मैं तुम्हें आज्ञा का पालन नहीं सिखा सकता हूं। मैं तुम्हें बोध दे सकता
हूं ऐसी कसौटी, जिस पर कस कर तुम देख लो क्या सोना है, क्या पीतल। सोना हो
तो मानना और पीतल हो तो कभी मत मानना। और तुम्हें जो आज्ञाएं अब तक दी गई
हैं उनमें निन्यानबे प्रतिशत पीतल है।
तो विवाद तो खड़ा हो जाएगा। मैं विवादास्पद तो हो ही जाऊंगा। क्योंकि मैं
कुछ सिखा रहा हूं जिससे न्यस्त स्वार्थों को बाधा पड़ेगी। अगर तुम मेरी बात
समझोगे तो राजनेता तुम्हें धोखा नहीं दे सकेंगे, जितनी आसानी से वे
तुम्हें धोखा दे रहे हैं। तुम उनके आश्वासनों में न आओगे। तुम उनकी
जालसाजियां देख सकोगे। तुम उनकी बेईमानियां पहचान सकोगे। तुम देख सकोगे कि
ये छिपे हुए चोर हैं। खादी के शुभ्र वस्त्र इन चोरों को छिपने के लिए खूब
सुरक्षा का कारण बन गए हैं। ये बेईमान हैं। ये अपराधी हैं। मगर इनके अपराध
सूक्ष्म हैं, तुम्हारी पकड़ में नहीं आते।
छोटे-मोटे चोर पकड़े जाते हैं; बड़े चोर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन
जाते हैं। छोटे-मोटे स्मगलर सजा काटते हैं; बड़े स्मगलर राजनेता हो जाते
हैं। छोटे लुटेरे सूलियां चढ़ते हैं; बड़े लुटेरे– चंगीजखां, तैमूरलंग,
नादिरशाह, अकबर, औरंगजेब, सिकंदर, नेपोलियन–इन सबके नाम पर इतिहास में
प्रशस्तियां लिखी जाती हैं। ये सब डाकू हैं।
जो ऐसा कहेगा वैसा व्यक्ति विवादास्पद तो हो ही जाएगा।
और मैं कहता हूं कि शास्त्रों में सत्य नहीं है। इसलिए हिंदू पंडित
नाराज, मुसलमान मौलवी नाराज, ईसाई पादरी नाराज। शब्दों में कहीं सत्य हो
सकता है? शब्द है–“अग्नि’। “अग्नि’ में कहीं आग है? कागज पर “अग्नि’
लिखोगे, इस पर चाय बना सकोगे? शब्द है “पानी’। कागज पर लिख लोगे, या अगर
वैज्ञानिक हुए तो लिखोगे एच टू ओ, इससे प्यास बुझा सकोगे? लेकिन लोग गीता
पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं, कुरान पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं कि परमात्मा
से मिलन हो जाएगा।
कागजों में परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता। परमात्मा से मिलन करना हो तो
अपनी स्वयं की चेतना की सीढ़ियों में उतरना पड़ेगा; अपनी स्वयं की गहराइयों
से गहराइयों में जाना पड़ेगा। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है, लेकिन
तुम्हारी आत्यंतिक गहराई को छूना पड़ेगा। नहीं शास्त्रों में, वरन स्वयं
में। नहीं ज्ञान में, वरन ध्यान में। नहीं मिलेगा शब्द में, मिलेगा मौन
में।
काहे होत अधीर
ओशो
No comments:
Post a Comment