हमारे शरीर तक आते आते क्रोध का बबूला पूरी तरह फूटता है; वह सतह पर
आकर प्रकट होता है। चाहो तो तुम इस शरीर पर आने के पहले उसको भाव शरीर में
रोक सकते हो; वह दमन होगा। लेकिन अगर तुम भाव शरीर में उसको गौर से देखो तो
तुम बहुत हैरान होओगे कि उसकी यात्रा भाव शरीर के और भी पहले से हो रही
है लेकिन वहां वह क्रोध नहीं है, वहां वह सिर्फ तरंगें है।
जैसे मैंने कहा कि…….जगत में, असल में, अलग अलग पदार्थ नहीं हैं,
अलग अलग तरंगों के संघात हैं। कोयला भी वही है, हीरा भी वही है; सिर्फ
तरंगों के संघात में फर्क पड़ गया है। और अगर हम किसी भी पदार्थ को तोड़ते
चले जाएं तो नीचे जाकर विद्युत ही रह जाती है, और उसके अलग अलग संघात और
अलग अलग संघट अलग अलग तत्वों को बना देते हैं। ऊपर वे सब भिन्न हैं, लेकिन
बहुत गहरे में जाकर एक हैं।
तो अगर तुम भाव शरीर के प्रति जागकर उसका पीछा करोगे, तो तुम अचानक
सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाओगे। और वहां तुम पाओगे क्रोध क्रोध नहीं है,
क्षमा क्षमा नहीं है, बल्कि दोनों की तरंगें एक ही हैं; प्रेम और घृणा की
तरंगें एक ही हैं, सिर्फ संघात का भेद है। और इसलिए तुम्हें बड़ी हैरानी
होती है कि तुम्हारा प्रेम कभी घृणा में बदल जाता है, कभी घृणा प्रेम में
बदल जाती है! जिनको हम बिलकुल विपरीत चीजें समझते हैं, ये बदल कैसे जाती
हैं! जिसको मैं कल मित्र कहता था, वह आज शत्रु हो गया। तो मैं कहता हूं कि
शायद मैं धोखा खा गया, वह मित्र था ही नहीं। क्योंकि हम मानते हैं कि मित्र
शत्रु कैसे हो सकता है!
मित्रता और शत्रुता की तरंगें एक ही हैं संघात का फर्क है, सघनता का
फर्क है, चोट का फर्क है तरंगों में कोई फर्क नहीं है। जिसे हम प्रेम कहते
हैं सुबह प्रेम है, दोपहर को घृणा हो जाता है; दोपहर को घृणा है, सांझ को
प्रेम हो जाता है। बड़ी कठिनाई होती है कि हम एक ही व्यक्ति को प्रेम करते
हैं, उसी को घृणा भी करते हैं क्या?
जिन खोजा तिन पाइया
ओशो
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