दादू के चेले तो अनेक थे पर दो ही चेलों का नाम मशहूर है। एक रज्जब और
दूसरा सुंदरो। आज आपको सुंदरो कि विषय में एक घटना कहता हूं।
दादू की
मृत्यु हुई। तब दादू के दोनों चलो ने बड़ा अजीब व्यवहार किया। रज्जब ने
आंखे बंध कर ली और पूरे जीवन कभी खोली ही नहीं। उसने कहां जब देखने लायक था
वहीं चला गया तो अब और क्या देखना सो रज्जब जितने दिन जिया आंखे बंध
किये रहा। और दूसरा सुंदरो उधर दादू की लाश उठाई जा रही थी। अर्थी सजाई जा
रही थी। वह श्मशान घाट भी नहीं गया और दादू के बिस्तर पर उनका कंबल ओढ़ कर
सो गया। फिर उसने कभी बिस्तर नहीं छोड़ा।
बहुत लोगों ने कहा ये भी कोई ढंग है। बात कुछ जँचती नहीं। ये भी कोई जाग्रत
पुरूषों के ढंग हुये एक ने आँख बंद कर ली और दूसरा बिस्तरे में लेट गया।
और फिर उठा ही नहीं। जब तक मर नहीं गया।
इस मामले में दादू बहुत भाग्यशाली संबुद्ध थे, वैसे तो उनके
बहुत चले थे। पर ऐसे हीरे शिष्य, अनमोल रत्न, बहुत कम गुरूओं को नसीब हुए
है। नानक, कबीर, रैदास, फरीद किसी के पास भी ऐसी अद्भुत जमात नहीं थी।
जैसे दादू के पास थी। दादू ने बड़े बेजोड़ ओर अद्वितीय हीरे इकट्ठे किए थे।
कबीर, बुद्ध, महावीर भी इस सबंध में पीछे रह गये। दादू में कुछ कला थी
शिष्यों को पुकार लाने की। दादू में कुछ कला थी शिष्यों को अपने से जोड़
लेने की। उनकी जमात बड़ी थी। उनका सबंध बड़ा था। लेकिन उन सब हीरो में
रज्जब और सुंदरो तो कोहिनूर थे।
सुंदरो, इधर लाश उठी उधर वह बिस्तर में समा गया। उसने ओढ़ लिया
कंबल दादू का। सुंदरो का इतना तादात्म्य हो गया था दादू से कि बहुत बार ऐसा
हो जाता था कि सुंदरो बहार बैठा है। और कोई आया है दादू से मिलने के लिए।
और वह पूछता है, दादू कहां है? मुझे दादू जी के दर्शन करने है। तब सुंदरो
कहता की ये जो तुम्हारे सामने बैठा है। ये कोन है, करो दर्शन। वह आदमी भी
कुछ अचरज में भर जाता। और सोचता की शायद इसका दिमाग खराब हो गया। पर नहीं
सुंदरो का दादू से इतना तादात्म्य था, उसने अपने होने को ऐसे लीन कर दिया
था। की अब सुंदरो जैसा कोई व्यक्ति था ही नहीं। अंदर केवल एक ही नाद था।
दादू बात थोड़ी गहरी है। कुछ इसे अहंकार समझते कुछ पागलपन। पर सुंदरो ने
तो दादू में आप को लीन कर लिया था।
जब शिष्य अपने को गुरु में डुबोता है, तो गुरू को भी अपने में
डूबा हुआ पाता है। जब शिष्य अपने भेद छोड़ देता है तो गुरु के तो भेद पहले
से ही न थे। अभेद हो जाता है। कई बार लोग बड़े नाराज हो जाते है जब उनको
बाद में पता चलता कि हम तो गलती से सुंदरो के पैर छू कर ही आ गए। और हमे
दादू से मिलने ही नहीं दिया गया। हमें भ्रमित किया गया। और लोग आकर सुंदरो
को कहते की ये भी कोई मजाक है। आप ये सब ठीक नहीं कर रहे। और बात दादू तक
जाती तो दादू केवल हंस भर देते। पर लोग है कि खुश नहीं होते। कि हम तो
मीलों चल कर आये थे आपके चरणों की धूल लेने। और ये पागल है की हमे वापस
रास्ते से कर दिया। पर सुंदरो इससे जरा भी विचलित नहीं होता। और कहता की
तुमने नमस्कार किया और वह पहुंच गया दादू तक।
विश्वास नहीं है तो पूछ सकते
हो। अब वैसे तुम्हारी ज़िद्द शरीर की है तो फिर अंदर बैठे है दादू जी और
छू लो पेर। अगर आत्मा का सवाल है तो मेरी आंखों में झांक लो तो तुम्हें
दादू की आंखों की झलक नजर आयेगी। मेरे शरीर की सुगंध दादू की सुगंध है।
मेरी वाणी भी दादू की वाणी है।
इसलिए जब दादू की अरथी ले चलें। और सुंदरो उनकी अरथी के साथ भी
नहीं गया। वह बिस्तर र लेट गया। जैसे रास्ता ही देखता हो इतने दिन से कि
हटो भी अब। यानी अब हम कब तक बिस्तर के बाहर ही रहें। न रोया,न परेशान
हुआ। दादू के कपड़े भी पहन लिए। जब लोग लौट कर आए तो देखा कि यह बिलकुल ही
दादू बन गया है। दादू के कपड़े,दादू का कंबल, वही बैठने कर रंग-ढंग। वही
बोलने का अंदाज। और उस दिन से लोगों ने देखा की उसकी वाणी में भी वही बात आ
गई जो दादू की वाणी में थी। उसके आस पास वही प्रसाद, वही सुगंध बिखरने लगी
जो दादू में थी। एक प्रकाश एक आभा मंडल जो दादू की उपस्थिति में था वही
महसूस होने लगा। लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। की हम तो दादू के शरीर को
अपने ही हाथों से चिता पर चढ़ाकर आये है। और उसके बाद जो सुंदरो ने जो पद
लिखे है, उनमें वह दादू के ही नाम का उल्लेख करता है। कहे दादू—लिखता था
सुंदरो। लेकिन पद सुंदरो के थे। लोगों ने लाख समझाया कपड़े बिस्तरे,कंबल
तो बात ठीक है, पर ये वाणी वाली बात ठीक नहीं है। आने वाले बाद के दिनों
में लोगों को भ्रम होगा की कोन से पद दादू के है और कोन से पद आपके है। यह
परख करनी भी मुश्किल हो जायेगी। तो कृपा आप ये न करे तो बेहतर होगा।
तब सुंदरो ने कहा की तय करने की जरूरत ही क्या है। सभी वचन तो
उनके ही है। अब सुंदरो है कहा। सुंदरो कब का गया। सुंदरो पहले दिन ही मैं
उनके पैरों में गिरा था। उसी दिन चला गया था। उसी दिन चला गया था। तुमको
देखने में देर लगी। बात ओर; मैं तो उसी दिन समझ गया कि अब इस आदमी के सामने
क्या टिकना। इस आदमी के साथ क्या बचना। इससे क्या अलग थलग रहना। इसके
साथ तो एक हो जाने में ही मजा है। बूंद मेरी उसी दिन सागर हो गई थी। तुम
मानो या न मानों, लेकिन जब बूंद सागर में गिरती है तो सागर हो जाती है।
सुंदरो नहीं बचा है।
और यही उसका सौंदर्य था। दादू ने उसे सुंदरो का नाम दिया था यही उसका सौंदर्य था कि उसका समर्पण समग्र था।
काहे होत अधीर
ओशो
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