकस में लोग
शरीर से क्या-क्या नहीं कर गुजरते! सब कुछ करके दिखला देते हैं। लेकिन उससे तुम यह
मत समझ लेना कि वे योगी हो गये। उनकी जिंदगी वही है, जो
तुम्हारी है। शायद उससे गयी-बीती हो। तुम अगर आसन भी सीख गये तो कभी कुछ न होगा।
लेकिन अगर भीतर मन
ठहर गया तो सब अपने से ठहर जाता है।
उडियो पंख पसर
ओशो
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