इस जीवन में जो भी घटता है, तुम्हारे अतिरिक्त कोई और उसका कारण नहीं
है। तुम हो मालिक अपनी नियति के। कोई और विधाता नहीं है जो तुम्हारा भाग्य
निर्मित करता है। तुम ही रोज अपना भाग्य निर्मित करते हो। तुम ही लिखते हो
अपनी किस्मत रोज, प्रतिपल। मूर्च्छित जीओगे तो नरक में जीओगे। होश में
जीओगे तो जहां हो वहीं स्वर्ग है। मूर्च्छित जीओगे तो सराय घर जैसी मालूम
होगी। और फिर बड़ी मुश्किल होगी। क्योंकि सराय सराय है, तुम्हारे मानने से
घर न हो जाएगी। आज नहीं कल सराय छोड़नी ही पड़ेगी। और तब बहुत पीड़ा होगी।
इतने दिन की आसक्ति, इतने दिन का लगाव, इतने पुराने बंधन, इतनी गहरी
जड़ें–सब उखाड़ कर जब अनंत की यात्रा पर निकलोगे, बहुत पीड़ा होगी। लौट-लौट कर
देखोगे। न जाना चाहोगे। तड़पोगे। पकड़-पकड़ रखना चाहोगे। देह को पकड़ोगे, मन
को पकड़ोगे। लेकिन कुछ भी काम न आएगा। जाना है तो जाना होगा। कितना ही रोओ,
कितना ही तड़फो, कितना ही चिल्लाओ-चीखो, सराय सराय है और घर नहीं हो सकती
है।
और जो सराय को सराय की तरह देख लेता है, उसने अपने घर की खोज में एक
बहुत महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। क्योंकि अंधेरे को अंधेरे की तरह पहचानना
प्रकाश को प्रकाश की तरह पहचानने के लिए अनिवार्य पृष्ठभूमि है। गलत को गलत
की तरह देख लेना सही को देखने के लिए भूमिका है।
दुनिया बहुत बड़ी है, जीवन का भी है विस्तार बड़ा,
तू किस भ्रम में युगों युगों से इस सराय के द्वार खड़ा?
कभी यह सराय, कभी वह सराय। कभी यह देह, कभी वह देह। कभी यह योनि, कभी वह
योनि। और दुनिया का विस्तार बहुत बड़ा है! सराय ही सराय फैली हैं। एक सराय
से चुकते हो, दूसरी सराय में उलझ जाते हो। अपना घर कब तलाशोगे? अपनी खोज कब
करोगे? धन खोजा, पद खोजा, प्रतिष्ठा खोजी; अपने को कब खोजोगे? औरों की ही
खोज में लगे रहोगे? अपने से अपरिचित! और जो अपने से अपरिचित है, वह कैसे
दूसरे से परिचित हो सकता है? जो अपने से ही परिचित नहीं, उसे परिचय की कला
ही नहीं आती। वह दूसरों से भी अपरिचित ही रहेगा। उसका सब ज्ञान मिथ्या है,
थोथा है। जो अपने से परिचित है, उसने ठीक बुनियाद रखी ज्ञान की।
अपने से परिचय का नाम ध्यान है। आत्म-परिचय की प्रक्रिया ध्यान है। और
जिसने ध्यान की शिला पर अपने मंदिर को बनाया है, उसके मंदिर के शिखर आकाश
में उठेंगे; बादलों को छुएंगे; चांदत्तारों का अमृत उन पर बरसेगा; सूरज की
रोशनी में चमकेंगे। उसके जीवन में गरिमा होगी। और जिसने जीवन का मंदिर बना
लिया, उसके मंदिर में एक दिन परमात्मा की प्रतिष्ठा होती है।
काहे होत अधीर
ओशो
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