किसके नाश में मोक्ष है? ‘मन के नाश में ही।’ मन ही बंधन है और बंधन भी
ऐसा, जो केवल हमारी प्रतीति में है। नाश करने ‘को वस्तुत: कुछ भी नहीं है,
सिर्फ आंख खोलकर देखने की बात है; और मन नष्ट हो जाता है। आंख बंद है तो मन
है; आंख खुली कि मन गया।
यूं है जैसे सांझ के धुंधलके में राह पर पड़ी रस्सी को देखकर तुम सांप
समझ बैठे; फिर लगे भागने; फिर घबड़ाए बहुत। फिर यूं भी हो सकता है कि फिसल
जाए भागने में पैर, तोड़ लो हड्डी पसली। यूं भी हो सकता है कि इतने घबड़ा जाओ
कि हृदय का दौरा पड़ जाए। और वहा कुछ भी न था, बस रस्सी थी, सांप तुम्हारा
प्रक्षेपण था। तुमने जरूर देख लिया था; तुम्हारी आति थी। तुमने रस्सी के
ऊपर अपने भय को आच्छादित कर दिया था। सांप था नहीं, फिर भी तुम्हारी भी तो
टूट गयी, जो थी। और तुम्हारा हृदय तो हानि को पहुंच गया, जो था। जो नहीं
है, उसके भी परिणाम हो सकते हैं। अंधेरा भी नहीं है। मगर उसके भी परिणाम तो
होते हैं। अंधेरे में चलोगे तो दीवाल से टकरा जाओगे; दरवाजे से निकलना
आवश्यक तो नहीं; निकल जाओ, संयोग है। ज्यादा संभावना यही है कि दीवालों से
टकराओगे। अंधेरे में चलोगे, फर्नीचर से टकराकर गिर पड़ी, कुछ भी हो सकता है।
और अंधेरा नहीं है। अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है। अंधेरा केवल प्रकाश का
अभाव है। इसलिए तो दीए के जलाते ही अंधेरा नहीं पाया जाता है। और ऐसे ही
बोध के जगते ही मन नहीं पाया जाता है। जैसे कोई ले आए रोशनी तो रस्सी
मिलेगी, सांप नहीं। फिर क्या पूछोगे, सांप कहां गया? फिर तो प्रश्न भी
व्यर्थ हो जाएगा। था ही नहीं, तो जाएगा कैसे?
इसलिए एक बात खयाल रखना : मन के नाश का ऐसा अर्थ मत ले लेना कि मन है और
उसका नाश करना है। क्योंकि जो है उसका तो नाश हो ही नहीं सकता। थोड़ी
तुम्हें असुविधा होगी, जो मैं कह रहा हूं उसे समझने में। इसलिए ठीक ठीक उसे
दोहरा दूं : जो है उसका नाश नहीं है; और जो नहीं है, बस केवल उसका नाश है।
एक छोटे से रेत के कण को भी मिटा न सकोगे। विज्ञान की सारी सामर्थ्य भी जो
पूरी मनुष्य जाति को नष्ट कर सकती है, जो इस तरह की सात सौ पृथ्वियों को
जीवन से विहीन कर सकती है आज इतने उद्जन बम, एटम बम इकट्ठे हो गए हैं लेकिन
विज्ञान भी एक छोटेसे रेत के कण को मिटा नहीं सकता। जो है, उसे मिटाने का
कोई उपाय ही नहीं है। वह रहेगा। रूप बदल सकता है, आकृति बदल सकती है;
रहेगा नये रूपों में, नयी आकृतियों में। और जो नहीं है, केवल वही मिटाया जा
सकता है।
इसलिए मैं अपने संन्यासियों से कहता हूं : मैं तुमसे वही छीन लूंगा जो
तुम्हारे पास नहीं है और तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है ही। न
मुझे कुछ छीनना है; न मुझे कुछ देना है। जो है उसका तुम्हें होश आ जाए और
जो नहीं है उसकी तुम्हारी भांति टूट जाए।
मन आभास मात्र है रस्सी में देखा गया सांप। जरा सी रोशनी ध्यान की और मन नहीं पाया जाता है।
साच साच सो साच
ओशो
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