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Monday, July 18, 2016

परमात्मा असीम है

कुछ ही दिन पहले एक महिला पश्चिम से आयी। यहाँ छः महीने से आकर है। मेरे पास आने से डरती रही। फिर हिम्मत जुटाकर आयी भी तो कहा कि मैं आपके संग साथ हो नहीं सकती, क्योंकि मैं केथॅलिक ईसाई हूँ। मैं कैसे आपके संग साथ हो सकती हूँ? मैं क्राइस्ट को नहीं छोड़ सकती। मैंने उससे कहा पागल, तुझसे कहा किसने है कि क्राइस्ट को छोड़! मुझे छोड़ने में ही क्राइस्ट को छोड़ देगी, मुझे पकड़ने में क्राइस्ट को पा लेगी। नहीं, लेकिन वह सुनने को भी राजी नहीं थी। उसने सुना भी नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। वह अपनी ही कहे गयी कि यह कभी नहीं हो सकता। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकती। ईसाइयत तो श्रेष्ठतम धर्म है।

अब यह महिला मधुशाला के द्वार से ही लौट जाएगी। यह कहती है मैं भीतर नहीं आ सकती, क्योंकि मैं ईसाई हूँ। जो ईसाई है, वह परमात्मा में नहीं आ सकता। और जो हिंदू है, वह भी नहीं आ सकता। और जो जैन है, वह भी नहीं आ सकता। जो सीमाओं को पकड़े हुए है, वह परमात्मा में नहीं जा सकता। परमात्मा न हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई। परमात्मा असीम है।
 
और मजा ऐसा है कि हिंदुओं के शास्त्र कहते परमात्मा असीम है, और मुसलमानों के शास्त्र कहते परमात्मा असीम है, मगर हमने सीमाएँ बना ली हैं। हम हर चीज से सीमा बना लेते हैं। हम हर चीज से सीमित हो जाते हैं। हमें कारागृहों से कुछ ऐसा मोह है, हमें जंजीरों से कुछ ऐसा लगाव है, हम जंजीरों को आभूषण समझते हैं और हम उनको खूब सजा लेते हैं। सोने की बना ली हैं जंजीरें और उन पर बहुमूल्य हीरे जड़ लिए हैं, अब उनको छोड़ें भी तो कैसे छोड़ें, जीवन भर तो उन पर बरबाद कर दिया है। हम कहते हैं कि नहीं नहीं, ये जंजीरें नहीं हैं, ये मेरी सीमा नहीं हैं, यह मेरा सत्व है। ब्राह्मण मेरा सत्व है, शूद्र मेरा सत्व है, यह मेरी सीमा नहीं है। फिर सीमा और क्या होती?


आदमी पर सीमाएँ क्या हैं? यही क्षुद्र बातें। इन सारी क्षुद्रताओं को जो गिरा देता है, उसने सीमाएँ गिरा दीं। और जिसने सीमाएँ गिरा दीं, उसने घोषणा की कि परमात्मा असीम है। शास्त्र में लिखने से कुछ भी न होगा, तुम्हारे अस्तित्व से घोषणा होनी चाहिए।

संतो मगन भया मन मेरा 

ओशो 


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