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Thursday, July 7, 2016

कविता और विज्ञान

जैसे शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। काले ब्लैकबोर्ड पर ही लिखा जा सकता है सफेद खड़िया से। सफेद दीवाल पर लिखोगे तो दिखाई न पड़ेगा। तो काला सफेद का दुश्मन नहीं है, परिपूरक है। सफेद को उभार लाता है, सफेद को प्रगट करता है, सफेद के लिए अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना बनता है।


दुनिया से जिस दिन कविता खो जाएगी, उस दिन विज्ञान भी खो जाएगा। जिस दिन दुनिया से विज्ञान खो जाएगा, उस दिन कविता भी खो जाएगी। वे एक-दूसरे को उभारते हैं, प्रगट करते हैं। दुनिया समृद्ध है क्योंकि अनंत-अनंत दृष्टियों का यहां मेल है। दुनिया में इतने धर्म हैं, वे मनुष्य को समृद्ध करते हैं। वे अलग-अलग देखने की दृष्टियां हैं।

तुम्हें जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो भा जाए उस पर चलना। लेकिन भूलकर भी ऐसा मत सोचना कि यही सत्य है, यही मात्र सत्य है। जिसने ऐसा सोचा, यही सत्य है, उसने अपने सत्य को असत्य कर लिया।

इसलिए महावीर ने स्यातवाद को जन्म दिया। स्यातवाद का अर्थ होता है, मैं भी ठीक, तुम भी ठीक। मैं भी ठीक, तुम भी ठीक, कोई और भी हो वह भी ठीक। जो कहा गया है वह भी ठीक, और जो अभी कहा जाएगा वह भी ठीक। जो दृष्टियां प्रगट हो गई हैं वे तो ठीक हैं ही, जो दृष्टियां भविष्य में प्रगट होंगी वे भी ठीक हैं।

लेकिन सभी दृष्टियां अधूरी हैं। कोई दृष्टि पूरी नहीं है। कोई दृष्टि पूरी हो नहीं सकती। दृष्टि मात्र अधूरी है। जहां सारी दृष्टियां शांत हो जाती हैं वहां दर्शन का जन्म होता है। लेकिन दृष्टियां तो तभी समाप्त होती हैं, जब तुम बिलकुल समाप्त हो जाते हो। जब तक तुम हो, दृष्टि बनी रहती है। तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, तुम जैन हो, तुम ईसाई हो, तो तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम जो भी देखते हो, उसे तुम रंगते जाते हो। उसे तुम अपने भाव का वस्त्र उढ़ाते जाते हो। तुम उसे अपनी वेशभूषा पहनाते जाते हो।


जब तुम बिलकुल मिट जाते हो, जब न तुम्हारे भीतर हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है, न आस्तिक है, न नास्तिक है; जब तुम यह भी नहीं जानते कि मैं विश्वास करता हूं कि अविश्वास करता हूं; जब तुमने सब धूल झाड़ दी, जब तुम बिलकुल निपट शून्य हो गए, निराकार हो गए तो दर्शन का जन्म होता है। तब जो जाना जाता है, उसे महावीर कहते हैं, वही सत्य है। और वैसा सत्य ही मुक्त करता है।


जिन सूत्र 

ओशो 

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