‘सदबुद्धि को जगाओ और मन को तृष्णा-शून्य करो; तथा उसी से संतुष्ट और प्रसन्न रहो जो अपने श्रम से मिलता है।’
यह सभी धनों के संबंध में सच है। बाहर के धन में भी, जो अपने श्रम से
मिल जाए, जो उससे तृप्त हो गया, उसके जीवन में नैतिकता होगी; और भीतर के
जगत में भी, भीतर का जो धन अपने श्रम से मिले, उसके चित्त में धार्मिकता
होगी। तुम शास्त्र को जब कंठस्थ कर लेते हो तो तुम चोरी कर रहे हो। वह जो
शास्त्र में छिपा ज्ञान है, वह तुमने श्रम से नहीं पाया है; वह तुम सिर्फ
चुरा रहे हो। वह उधार है, बासा है। तुम किसी दूसरे की बात पकड़ लिए हो। उस
पर अपने भवन को मत बनाना, वह रेत पर खड़ा किया हुआ भवन है। हवा का एक छोटा
सा झोंका उसे गिरा देगा।
अभी कुछ दिन पहले, मैं एक झेन कहानी कह रहा था। एक झेन आश्रम के द्वार
पर एक संध्या एक भिक्षु ने दस्तक दी। जापान में झेन आश्रमों का यह नियम है
कि अगर कोई भिक्षु, यात्री-भिक्षु, विश्राम करना चाहे, तो उसे कम से कम एक
प्रश्न का उत्तर देना चाहिए। जब तक वह एक प्रश्न का ठीक उत्तर न दे दे, तब
तक वह अर्जित नहीं करता विश्राम के लिए। वह आश्रम में रुक नहीं सकता, उसे
आगे जाना पड़ेगा। आश्रम का प्रमुख द्वार पर आया, द्वार खोला और उसने झेन
फकीरों की एक बहुत पुरानी पहेली इस अतिथि के सामने रखी। पहेली है कि
तुम्हारा असली चेहरा क्या है? मूल चेहरा कौन सा है? वैसा मूल चेहरा, जो
तुम्हारे मां और बाप के पैदा होने के पहले भी तुम्हारा ही था।
यह आत्मा के संबंध में एक प्रश्न है; क्योंकि मां और बाप से जो मिला, वह
शरीर है; शरीर का चेहरा भी उनसे मिला। तुम्हारी ओरिजिनल, मौलिक मुखाकृति
क्या है? तुम्हारा स्वभाव क्या है? और झेन फकीर कहते हैं, इसका उत्तर
शब्दों से नहीं दिया जा सकता; इसका उत्तर तो जीवंत अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
जैसे ही यह सवाल पूछा गया, उस अतिथि फकीर ने अपने पैर से जूता निकाला और
पूछने वाले के चेहरे पर जूता मारा। पूछने वाला पीछे हट गया, झुक कर उसने
सलाम की, नमस्कार किया, और कहा: स्वागत है; भीतर आओ।
दोनों ने भोजन किया, फिर जलती हुई अंगीठी के पास बैठ कर दोनों रात बात करने लगे। मेजबान ने मेहमान से कहा, तुम्हारा उत्तर अदभुत था।
मेहमान ने पूछा, तुम्हें स्वयं इस उत्तर का अनुभव है?
मेजबान ने कहा, नहीं, मुझे तो अनुभव नहीं है, लेकिन बहुत मैंने शास्त्र
पढ़े हैं। और शास्त्रों से यह पाया है कि ठीक उत्तर देने वाला डगमगाता नहीं,
झिझकता नहीं। तुम बिना झिझके उत्तर दिए। और तुम्हारे उत्तर में बात छिपी
थी। शास्त्रों के आधार से मैं जानता हूं, मैं पहचान गया कि तुम्हें उत्तर
मिल गया है। क्योंकि तुमने जो उत्तर दिया, वह उत्तर यह था कि नासमझ, शब्द
में प्रश्न पूछता है, निःशब्द में उत्तर चाहता है! नासमझ, मूल चेहरे की बात
पूछता है, और मूल चेहरा तो तेरे पास भी है! इसलिए मैं जूते मार कर तेरे
चेहरे को उत्तर दे रहा हूं कि यह चेहरा मूल नहीं है, जूता मारने योग्य है।
मेजबान ने कहा कि मैं समझ गया तेरा उत्तर, शास्त्र मैंने पढ़े हैं और उसमें ऐसे उत्तर लिखे हैं।
मेहमान कुछ बोला न, चुपचाप चाय की चुस्की लेता रहा। तब जरा मेजबान को शक
हुआ, उसने गौर से इसके चेहरे को देखा, इसके चेहरे में उसे कुछ प्रतीत हुआ
जो बड़ा असंतोषदायी था। उसने फिर से पूछा कि मित्र, मैं एक बार फिर पूछता
हूं, तुझे भी वस्तुतः उत्तर मिल चुका है या नहीं?
मेहमान ने कहा, मैंने भी बहुत शास्त्र पढ़े हैं। और जहां से तुमने मुझे
पहचाना कि उत्तर मिल गया, वहीं से मैंने यह उत्तर पढ़ा है; उत्तर तो मुझे भी
नहीं मिला है।
शास्त्र भयंकर धोखा हो सकता है, क्योंकि शास्त्र में उत्तर लिखे हैं।
लेकिन शास्त्र के उत्तर को दोहराना वैसे ही है, जैसे गणित की किताब के पीछे
उत्तर दिए होते हैं। तुम गणित पढ़ो, उलटा कर किताब के पीछे उत्तर देख लो।
तो उत्तर तो तुम सही दे दोगे, लेकिन उस प्रश्न से उत्तर तक पहुंचने का जो
मार्ग है, जो विधि है, वह तुम्हारे पास न होगी। उत्तर कितना ही सही हो, तुम
गलत ही रहोगे; क्योंकि तुम तो विधि से गुजरते, तभी निखरते।
उत्तर दूसरे का काम नहीं आ सकता; उत्तर अपना ही चाहिए। और परमात्मा
तुम्हारी शास्त्रीय परीक्षा न लेगा–अस्तित्वगत परीक्षा है। क्या तुमने
सुना, क्या तुमने पढ़ा, यह न पूछेगा–क्या तुमने जीया? अगर तुम्हारे जीवन में
ही तुम्हें उत्तर मिला हो, तो तुम्हारे श्रम से मिला है।
तो चाहे धन बाहर का हो; अगर बाहर के धन को तुम श्रम से कमाओ, तो
तुम्हारे जीवन में नैतिकता होगी; और अगर भीतर के धन को तुम श्रम से कमाओ,
तो तुम्हारे जीवन में धार्मिकता होगी–प्रामाणिक धर्म होगा। इसी को स्वामी
राम ने नगद धर्म कहा है। उधार धर्म; नगद धर्म।
उधार धर्म ऐसा है: उत्तर तो सब सही, लेकिन नपुंसक, कोरे, खाली; चली हुई
कारतूस जैसे। उसको बंदूक में रख कर चलाने की कोशिश मत करना, हंसी होगी जगत
में। वह चली हुई कारतूस है।
लेकिन अधिकतर लोग यही कर रहे हैं–दूसरों के उत्तर दोहरा रहे हैं।
यंत्रवत दोहराए चले जा रहे हैं। अपना प्रश्न भी उन्होंने अब तक नहीं खोजा
है, अपना उत्तर तो बहुत दूर। अभी उन्हें यह भी पता नहीं है कि हमारे
अस्तित्व का प्रश्न क्या है जिसकी हम खोज कर रहे हैं। हम क्या जानना चाहते
हैं, इसका भी अभी ठीक-ठीक पता नहीं है।
‘हे मूढ़, धन बटोरने की तृष्णा छोड़, सदबुद्धि को जगा। उसी से संतुष्ट और
प्रसन्न रह जो श्रम से मिलता है। हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
भज गोविंदम मूढ़मते
ओशो
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