लेकिन जब अपनी आंखों से आपको देखा तो मुझे
बहुत धक्का लगा। और फिर आपको देख—सुनकर जैसे ही
बाहर निकला कि भीड़ के बीच एक विदेशी युवा जोड़े को मनोहारी प्रेम—पाश में बंधे देखकर मैं ठगा—सा रह गया। और सोचा : क्या यह भी धर्म कहा
जा सकता है?
पूछा है भगवानदास आर्य ने।
उनके पीछे जो पूंछ लगी है—आर्य—उसी में से ये प्रश्न निकला है।
पहली बात : मैं किसी की प्रतिमूर्ति नहीं
हूं। क्योंकि प्रतिमूर्ति तो प्रतिलिपि होगा,
कार्बन कापी होगा। प्रतिमूर्ति कोई किसी की नहीं है, न होना है किसी को।
क्या तुम सोचते हो कि नानक बुद्ध की
प्रतिमूर्ति थे? या तुम सोचते
हो कि बुद्ध कृष्ण की प्रतिमूर्ति थे?
या तुम सोचते हो कि कबीर महावीर की प्रतिमूर्ति थे? तो तुम समझे ही नहीं।
अगर तुम कबीर के पास गए होते, तो भी तुम्हें यही अड़चन हुई होती, जो यहां हो गयी। तुम कहते, अरे! हमने तो सोचा था कि कबीर महावीर की
प्रतिमूर्ति होंगे! और ये तो कपड़ा पहने बैठे हैं! कपड़ा पहने ही नहीं बैठे, कपड़ा बुन रहे हैं! जुलाहा! और महावीर तो
नग्न खड़े हो गए थे। बुनने की तो बात दूर,
पहनते भी नहीं थे कपड़ा। छूते भी नहीं थे कपड़ा। ये कैसे महावीर की प्रतिमूर्ति
हो सकते हैं?
और रोज कबीर बाजार जाते हैं, बुना हुआ कपडा जो है, उसे बेचने। और कबीर की पत्नी भी है! और
कबीर का बेटा भी है। और कबीर का परिवार भी है। और बुद्ध तो सब छोड़कर भाग गए थे।
कबीर ने तो जुलाहापन कभी नहीं छोड़ा। बुद्ध
तो राजपाट छोड़ दिए थे। कबीर के पास तो छोड़ने को कुछ ज्यादा नहीं था, फिर भी कभी नहीं छोड़ा। तो कबीर को तुम
बुद्ध की प्रतिमूर्ति न कह सकोगे।
और न ही तुम बुद्ध को कृष्ण की
प्रतिमूर्ति कह सकोगे। और मैं जानता हूं कि भगवानदास आर्य वहां भी गए होंगे। इस
तरह के लोग सदा से रहे हैं। बुद्ध के पास भी गए होंगे और देखा होगा, अरे! तो कृष्ण की प्रतिमूर्ति नहीं हैं
आप! मोर—मुकुट कहा? बांसुरी कहां? सखियां कहां? रास क्यों नहीं हो रहा है यहां? ये सिर घुटाए हुए संन्यासी बैठे हैं सब!
रास कब होगा?
यही होता रहा है। बुद्ध को मानने वाले
महावीर के पास जाते थे और कहते थे कि आप नग्न! और बुद्ध तो कपड़ा पहने हुए हैं! और
महावीर के मानने वाले बुद्ध के पास जाते थे और कहते थे आप कपड़ा पहने हुए हैं!
महावीर ने तो सब त्याग कर दिया है। उनका त्याग महान है। नग्न खड़े हैं!
यह मूढ़ता बड़ी पुरानी है। तुम
प्रतिमूर्तिया खोज रहे हो! इस जगत में परमात्मा दो व्यक्ति एक जैसे बनाता ही नहीं।
तुमने देखा : अंगूठे की छाप डालते हो। दो अंगूठों की छाप भी एक जैसी नहीं होती। दो
आत्माओं के एक जैसे होने की तो बात ही गलत है।
मैं मेरे जैसा हूं। बुद्ध बुद्ध जैसे थे।
कबीर कबीर जैसे थे।
तुम गलत धारणाएं लेकर यहां आ गए। तुम्हारी
खोपड़ी में कचरा भरा है। उस कचरे से तुम मुझे तोल रहे हो! तुम पहले से तैयार होकर
आए हो कि कैसा होना चाहिए व्यक्ति को—नानक जैसा
होना चाहिए; कि बुद्ध जैसा; कि कबीर जैसा—किस जैसा होना चाहिए! तो तुम चूकोगे। तो
तुम्हें धक्का लगेगा।
तुम्हें धक्का इसी से लग जाएगा कि मैं
कुर्सी पर बैठा हूं। तुम्हारे धक्के भी तो बड़े क्षुद्र हैं! तुम्हें धक्का इसी से
लग जाएगा—कि अरे! मैं
इस सुंदर मकान में, इस बगीचे में
क्यों रहता हूं! ये धक्के तुम्हें सदा लगते रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी धारणाओं के कारण लगते हैं।
मेरे एक जैन मित्र हैं। गांधी के अनुयायी
हैं, तो उनको समन्वय की धुन
सवार रहती है। तो मुझसे वे बोले कि मैं समन्वय की एक किताब लिख रहा हूं। बुद्ध और
महावीर में समन्वय—कि दोनों
बिलकुल एक ही बात कहते हैं। मैंने कहा : जब किताब पूरी हो जाए, तो मुझे भेजना।
किताब छपी तो उन्होंने मुझे भेजी। मैं
देखकर चौंका। किताब का जो शीर्षक था,
वह था— भगवान महावीर
और महात्मा बुद्ध।
मैंने उनको पत्र लिखा। पूछा कि एक को
भगवान और एक को महात्मा क्यों कहा?
उन्होंने कहा : इतना फर्क तो है ही। महावीर भगवान हैं। बुद्ध महात्मा हैं; ऊंचे पुरुष हैं, मगर अभी आखिरी अवस्था नहीं आयी है।
क्योंकि कपड़े पहने हुए हैं। वह कपड़े से बाधा पड़ रही है! कपड़े के पीछे बेचारों को
महात्मा रह जाना पड़ रहा है। वे नंगे जब तक न हों, तब तक वे भगवान नहीं हो सकते!
इसलिए तो जैन राम को भगवान नहीं मान सकते।
और धनुष लिए हैं, तो बिलकुल
नहीं मान सकते।
और जो जीसस को देखा है, जो जीसस को मानता है, वह जब देखता है कृष्ण को बांसुरी बजाते, तो उसे बड़ा सदमा पहुंचता है। वह कहता है :
ये किस तरह के भगवान! भगवान तो जीसस हैं। दुनिया के दुख के लिए अपने को सूली पर
लटकाया है। और ये सज्जन बांसुरी बजा रहे हैं! और दुनिया इतने दुख में है। तो यह
कोई समय बांसुरी बजाने का है! और ये वृंदावन में रास रचा रहे हैं! और दुनिया दुख
में सड़ रही है, महापाप में
गली जा रही है। जीसस जैसा होना चाहिए—कि अपने को
सूली पर चढ़वा दिया, ताकि दुनिया
मुक्त हो सके।
अब तुम्हारी धारणा; तुम जो पकड़ लोगे। उस धारणा से तोलने चलोगे, तो बाकी सब गलत हो जाएंगे। तुम्हारी धारणा
ने ही तुम्हें धक्का देने का उपाय कर दिया। अब तुम सोचते हो कि मेरे कारण तुम्हें
धक्का लगा, तो तुम गलती
में हो। मेरे कारण भी धक्का लग सकता है,
वह धक्का तो तुम्हारे जीवन में सौभाग्य होगा। उससे तो क्रांति हो जाएगी। मगर
वह यह धक्का नहीं है। जो धक्का तुम्हें लगा है, वह तुम्हारी धारणा का है। तुम एक पक्की धारणा लेकर आए थे :
ऐसा होना चाहिए। और ऐसा नहीं है।
अब हो सकता है, इन सज्जन को पच्चीस अड़चनें आयी होंगी।
इनको पीड़ा हुई होगी। यह इनके अनुकूल नहीं है।
जो तुम्हारे अनुकूल नहीं है, वह गलत होना चाहिए—ऐसी जिद्द मत करो। अभी तुमको सही का पता
ही कहां है! सही का पता होता, तो यहां आने
की जरूरत क्या होती! अभी आए हो,
तो खुले मन से आओ; निष्पक्ष आओ।
अपनी जराजीर्ण धारणाओं को बाहर रखकर आओ।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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